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‘यूपी गौ संरक्षण क़ानून’ के समुचित पालन के मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट के हाल के फ़ैसले ने योगी सरकार पर कस कर तमाचा जड़ा है। 5 अगस्त को शामली में गिरफ़्तार रहमुद्दीन की ज़मानत याचिका को स्वीकार करते हुए न्यायालय ने निरपराध लोगों के प्रति निरंतर हो रहे गौ संरक्षण क़ानून के दुरुपयोग पर गहरी चिंता व्यक्त की है।
यूँ तो 7 राज्यों को छोड़कर गौ वध पर देश के सभी राज्यों में प्रतिबन्ध लागू है लेकिन जिस 'तन्मयता' से उत्तर प्रदेश सरकार ने इस मामले में अपना डंडा चलाया है, और वैधानिकता की तमाम हदों को पार कर दिया है, उसका उदाहरण देश में दूसरा नहीं मिलता। योगी आदित्यनाथ के कुर्सी पर पदासीन होने के बीते साढ़े 3 सालों में 'गौ वध संरक्षण क़ानून को लेकर लगभग 10 हज़ार से ज़्यादा मुक़दमे दायर हुए हैं। अपने फ़ैसले में माननीय न्यायालय ने कहा, ‘ज़्यादातर मामलों में गौमांस की न तो जाँच की जाती है और न उसे फोरेंसिक जाँच के लिए ही भेजा जाता है। अभियुक्त ऐसे क़सूर के लिए लगातार जेल में पड़ा रहता है जो उसने किया ही नहीं होता है।’
सन 2012 की पशु गणना के अनुसार 'प्रदेश' में 4 लाख आवारा गायें थीं। अनुमानतः अब इनकी संख्या 6 लाख से ऊपर पहुँच चुकी होगी। इन ग़ैर दुधारू और बूढ़ी आवारा गायों के लिए न तो गौशालाएँ हैं न निजी आवास। आवारा गायों की वर्तमान दशा का चित्रण करते हुए जस्टिस सिद्धार्थ ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में कहा, ‘गौशालाएँ सूखी या बूढ़ी गायों को स्वीकार नहीं करतीं। उन्हें सड़कों पर छुट्टा छोड़ दिया जाता है। इसी तरह गायों के मालिक ऐसी गायों को सड़कों पर भटकने, सीवर का पानी पीने और प्लास्टिक व मैला खाने को छोड़ देते हैं जो दुधारू नहीं रहतीं।’
माननीय न्यायालय ने गहरा अफ़सोस प्रकट करते हुए कहा, ‘ऐसा ही गाँवों में होता है। लोग उन्हें भटकने को छोड़ देते हैं। वे खेती को तबाह करती फिरती हैं। किसान पहले नीलगाय से अपने खेतों की रक्षा करते रहते थे, अब उन्हें गायों से अपनी फ़सल बचानी पड़ रही है।’
माननीय न्यायाधीश ने अपने फ़ैसले के अंतिम भाग में कहा, ‘यदि ‘यूपी गौवध रक्षा क़ानून’ का अक्षरशः पालन करना है तो यह सुनिश्चित करना होगा कि या तो इनके लिये पर्याप्त गौशालाएँ बनाई जाएँ या फिर ये अपने मालिक के पास रहें।’
'प्रदेश' में बड़े पैमाने पर निरपराध लोगों को गौवध या गौमांस रखने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता रहा है।
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उपलब्ध अकेले इस वर्ष के आँकड़ों पर नज़र डालें तो गौ वध के नाम पर जिन 176 लोगों को 19 अगस्त तक गिरफ़्तार किया गया है, उनमें आधे से भी ज़्यादा (76) को 'राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून' (एनएसए) में निरुद्ध किया गया है। इस सम्बन्घ में 'एनएसए' से इतर 25 अगस्त तक दायर 1716 मामलों में कुल 4000 लोगों को गिरफ़्तार किया गया है। 13 ऐसे मामलों को बंद भी करना पड़ा जिनमें पुलिस साक्ष्य पेश करने में नाकामयाब रही थी।
वस्तुतः 'गौवध संरक्षण क़ानून' की आड़ में बीजेपी पशुधन व्यापार के गहरे समुद्र में किस तरह की तैराक साबित होने की फिराक़ में है, उसे भी समझ लेना आवशयक है। 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान ही गौहत्या के सवाल को बीजेपी ने बड़ा राजनीतिक सवाल बनाया था। वस्तुतः 23 मई 2017 में केंद्र सरकार के 'पर्यावरण और वन मंत्रालय' ने 'पशु क्रूरता निवारण क़ानून’ में नए नियमों में संशोधन करके पशु वध व्यापार पर जिस तरह की रोकथाम लगायी थी, उससे इस व्यापार का संचालन ही दुरूह हो गया था। अगले माह (जून में) उक्त मसला सर्वोच्च न्यायालय के पास पहुँचा। सुप्रीम अदालत ने नियमों में संशोधनों को बिना संसद में पारित किये जारी कर देने पर सरकार की कस कर खिंचाई की थी। बाद में संसद ने इन संशोधनों को पारित कर दिया।
इसका परिणाम यह हुआ कि इन 3 वर्षों में न सिर्फ़ घरेलू बाज़ार में भैंस और बकरी के मांस के व्यापार को गंभीर क्षति हुई बल्कि पशुधन व्यापार को भी ज़बरदस्त झटका लगा। जहाँ तक भैंस के मांस (बीफ़) के निर्यात का साल है, केंद्र की तमाम रोकटोक के बावजूद एक्सपोर्ट का ग्राफ़ निरंतर ऊपर गया। इसकी सीधी सादी वजह भारतीय 'बीफ़' का तुलनात्मक तौर पर एशियाई बाज़ारों में सबसे सस्ता होना था जिसने चीन सहित दूसरे एशियाई बाज़ारों और यूरोप की मंडियों को प्रभावित कर रखा था।
वाणिज्य मंत्रालय से जुड़ी खाद्य पदार्थों का निर्यात करने वाली एजेंसी 'एपीडा' के आँकड़ों के मुताबिक़ अकेले 2017-18 में यह प्रगति 13.5 लाख मेट्रिक टन (1.3%) थी। उधर दोबारा सत्ता में क़ाबिज़ होने के बाद 2019 में हुई मोदी कैबिनेट की पहली बैठक के एजेंडे में 'बीफ़' एक्सपोर्ट की प्रमोशन भी था हालाँकि कैबिनेट की तत्कालीन चिंता का सबब गाय-भैंसों में उस समय तेज़ी से फैल रही मुख-खुर की बीमारी थी। इसी मीटिंग में 13,343 करोड़ रुपये के 'बीफ़' के निर्यात के प्रस्ताव भी पारित हुए थे।
दरअसल, उत्तर भारत 'बीफ़' निर्यात के क्षेत्र में बड़े निर्यातकों में अधिकांश हिंदू बीजेपी नेताओं का दबदबा है और उनका सरकार पर दबाव था कि इस निर्यात को बढ़ावा दिया जाए।
दरअसल, बीजेपी एक ओर जहाँ बड़े निर्यातकों को 'प्रमोट कर रही है वहीं छोटे निर्यातकों और घरेलू मार्केट की छोटी मछलियों का सफाया कर डालना चाहती है (जिसमें बहुसंख्य मुसलिम हैं)।
अपनी पैतृक पार्टी 'भारतीय जनसंघ' के युग से गौ माता की चिंता में दुबली होती आयी बीजेपी गाय और उनके स्वास्थ्य एवं दुग्ध उत्पादकता के सवाल पर सचमुच कितनी गंभीर है, लगे हाथों उसे भी जान लेना ज़रूरी है। भारत की 2012 की पशुधन गणना के अनुसार देश में गायों की संख्या 19 करोड़ 90 लाख थी जो अनुमानतः बढ़कर अब 25 करोड़ से ऊपर हो चुकी होगी। यानी 6 वर्षों के मोदी काल में इनकी वृद्धि लगभग 4 करोड़ हुई है। दुनिया में गायों की आबादी का हमारा प्रतिशत गौरवपूर्ण (14. 5%) है। पिछले 3 दशकों में इनके प्रतिदिन के दूध उत्पादन का औसत 1.9 किग्रा से 3. 9 किग्रा ही रहा है। बीते 6 वर्षों में भी इनके दूध में कोई वृद्धि नहीं हुई है। यदि दुनिया के अन्य देशों से बेशक जहाँ उन्हें माता' का दर्जा नहीं मिला है, तुलना हो तो भी अमेरिका (32.8 किग्रा), यूके (25. 6 किग्रा) और इज़रायल (38. किग्रा) प्रतिदिन है। हमारी 19 करोड़ 90 लाख में देसी गाय 16 करोड़ 60 लाख यानी 83% हैं। इन देसी गायों के सिर्फ़ 20% को ही भारत सरकार के 'नेशनल ब्यूरो ऑफ़ एनिमल जेनेटिक रिसोर्स' ने मान्यता दी है। (यानी उन्हें काम का माना है।) बाक़ी 80 प्रतिशत 'ऐवेईं' हैं! उनको किसी योजना के क़ाबिल नहीं माना गया है।
गौ प्रेम का शंखनाद करने वाली बीजेपी सरकार ने देसी गायों की ब्रीड के विकास के लिए 6 साल में पहली बार 2019-20 में 2000 करोड़ रुपये का संकल्प पत्र पेश किया था लेकिन पूरे साल में आवंटन के नाम पर 'राष्ट्रीय गोकुल मिशन' की 'फ्लैगशिप' पर केवल 500 करोड़ रुपये आवंटित हुए। उसमें भी वास्तविक ख़र्च कितना हुआ, कोई नहीं जानता।
5 साल शासन कर चुकने के बाद अंतिम फ़रवरी 2019 में मोदी जी को गाय के विकास की याद आयी और तब 'राष्ट्रीय कामधेनु आयोग' का गठन किया गया जिसका 2019 के आगामी लोकसभा चुनावों में जम कर ढोल पीटा गया।
1 वर्ष 8 महीने गुज़र जाने के बाद 'आयोग' की कोई उपलब्धि सुनने को नहीं मिली सिवाय इस शुरुआती घोषणा के कि 'आयोग' निकट भविष्य में 'गौ पर्यटन' को प्रमोट करेगा। सरकार की 'निजी या कॉरपोरेट समूहों द्वारा गायों को गोद लेने के लिए बनी 'कैटेल अडॉप्टेशन स्कीम' के फ़ेल हो जाने पर 'आयोग' की ओर से पब्लिक-प्राइवेट सहभागिता के अंतर्गत 'आयोग' की यह नई परियोजना थी। गायों की श्रेणी के विकास के लिए 'आयोग' ठोस धरातल पर क्या कर रहा है यह बात इन 20 महीनों में निकल कर नहीं आ सकी है।
अब गऊ माता की सेवा के लिए प्रख्यात योगी आदित्यनाथ और उनकी सरकार का हाल सुनिए। दिसम्बर 2019 में 'मुख्यमंत्री निराश्रित बेसहारा गौवंश सहभागिता योजना' का श्रीगणेश हुआ। ढोल-ताशे बजाकर बताया गया कि इस 'योजना' के अंतर्गत गौशाला में रहने वाली प्रत्येक गाय के ऊपर सरकार की ओर से 30 रुपये प्रतिदिन ख़र्च होगा। गौशाला के संचालक यह सोच कर ही हैरान हैं कि 30 रुपये में तो गाय का नाश्ता भी नहीं आता, 3 टाइम भोजन का जुगाड़ कैसे होगा? इसी दौरान उनके पशुपालन मंत्री ने बाराबंकी में 'काऊ सफारी' का धमाका कुछ उसी अंदाज़ में किया था, जिस अंदाज़ में अखिलेश यादव ने अपने शासनकाल में 'लॉयन सफारी' का आगाज़ किया था।
इस काऊ सफ़ारी में 15 हज़ार से लेकर 25 हज़ार घुमन्तू गायों को रखने की योजना थी। साल भर बीतने को आ रहा है लेकिन सफ़ारी की प्रगति का ब्यौरा देने को कोई भी मौजूद नहीं है।
प्रदेश में गौशालाओं की ख़राब हालत की चर्चाएँ लम्बे समय से चल ही रही हैं। इन गौशालाओं के पास न तो समुचित फ़ंड हैं और न ही अन्य सुविधा। इसके बावजूद गाय का सवाल प्रदेश और राष्ट्र की क्रूर राजनीति के एजेंडे में लहरा रहा है और अबोध गायों और निरपराध लोगों को प्रताड़ित कर रहा है।
क्या इलाहाबाद हाईकोर्ट का ताज़ा फ़ैसला प्रताड़ना के तापमान के पारे को नीचे ला पाने में कामयाब होगा?
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