गुजरात के एक अस्पताल में कोरोना वायरस मरीजों के जिस तरह धर्म के आधार पर इलाज का आरोप लगा था उसी तरह का आरोप अब उत्तर प्रदेश के एक अस्पताल पर भी लगा है। मेरठ के वेलेंटिस कैंसर हॉस्पिटल ने तो बाक़ायदा हिंदी अख़बार दैनिक जागरण के मेरठ एडिशन में इसके लिए विज्ञापन भी निकाल दिया। विज्ञापन में कहा गया है कि हॉस्पिटल अब नये मुसलिम मरीजों को तब तक भर्ती नहीं करेगा जब तक कि वह कोरोना नेगेटिव होने की रिपोर्ट नहीं देगा। ऐसी शर्त दूसरे धर्म के लोगों के लिए नहीं है। हालाँकि, कुछ विशिष्ट मुसलिमों को इस नियम से छूट दी गई है।
हॉस्पिटल द्वारा धर्म के आधार पर मरीज़ों की भर्ती के नये नियम बनाए जाने से विवाद होने की संभावना है क्योंकि हॉस्पिटल का यह ताज़ा नियम मेडिकल दिशा-निर्देशों के ख़िलाफ़ है।
हाल ही में गुजरात के अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में भी धर्म के आधार पर कोरोना वार्ड बनाने की ख़बर आने के बाद ऐसा ही विवाद हुआ था। तब गुजरात सरकार ने उस रिपोर्ट को खारिज कर दिया था। उस हॉस्पिटल के मेडिकल सुप्रींटेंडेंट डॉ. गुणवंत एच राठौड़ ने भी कहा था कि धर्म के आधार पर अलग कोरोना वार्ड नहीं बनाया गया है और उनके बयान को ग़लत तरीक़े से पेश किया गया है। यानी वह पिछले बयान से पूरी तरह पलट गए। एक दिन पहले ही 'द इंडियन एक्सप्रेस' ने लिखा था कि राठौड़ ने कहा था कि 'यहाँ हमने हिंदू और मुसलिम मरीजों के लिए अलग-अलग वार्ड बनाए हैं।' इसके बाद विवाद थम गया।
लेकिन अब उत्तर प्रदेश में मेरठ के अस्पताल के मामले में भी वैसा ही विवाद होने की संभावना है। 'द वायर' की रिपोर्ट के अनुसार, हॉस्पिटल ने यह क़दम इसका हवाला देते हुए उठाया है कि कुछ मुसलिम मरीज़ मास्क पहनने, स्वच्छता का ख़याल रखने जैसे दिशा-निर्देशों को नहीं मान रहे हैं और हॉस्पिटल स्टाफ़ के साथ ग़लत व्यवहार कर रहे हैं। हॉस्पिटल द्वारा दिए गए विज्ञापन के अनुसार, 'अस्पताल के कर्मचारियों और मरीज़ों की सुरक्षा के लिए अस्पताल प्रशासन सभी नए मुसलिम मरीज़ों से आग्रह करता है कि वे और अपने साथ देखभाल के लिए आने वाले लोगों का कोरोना का परीक्षण कराएँ और केवल तभी अस्पताल आएँ जब उनकी रिपोर्ट नेगेटिव हो।'
धर्म के आधार पर बनाए गए इन अजीबोगरीब नियमों के तहत हॉस्पिटल प्रशासन ने विज्ञापन में दावा किया है कि दिल्ली में तब्लीग़ी जमात के कार्यक्रम के बाद कोरोना मरीजों की संख्या में 'अप्रत्याशित' बढ़ोतरी हुई है।
विज्ञापन में यह भी कहा गया है कि कुछ मुसलिमों के ख़राब रवैये के कारण सभी मुसलिम भाइयों को कुछ समय के लिए दिक्कत उठानी पड़ेगी। हालाँकि आपात स्थिति वाले मरीज़ों के प्रति थोड़ा नरम रुख रखा गया है और कहा गया है कि ऐसे मरीज़ों को भर्ती किया जा सकता है लेकिन उनके स्वाब के सैंपल लेकर मेरठ मेडिकल कॉलेज भेजा जाएगा और मरीज़ को 4500 रुपये भुगतान करने होंगे।
जैन ने कहा कि इन नियमों से मुसलिम डॉक्टर, स्वास्थ्य कर्मी, जज, पुलिस कर्मी, शिक्षक और दूसरे उन मुसलमानों को छूट दी गई है जो सघन मुसलिम बस्तियों में नहीं रहते हैं। उन्होंने यह भी साफ़ किया कि मुसलिम बहुल क्षेत्रों में रह रहे इसलाम के अलावा दूसरे धर्मों के लोगों पर भर्ती होने से पहले कोरोना जाँच रिपोर्ट नेगेटिव देने का यह नियम नहीं लागू होगा।
वेलेंटिस हॉस्पिटल ने विज्ञापन जारी करने के दूसरे दिन ही स्पष्टीकरण का एक और विज्ञापन दैनिक जागरण में प्रकाशित किया। इसमें उन कुछ हिंदू और जैन लोगों से खेद प्रकट करते हुए माफ़ी माँगी गई जिनकी भावनाओं को कथित तौर पर ठेस पहुँचा था। यह माफ़ी पहले विज्ञापन में यह लिखने के लिए थी जिसमें लिखा था 'हम आर्थिक रूप से संपन्न हिंदू/जैन परिवारों, जिनमें अधिकांश कंजूस हैं, से भी आग्रह करते हैं कि पीएम केयर्स फंड में सहयोग राशि देकर इस आपदा के समय देश के लिए महत्वपूर्ण योगदान दें।'
ये सारे नियम एक नज़र में अजीबोगरीब जान पड़ते हैं। ऐसे नियम मेडिकल इथिक्स यानी आचारनीति के अनुसार नहीं हैं। सरकार के नियम भी धर्म के आधार पर मरीज़ों से भेदभाव की इजाजत नहीं देते हैं।
वेलेंटिस अस्पताल की यह नीति मरीज़ों के अधिकारों के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के उस चार्टर का उल्लंघन है जिसे केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा अपनाया गया था और मार्च 2019 में इसे जारी किया गया था। चार्टर के बिंदु 8 के अनुसार, किसी भी मरीज़ को उसके धर्म या बीमारी के आधार पर इलाज से इनकार नहीं किया जा सकता है।
चार्टर में साफ़ कहा गया है कि हर मरीज़ को एचआईवी या दूसरी स्वास्थ्य स्थिति, धर्म, जाति, रंग, लिंग, आयु, सेक्सुअल ओरिएंटेशन, भाषाई या भौगोलिक-सामाजिक आधार पर बिना किसी भेदभाव के इलाज पाने का अधिकार है। उसमें यह भी कहा गया है कि अस्पताल प्रबंधन का कर्तव्य है कि वह सुनिश्चित करे कि अस्पताल की देखरेख में किसी भी व्यक्ति के साथ किसी भी प्रकार का भेदभावपूर्ण व्यवहार या इलाज न हो।
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