हमारे मौजूदा सत्ताधीश और उनके दर्जनों राजनीतिक-सामाजिक संगठन देश के सेक्युलर-लोकतंत्र की जगह 'हिन्दू-राष्ट्रवादी निरंकुश तंत्र' स्थापित करने की जैसी तेजी दिखा रहे हैं और जिस तरह के क़दम उठा रहे हैं, वैसा बीते सात दशकों में पहले कभी नहीं हुआ! इन्हें लग रहा है, 'अभी नहीं तो कभी नहीं'! ऐसा लगता है कि ये 2024 तक भारत की संवैधानिक संरचना और शासकीय प्रणाली में अपने इच्छित बदलाव की प्रक्रिया पूरी कर लेना चाहते हैं!
सामाजिक-आर्थिक तौर पर बेहाल मुल्क़ को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाने की साज़िश!
- सियासत
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- 3 Feb, 2020

देश में बेरोज़गारी, असमानता और ग़रीबी तेजी से बढ़ रही है। लेकिन ‘हिन्दू-राष्ट्रवादी विमर्श’ में इन बड़ी चुनौतियों के लिये कुछ नहीं है। सत्ताधीशों के सांप्रदायिक-ध्रुवीकरण की रणनीति और राजनीति से इन चुनौतियों को कुछ समय तक स्थगन की स्थिति में रखा जा सकता है पर लंबे समय तक नहीं! सवाल यह है कि 'हिंदुत्व की राजनीति' के पैरौकार संगठन आर्थिक बदहाली के माहौल में जिस तरह के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में जुटे हैं, कहीं यह देश के कुछ सर्वाधिक बदहाल हिस्सों को गृहयुद्ध की तरफ धकेले जाने की साज़िश तो नहीं है?
2024-25 का पूरा एक वर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना का शताब्दी वर्ष भी है! संभवतः उन्हें यह सब कर लेना कठिन ज़रूर लेकिन असंभव नहीं लग रहा है! हाल के कुछ वर्षों में संवैधानिक संस्थाओं और लोकतंत्र के अन्य महत्वपूर्ण निकायों ने जिस तरह शासक-समूह के निरंकुश और असंवैधानिक निर्देशों के समक्ष घुटने टेके हैं, उससे सत्ताधीशों के निरंकुश आचरण और मिजाज को बल मिला है!