फ़िल्म निर्माता हंसल मेहता ने स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा के समर्थन में अपनी आवाज़ उठाई और 25 साल पुरानी एक दर्दनाक घटना को याद किया। उन्होंने कहा कि तब उनके साथ भी वैसा ही व्यवहार हुआ था जैसा आज कुणाल के साथ हो रहा है। कुणाल कामरा द्वारा महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे पर की गई टिप्पणी के बाद शुरू हुए विवाद के बीच मेहता ने अपनी कहानी साझा की।
हंसल मेहता ने सोशल मीडिया पर लिखा, 'कुणाल के साथ जो हुआ, वह महाराष्ट्र के लिए नया नहीं है। मैं खुद इससे गुजर चुका हूँ। पच्चीस साल पहले उसी (तब अविभाजित) राजनीतिक दल के समर्थकों ने मेरे दफ्तर पर धावा बोला था। उन्होंने वहाँ तोड़फोड़ की, मुझे शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया, मेरा चेहरा काला किया और एक फ़िल्म के एक डायलॉग के लिए मुझे सार्वजनिक रूप से एक बुजुर्ग महिला के पैरों में गिरकर माफ़ी माँगने के लिए मजबूर किया।'
What happened with Kamra is, sadly, not new to Maharashtra. I’ve lived through it myself.
— Hansal Mehta (@mehtahansal) March 24, 2025
Twenty-five years ago, loyalists of the same (then undivided) political party stormed into my office. They vandalised it, physically assaulted me, blackened my face, and forced me to…
उन्होंने आगे बताया कि यह घटना उनकी फ़िल्म 'दिल पे मत ले यार' के एक डायलॉग को लेकर हुई थी, जो सेंसर बोर्ड द्वारा पहले ही पास कर दी गई थी। फिर भी, क़रीब 10,000 लोगों की भीड़ और 20 राजनीतिक हस्तियों की मौजूदगी में उन्हें अपमानित किया गया, जबकि मुंबई पुलिस मूकदर्शक बनी रही। मेहता ने कहा, 'इस घटना ने न सिर्फ़ मेरे शरीर को चोट पहुँचाई, बल्कि मेरे हौसले को भी तोड़ दिया था। मेरी फिल्ममेकिंग पर इसका गहरा असर पड़ा और मुझे चुप रहने के लिए मजबूर किया।'
कुणाल कामरा के मामले में मेहता ने हिंसा और धमकियों की निंदा करते हुए कहा कि चाहे कितना भी उकसावा हो, हिंसा और अपमान को जायज नहीं ठहराया जा सकता। कुणाल पर हाल ही में एक स्टैंडअप शो के दौरान शिंदे के ख़िलाफ़ टिप्पणी करने के बाद शिवसेना कार्यकर्ताओं ने मुंबई के एक स्टूडियो में तोड़फोड़ की थी, इसके बाद उनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर भी दर्ज की गई। मेहता का यह बयान अब चर्चा में है और सोशल मीडिया पर लोगों की मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ देखने को मिल रही हैं।
आज कुणाल कामरा के साथ हुई हिंसा में भी पुलिस की निष्क्रियता की बात उठ रही है। यह संयोग नहीं, बल्कि एक पैटर्न की ओर इशारा करता है, जहाँ सत्ता और भीड़ का गठजोड़ असहमति को कुचलने का हथियार बन जाता है।
इस पूरे प्रकरण में राजनीति की छाया साफ़ दिखती है। लंबे समय से अपनी आक्रामक छवि के लिए जाने जानी वाली शिवसेना एक बार फिर सवालों के घेरे में है। क्या यह कार्रवाई कार्यकर्ताओं की स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया थी या इसके पीछे सत्ता का इशारा था? दूसरी ओर मेहता का पुराना अनुभव और आज का बयान विपक्ष के लिए एक हथियार बन सकता है, जो इसे सत्तारूढ़ दल की असहिष्णुता का सबूत बताएगा।
सोशल मीडिया पर मेहता के ट्वीट को लेकर दो धड़े बन गए हैं। एक पक्ष उनकी हिम्मत और कुणाल के समर्थन की तारीफ कर रहा है, तो दूसरा इसे सहानुभूति बटोरने की कोशिश बता रहा है। कुछ यूजरों का मानना है कि मेहता का 25 साल पुरानी घटना को उठाना ठीक नहीं है, जबकि अन्य इसे मौजूदा हालात से जोड़कर देख रहे हैं। यह बहस अब सिर्फ़ मेहता या कुणाल तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सवाल उठा रही है कि भारत में बोलने की आज़ादी की सीमाएँ कहाँ तक हैं।
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