समाजवादी पार्टी को अब अगले विधानसभा में बीजेपी के लिए असली चुनौती के रूप में देखा जाने लगा है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सभाओं में जिस तरह बेशुमार भीड़ जुटी उसके आधार पर कहा जाने लगा है कि चुनावी रेस में समाजवादी पार्टी अब बहुजन समाज पार्टी से काफ़ी आगे निकल गयी है। कांग्रेस तो पहले से ही हाशिये पर पहुँच चुकी है। बहुजन समाज पार्टी के कई प्रमुख नेता जिस तरह समाजवादी पार्टी में शामिल हुए उसे देख कर भी अनुमान लगाया जा रहा है कि हवा का रूख समाजवादी पार्टी (सपा) की तरफ़ मुड़ चुका है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दबदबा रखने वाले लोक दल और पूर्वी उत्तर प्रदेश के दो तीन छोटे दलों ने बड़ी जल्दीबाज़ी में सपा के साथ चुनावी गठबंधन की घोषणा कर दी। इससे भी संदेश निकला कि फ़िलहाल सपा ही बीजेपी को चुनौती देने की स्थिति में है। कोरोना काल के संकट और महँगाई को देखें तो माहौल सपा के पक्ष में बनता हुआ दिखाई दे रहा है। लेकिन ग़ौर करने की बात ये है कि चुनाव में अभी क़रीब तीन महीने बाक़ी हैं और बीजेपी ने अब तक सारे पत्ते नहीं खोले हैं।
सपा और जातीय समीकरण
उत्तर प्रदेश में जाति एक बड़ा चुनावी चक्रव्यूह है और इसे कभी कभी महज़ भावनात्मक मुद्दे ही तोड़ पाते हैं। 2017 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने मुख्य तौर पर भारत -पाकिस्तान विवाद और हिंदू राष्ट्रवाद के मुद्दे पर तोड़ डाला था। इन दोनों चुनावों में एक चमत्कार यह हुआ कि सालों से मुलायम सिंह यादव को नेता और सपा को अपनी पार्टी मानने वाले यादव बँट गए। बड़ी संख्या में यादवों ने बीजेपी को वोट दिया।
दूसरी तरफ़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह और उनके परिवार की विरासत माने जाने वाले जाटों ने भी बीजेपी का झंडा उठा लिया। बीजेपी ने अति पिछड़ों के कई नेताओं को आगे करके एक अलग वोट बैंक बनाया। लेकिन इस बार स्थिति बदलती हुई नज़र आ रही है।
यादव अब बीजेपी से नाराज़ दिखाई दे रहे हैं। एमवाई यानी मुसलिम-यादव समीकरण फिर बनता हुआ दिखाई दे रहा है। बाक़ी कमी को ख़त्म करने के लिए अखिलेश ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी को साथ ले लिया है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन काफ़ी प्रभावशाली है। इसके चलते पश्चिम में बीजेपी का दबदबा कमज़ोर हुआ है।
कृषि क़ानूनों को वापस लिए जाने के बाद किसानों के रूख में बदलाव की उम्मीद की जा रही है लेकिन इस क्षेत्र में किसानों के प्रमुख नेता टिकैत अब एमएसपी को लेकर खड़े हो गए हैं। गन्ना किसानों को समय पर भुगतान पहले से ही एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है।
मूल मुद्दे पर भारी आभासी मुद्दा
आज की बात करें तो आम जनता के बीच महँगाई सबसे बड़ा मुद्दा है। खाने के तेल, दाल से लेकर सब्ज़ियों तक में आग लगी हुई है जिसकी आँच गाँव-गाँव में महसूस की जा रही है। नोटबंदी के बाद से ही बेरोज़गारी का जो संकट शुरू हुआ वो कोरोना काल में चरम तक पहुँचा। समस्या अब भी क़ायम है। इन सब के चलते बीजेपी से नाराज़गी तो है, लेकिन सवाल ये है कि क्या ये चुनाव का मुद्दा बन पाएगा।
बीजेपी इस बात पर काफ़ी सतर्क है। इसलिए आभासी मुद्दे गढ़े जा रहे हैं। पिछले दिनों अखिलेश के एक बयान के बाद अचानक यूपी में पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना पर बहस शुरू हो गयी। इसके पीछे एक सोची समझी राजनीति दिखाई देती है। चुनाव से महँगाई और बेरोज़गारी जैसे असली मुद्दों को बाहर रखो और हिंदू -मुसलिम विवाद जैसे आभासी मुद्दे को आगे करो। निश्चित तौर पर इसका फ़ायदा बीजेपी को होगा।
क्या होगा समीकरण?
समाजवादी पार्टी की कोशिश यादव, मुसलिम, जाट और अति पिछड़ों का एक गठबंधन तैयार करने की है। सपा और बहुजन समाज पार्टी दोनों ने ब्राह्मणों को साधने की कोशिश की। लेकिन इसमें किसी को भी बड़ी सफलता मिलती दिखाई नहीं देती। पहले कहा जा रहा था कि योगी राज में ठाकुरों का दबदबा बढ़ने से ब्राह्मण बीजेपी से नाराज़ हैं। लेकिन ब्राह्मणों का बीजेपी से अलग होना मुश्किल लगता है। कुल मिला कर सभी सवर्ण जातियाँ बीजेपी के साथ दिखाई दे रही हैं। बीजेपी को अपनी जीत निश्चित करने के लिए अति पिछड़ों और अति दलितों का समर्थन चाहिए। पाकिस्तान और इसलाम के विरोध के ज़रिए धार्मिक और राष्ट्रवादी उभार पैदा करना आसान हो सकता है।
मायावती और बहुजन समाज पार्टी के सामने समस्या ये है कि 2007 के चुनावों की तरह ब्राह्मण उनके साथ नहीं हैं। अति पिछड़ों और अति दलितों के कई बड़े नेता उनसे नाराज़ होकर सपा या बीजेपी में जा चुके हैं।
ममता की तरह लड़ पाएँगे अखिलेश?
हाल के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को सबसे बड़ी चुनौती बंगाल में ममता बनर्जी ने दी। क्या अखिलेश उत्तर प्रदेश में बंगाल वाला जज़्बा पैदा कर पाएँगे? यह बहुत साफ़ है कि ममता की तरह अखिलेश स्ट्रीट फ़ाइटर नहीं हैं। उनकी पार्टी का कैडर भी ममता के कैडर की तरह लड़ नहीं सकता। अखिलेश ने चुनाव का बिगुल बजाने में काफ़ी देर कर दी। कोरोना की पहली लहर में जब लोग अपमानित होते हुए पैदल घर लौट रहे थे तब मैदान में अखिलेश नहीं थे।
दूसरी लहर में ऑक्सिजन के लिए तड़प कर मरते लोगों के साथ भी अखिलेश का नहीं होना भी समझ में आने वाली बात नहीं है। किसान आंदोलन में भी उनकी उपस्थिति नाम मात्र की थी। विपक्ष में होने के कारण अखिलेश के पास ममता से बड़ा मौक़ा था। लेकिन अब उनकी सारी उम्मीदें एंटी इनकम्बेंसी यानी सरकार से लोगों की नाराज़गी पर निर्भर है।
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