उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में किसानों के साथ हुई घटना बीजेपी को उत्तर प्रदेश ही नहीं, इसके पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में भी भारी पड़ सकती है। इस घटना के बाद से ही उत्तर प्रदेश के कई इलाक़ों के साथ ही उत्तराखंड के तराई वाले इलाक़े के किसानों में भी जबरदस्त ग़ुस्सा है और वे सड़क पर उतर आए हैं।
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में 5 महीने के अंदर चुनाव होने हैं। चुनाव से कुछ महीने पहले हुए इस वाक़ये को जिस तरह विपक्षी दलों ने मुद्दा बनाया है, उससे निपट पाना बीजेपी के लिए आसान नहीं होगा।
मोदी सरकार का सिरदर्द
दिल्ली के बॉर्डर्स पर चल रहा किसानों का आंदोलन बीते 10 महीनों से मोदी सरकार और बीजेपी के लिए सिरदर्द बना हुआ है। किसानों ने इस दौरान हरियाणा से लेकर पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगातार अपनी एकता और ताक़त को दिखाया है। उत्तराखंड के तराई वाले इलाक़े में भी किसानों का आंदोलन जोर-शोर से चल रहा है।
तराई में भड़के किसान
लखीमपुर खीरी की घटना के बाद उत्तराखंड के बाजपुर, गदरपुर, किच्छा, काशीपुर, रूद्रपुर और सितारगंज में किसानों ने जोरदार प्रदर्शन किया। इससे निश्चित रूप से बीजेपी की चिंता बढ़ी है क्योंकि किसान इस वाक़ये से बुरी तरह भड़के हुए हैं। इस इलाक़े में खेती-किसानी का लगभग पूरा काम सिखों के पास है और उनका यहां की सियासत में भी ख़ासा प्रभाव है।
उधम सिंह नगर जिले की 9 विधानसभा सीटों में सिख और पंजाबी मतदाता अच्छी संख्या में हैं। कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन की जिस तरह क़यादत पंजाब ने की है और बीजेपी के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला है, उससे इस इलाक़े के सिख और पंजाबी मतदाता निश्चित रूप से बीजेपी के विरोध में मतदान कर सकते हैं।
राजनीतिक संजीवनी मिली
किसान आंदोलन ने उत्तराखंड में जहां मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को राजनीतिक संजीवनी दी है, वहीं उत्तर प्रदेश में एसपी, बीएसपी, कांग्रेस और छोटे दलों को भी उम्मीद दिखाई है कि वे किसानों के मुद्दे को जोर-शोर से उठाकर योगी सरकार की सत्ता से विदाई तय कर सकते हैं।
लेकिन इस बात को भी ज़रूर समझ लें कि किसान आंदोलन का असर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कहां-कहां पर ज़्यादा हो सकता है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ग़ाजियाबाद से लेकर गौतमबुद्ध नगर, मेरठ से लेकर मुज़फ्फरनगर और मथुरा तक, बाग़पत से अलीगढ़, आगरा और अमरोहा, बिजनौर और सहारनपुर तक किसान आंदोलन का अच्छा-खासा असर है। मतलब यह कि यहां के किसान कृषि क़ानूनों को वापस करने से कम कुछ नहीं चाहते। इसके अलावा पीलीभीत, बरेली, शाहजहांपुर, खीरी और बदायूं में भी किसान संगठन कृषि क़ानूनों की लगातार मुखालफ़त कर रहे हैं।
उत्तराखंड
उत्तराखंड की बात करें तो यहां हरिद्वार और उधमसिंह नगर के इलाक़ों में किसान आंदोलन का अच्छा असर है। इन दोनों जिलों में किसानों की अच्छी-खासी संख्या है और यह बीजेपी के लिए मुश्किल भरा साबित हो सकता है। देहरादून जिले के मैदानी इलाक़ों में भी किसानों ने बीजेपी के ख़िलाफ़ माहौल बनाने का काम किया है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां 120 सीटें हैं वहीं हरिद्वार और उधमसिंह नगर जिलों में 20 सीटें हैं जो उत्तराखंड की कुल 70 विधानसभा सीटों का लगभग एक-तिहाई है।
यह कहा जा सकता है कि लखीमपुर खीरी के इस वाक़ये के बाद उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के इन इलाक़ों में किसान बीजेपी के ख़िलाफ़ और एकजुट हो सकते हैं और जिस तरह का विरोध बीजेपी नेताओं को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में झेलना पड़ा है, वह चुनाव के दौरान और बढ़ सकता है। निश्चित रूप से ऐसे हालात अगर बने तो बीजेपी का सत्ता में वापसी कर पाना मुश्किल हो जाएगा। उत्तराखंड में भी हालात इससे जुदा नहीं होंगे।
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