क्या उत्तर प्रदेश में अब मॉब लिन्चिंग की वारदात कभी नहीं होगी? क्या यहाँ अख़लाक और तबरेज़ हत्या जैसे कांड नहीं होंगे? क्या उत्तेजित भीड़ किसी को पीट-पीट कर माल डालने की हिम्मत नहीं कर सकेगी? ये सवाल लाज़िमी इसलिए हैं कि उत्तर प्रदेश विधि आयोग ने मॉब लिन्चिंग रोकने से जुड़े क़ानून रोकने की सिफ़ारिश राज्य सरकार को की है। यह अब सरकार पर निर्भर करता है कि वह क्या करती है। यह सवाल अहम इसलिए भी है कि योगी आदित्यनाथ सरकार की नीयत पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं और कहा जा रहा है कि वह इस क़ानून के ज़रिए उन्हीं लोगों को निशाने पर ले सकती है, जिनकी सुरक्षा के लिए क़ानून बनाने की बात हो रही है।
उत्तर प्रदेश सरकार मॉब लिन्चिंग यानी पीट पीट कर मार डालने की वारदात रोकने के लिए क़ानून जिन लोगों की हिफ़ाजत के लिए बनाने का दावा कर रही है, वे लोग ही सबसे ज़्यादा सहमे हुए हैं।
पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदायों के लोग क़ानून के मसौदे से डरे हुए हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इसका सबसे ज्यादा दुरुपयोग उन्हीं के ख़िलाफ़ हो सकता है। इतना ही नही, मॉब लिन्चिंग की ज़्यादातर वारदात को नकारने वाली योगी आदित्यनाथ सरकार की नीयत पर भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं।
क्या है मामला?
राज्य विधि आयोग ने उत्तर प्रदेश सरकार को मॉब लिंचिंग रोकने के लिए विशेष क़ानून बनाने की सलाह दी है। आयोग ने मुख्यमंत्री को सौंपे अपने 128 पन्नों के मसौदे में इस तरह की घटनाओं में सज़ा के प्रावधान पर भी अपनी सिफ़ारिशें दी है। कहा गया है कि- मॉब लिन्चिंग की वारदात में पीड़ित के मारे जाने पर दोषी को उम्रक़ैद की सज़ा दी जाए और 5 लाख रुपये का ज़ुर्माना हो।
- पीड़ित के बुरी तरह जख़्मी होने पर 10 साल तक की जेल की सज़ा और 3 लाख रुपये का ज़ुर्माना।
- मॉब लिन्चिंग के लिए उकसावा देने वालों और साजिश रचने वालों को वही सज़ा हो जो लिन्चिंग में शामिल लोगों को होती है।
- हिंसा के लिए उग्र वातावरण तैयार करने या इसमें भाग लेने वालों को छह महीने की सज़ा।
- मॉब लिन्चिंग मामलों में ड्यूटी में कोताही बरतने वाले पुलिस अफ़सरों और ज़िला मजिस्ट्रेट को एक साल की जेल, इसे बढ़ा कर 3 साल तक की जेल और 5000 रुपये का ज़ुर्माना भी किया जा सकता है।
जानकारों का कहना है कि योगी सरकार को मसौदा दे दिया गया है, अब उसे यह तय करना है कि विशेष क़ानून बनाती है या नही। आँकड़े बताते हैं कि 2012 से लेकर 2019 में अब तक यूपी में 50 लोग मॉब लिंचिंग की वारदात के शिकार बन चुके हैं। इन घटनाओं में 11 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया है, जबकि 25 पर गंभीर हमले हुए हैं। इसमें गाय से जुड़ी हिंसा के मामले भी शामिल हैं। विधि आयोग के मुताबिक़, भीड़ हिंसा को लेकर देश में अब तक केवल मणिपुर ही ऐसा राज्य हैं, जहां अलग क़ानून बनाया गया है।
मुसलमानों, दलितों के ख़िलाफ़
प्रस्तावित क़ानून के मसौदे से असहमत ज़्यादातर लोगों का कहना है कि इसका सबसे ज़्यादा दुरुपयोग उन्हीं तबकों के ख़िलाफ़ हो सकता है, जिनकी सुरक्षा को लेकर चिंता जताई जा रही है। मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के यूपी के उपाध्यक्ष रामकुमार का कहना है कि क़ानून की आड़ में पुलिस प्रदर्शन कर रहे दलितों व मुसलमानों को भी भीड़ हिंसा का दोषी क़रार दे सकती है। उनका कहना है कि क़ानून के मसौदे में साफ़ जिक्र होना चाहिए कि दलितों, आदिवासियों व अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा मॉब लिन्चिंग है न कि सामान्य हिंसा। बलात्कार के ख़िलाफ़ पहले से क़ानून और धाराएँ थीं, पर निर्भया कांड के बाद इसे जिस तरह से कठोर बनाया गया है, उसी तर्ज पर मॉब लिंचिंग कानून भी बनाया जाना चाहिए। नीयत पर संदेह
क़ानून के प्रस्तावित मसौदे को नाकाफ़ी बताते हुए रिहाई मंच के प्रवक्ता राजीव यादव कहते हैं कि योगी सरकार इस तरह की घटनाओं को मॉब लिंचिंग मानने से ही इंकार कर देती है। इससे सरकार की नीयत साफ़ हो जाती है। उनका कहना है कि प्रस्तावित कानून में जो सज़ा के प्रावधान हैं, वे तो आईपीसी में पहले से ही हैं। इसमें नया क्या है?
मानवाधिकार कार्यकर्त्ता शहरयार का कहना है कि प्रस्तावित क़ानून में भीड़ हिंसा को रोकने में लापरवाही बरतने पर पुलिस अफ़सरों और ज़िलाधिकारियों की ज़िम्मेदारी तय करने और उन्हें भी सज़ा देने की सलाह दी गई है, जो सबसे महत्वपूर्ण है।
मॉब लिंचिंग के ज़्यादातर ज्यादातर मामलों में पुलिस हिंसा को रोकने का प्रयास तक नही करती दिखती है।
एआईएमआईएम के राष्ट्रीय प्रवक्ता सैय्यद आसिम वकार का कहना है कि यदि इस क़ानून को मौजूदा प्रारूप में ही लागू किया गया तो तमाम क़ानूनों की तरह एक और नकारा प्रयास से ज़्यादा कुछ नही होगा। उनका कहना है कि यूपी में तो मॉब लिंचिंग के मामले में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर मुक़दमा दर्ज किया गया और जेल भेजा गया।
महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इस क़ानून के ज़रिए राज्य सरकार और सत्तारूढ़ बीजेपी क्या हासिल करना चाहती हैं। क्या वे वाकई मॉब लिन्चिंग रोकना चाहती हैं या सिर्फ दिखावा करना चाहती है, यह अहम सवाल है। यह सवाल इसलिए भी अहम है कि कई मामलों में सत्तारूढ़ दल से जुड़े लोग ही मॉब लिन्चिंग में शामिल पाए गए हैं और पुलिस ने उन्हें बचाने की कोशिश की है। ज़्यादातर मामलों में अभयुक्तों को सज़ा नहीं दी गई है, कई मामलों में राज्य सरकारों पर आरोप लगे हैं कि वह मामले में दिलचस्पी नहीं ले रही है और जानबूझ कर उसे लटकाए हुए है।
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