कांग्रेस तेलंगाना जीतने के लिए तैयार दिख रही है। 2014 में राज्य के गठन के बाद यह पहली जीत होगी। हालांकि राज्य में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा बहुत कामयाब रही थी लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस को अपनी जीत की संभावनाओं के बारे में ज्यादा उम्मीद नहीं थी। लेकिन उसने कुछ कदम उठाए और उसके बेहतर नतीजे अब सामने आ रहे हैं।
कांग्रेस ने रेवंत रेड्डी को पूरा समर्थन और संरक्षण देने के बाद पार्टी की प्रदेश ईकाई के मतभेदों को जल्दी सुलझा लिया। फिर उसने कर्नाटक के फॉर्मूले को भी यहां लागू किया। इसके बाद सत्तारूढ़ बीआरएस और केसीआर के खिलाफ नेरेटिव बनाना शुरू कर दिया। खासकर कांग्रेस ने यहां यह प्रचार करने में सफल रही कि बीजेपी और ओवैसी की एआईएमआईएम केसीआर की पार्टी बीआरएस से मिले हुए हैं। यह नेरेटिव कांग्रेस के लिए फायदेमंद साबित हुआ।
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कांग्रेस ने तेलंगाना में यह बहुत पहले ही साफ कर दिया था कि वो किसी भी कीमत पर बीआरएस के साथ कोई गठबंधन नहीं करेगी। हालांकि राज्य में पार्टी का एक गुट प्रदेश कांग्रेस प्रमुख ए. रेवंत रेड्डी के पीछे पड़ा हुआ था। लेकिन कांग्रेस आलाकमान फौरन ही रेवंत के साथ खड़ा हो गया और तेलंगाना प्रभारी मनिकम टैगोर, रेवंत के प्रमुख समर्थक बनकर उभरे। दोनों ने मिलकर उस गुट को ठिकाने लगा दिया जो बीआरएस से समझौते के लिए आलाकमान पर दबाव बना रहा था। रेवंत किसी भी समझौते के विरोध में थे। आलाकमान ने रेवंत की रणनीति को सही माना।
कर्नाटक फैक्टरः कांग्रेस प्रत्याशी ने तेलंगाना में ठीक एक साल पहले मुनुगोड उपचुनाव में अपनी जमानत खो दी थी। लेकिन अब नतीजे उस हवा के विपरीत हैं। दरअसल, तेलंगाना की जीत में कर्नाटक फैक्टर की भूमिका कम महत्वपूर्ण नहीं है। कर्नाटक में कांग्रेस की प्रचंड जीत से ही तेलंगाना में पार्टी में बहुत जरूरी आशा और विश्वास का संचार हुआ। कर्नाटक में सत्ता मिलते ही कांग्रेस सरकार ने कई कल्याणकारी योजनाओं को लागू करना शुरू कर दिया। तेलंगाना के मतदाता इस घोषणाओं पर नजर रख रहे थे। दूसरी तरफ बीआरएस इतने लंबे समय से सत्ता में थी लेकिन अब चुनाव से पहले कल्याणकारी योजनाएं सिर्फ घोषित कर रही थी। कांग्रेस का प्रदेश नेतृत्व इस फर्क को बताने में कामयाब रहा।
बीआरएस ने गलती यह की कि उसने तेलंगाना के मतदाताओं को बताना शुरू किया कर्नाटक में कांग्रेस कुछ नहीं कर रही है। सिर्फ घोषणाएं हो रही हैं। वहां बिजली संकट पैदा हो गया है। इतना ही नहीं बीआरएस ने कुछ नेताओं को तेलंगाना से भेजकर कर्नाटक में प्रदर्शन तक करा दिया। फिर उसने तेलंगाना के मतदाताओं से कहना शुरू किया कि राज्य में अगर कांग्रेस जीती तो कर्नाटक की तरह बिजली संकट पैदा हो जाएगा। लेकिन बीआरएस को कांग्रेस के खिलाफ उल्टा पड़ गया। मतदाता समझ गए कि बीआरएस अपनी बात करने की बजाय विपक्षी दल के खिलाफ प्रचार कर रही है।
तेलंगाना में सरकार विरोधी लहर थी, जिसे बीआरएस भांप नहीं पाई। उस सरकार विरोधी लहर को कांग्रेस के रेवंत रेड्डी ने अपनी यात्राओं से धार दे दी। रेवंत रेड्डी अपनी यात्रा के जरिए तेलंगाना के कोने-कोने में पहुंचे। इसका मतदाताओं पर भारी असर पड़ा।
एक खास बात यह रही कि राजस्थान और मध्य प्रदेश में जिस तरह टिकटों को लेकर कांग्रेस में उठापटक हुई, वैसा कुछ तेलंगाना में नहीं दिखाई दिया। इसकी वजह यही थी कि तेलंगाना में कांग्रेस के पास ऐसे एमपी और राजस्थान जैसे शक्तिशाली क्षेत्रीय नेता नहीं थे जो आलाकमान को आंख दिखा सकें। प्रचार के हर चरण में कांग्रेस आलाकमान ने तेलंगाना पर कड़ी नजर रखी।
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से लेकर राहुल और प्रियंका गांधी तक तेलंगाना में यह नेरेटिव सेट करने में सफल रहे कि बीआरएस-बीजेपी और एआईएमआईएम आपस में मिले हुए हैं। लोगों ने यह भी महसूस किया कि कथित दिल्ली शराब घोटाले में केसीआर की बेटी के. कविता के खिलाफ ईडी जांच धीमी पड़ गई।कांग्रेस के अभियान को अगस्त में इससे भी फायदा मिला जब भाजपा ने अपने प्रदेश बंदी संजय कुमार को हटा दिया।
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पिछले चुनाव के मुकाबले राहुल और प्रियंका ने तेलंगाना को काफी समय दिया।राहुल ने पार्टी के राज्य नेतृत्व द्वारा निकाली गई विजयभेरी यात्रा में भी भाग लिया। यहां पर कांग्रेस ने हालात को मॉनिटर करने के लिए अपने पर्यवेक्षकों की फौज उतार दी। कांग्रेस ने क्लस्टर प्रभारियों की नियुक्ति की। जिनमें दिनेश गुंडू राव, प्रियांक खड़गे, के एच मुनियप्पा, कृष्णा बायरे गौड़ा, ईश्वर खंड्रे, एम सी सुधाकर, शरण प्रकाश पाटिल और बी नागेंद्र शामिल थे। इनके अधीन विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र के पर्यवेक्षक थे, उनमें से कई अन्य राज्यों के वरिष्ठ नेता जैसे घुमन अहमद मीर, यशोमति ठाकुर, प्रणीति शिंदे, हिबी ईडन, वर्षा गायकवाड़ थे। इस तरह हर स्तर पर तेलंगाना चुनाव पर कांग्रेस की नजर थी। इन सारे फैक्टर ने मिलकर उसे जीतने में मदद की।
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