कैसी विडम्बना है, जनता के चुने प्रतिनिधियों से बनी सरकार गणतंत्र के सत्तरवें साल में जनता को फिर से उसकी नागरिकता का सबूत लाने के लिए लाइन में लगाने का इंतजाम कर रही है। प्रथमदृष्टया ही यह क़ानून न सिर्फ जन-विरोधी और असंवैधानिक है, अपितु एक लोकतांत्रिक देश के लिए शर्मनाक भी है। यह बात पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक मंचों से कही जा रही है। चाहे, ‘द इकोनामिस्ट’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका हो, नोबेल विजेता प्रो. अमर्त्य सेन हों या फिर प्रो. वेंकटरमन रामाकृष्णन जैसे महान वैज्ञानिक!