कैसी विडम्बना है, जनता के चुने प्रतिनिधियों से बनी सरकार गणतंत्र के सत्तरवें साल में जनता को फिर से उसकी नागरिकता का सबूत लाने के लिए लाइन में लगाने का इंतजाम कर रही है। प्रथमदृष्टया ही यह क़ानून न सिर्फ जन-विरोधी और असंवैधानिक है, अपितु एक लोकतांत्रिक देश के लिए शर्मनाक भी है। यह बात पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक मंचों से कही जा रही है। चाहे, ‘द इकोनामिस्ट’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका हो, नोबेल विजेता प्रो. अमर्त्य सेन हों या फिर प्रो. वेंकटरमन रामाकृष्णन जैसे महान वैज्ञानिक!
सीएए विरोधी आंदोलन में बड़े पैमाने पर दलित-ओबीसी क्यों नहीं जुड़ पाये?
- सियासत
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- 26 Jan, 2020

सीएए-एनपीआर-एनआरसी विरोधी आंदोलन में अभी भी दलित-ओबीसी और उच्च जाति के ग़रीब लोगों की बड़े स्तर की हिस्सेदारी नहीं हो पाई है! इस पर आंदोलन में शामिल लोगों को विचार करना चाहिए। आंदोलन को व्यापक बनाने के साथ ही इसका शांतिपूर्ण, अहिंसक और लोकतांत्रिक होना भी बेहद ज़रूरी है।
असम में एनआरसी के नतीजे क्या हुए, लोगों को किन-किन मुसीबतों से गुजरना पड़ा, इससे कमोबेश देश की जनता का जागरूक हिस्सा पहले से वाकिफ था। ऐसे में जब नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के अमल में लाने के एलान के साथ एनपीआर-एनआरसी की प्रक्रिया पूरे देश में शुरू करने की ‘क्रोनोलॉजी’ समझाई गई तो उसके विरूद्ध प्रतिरोध शुरू हो गया।