राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयंत चौधरी ने यूपी की प्रदेश यूनिट, क्षेत्रीय और जिला व सभी फ्रंटल संगठनों को तत्काल प्रभाव से भंग कर दिया है। जयंत ने यूपी चुनाव के नतीजे सामने आने के बाद यह कदम उठाया है। लेकिन ऐसा उन्होंने क्यों किया इसकी गहराई में जाना जरुरी है। हालांकि जयंत का अगला राजनीतिक पैंतरा क्या होगा, उसका विश्लेषण भी ज्यादा जरूरी है। पार्टी को यूपी विधानसभा चुनाव में कुल 8 सीटें मिली हैं, जबकि उसने 33 सीटों पर सपा के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा था।
चुनाव नतीजे 10 मार्च को आने के बाद जयंत ने ट्वीट करके उसे स्वीकार किया था लेकिन रालोद के नेताओं ने कहा कि जयंत इन नतीजों से बहुत निराश हुए और जिस पार्टी कैडर और पदाधिकारियों पर उन्होंने भरोसा किया था, वे मतदाताओं को प्रभावित नहीं किया था। हालांकि हवा पार्टी के पक्ष में थी। इसलिए उन्होंने पार्टी की यूपी यूनिट को पूरी तरह भंग कर दिया।
यूपी चुनाव से बहुत पहले किसान आंदोलन शुरू हो गया था। पश्चिमी यूपी विशेष रूप से कृषि और जाट बेल्ट है। पीएम मोदी ने किसान बेल्ट के दबाव में ही यूपी चुनाव घोषित होने से पहले तीनों विवादास्पद कृषि कानून वापस ले लिए। पश्चिमी यूपी में किसान आंदोलन का असर ऐसा था कि कि गांवों में बीजेपी नेताओं, मंत्रियों और विधायकों का जाना मुश्किल हो गया था। जयंत चौधरी और अखिलेश यादव की रैलियों में काफी भीड़ भी आ रही थी। यह काबिलेगौर तथ्य है कि पश्चिमी यूपी के तीन चरणों का चुनाव निकल जाने के बाद ही चुनाव आयोग ने रोड शो और रैलियों की अऩुमति दी। अगर यह रोक पहले चरण से ही हट गई होती तो स्थितियां और भी बदलतीं।
नतीजे बता रहे हैं कि रालोद-सपा गठबंधन ने पश्चिमी यूपी की शामली, मुरादाबाद सीटों पर सौ फीसदी और मेरठ व मुजफ्फरनगर बेल्ट में शानदार प्रदर्शन किया। जबकि बीजेपी ने आगरा, मथुरा, गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर (नोएडा) बहुत बेहतरीन प्रदर्शन किया।
देखा जाए तो 2017 के मुकाबले बीजेपी ने पश्चिमी यूपी में उतना शानदार प्रदर्शन नहीं कर पाई लेकिन वो सपा-रालोद के मुकाबले सीटें ज्यादा ले गईं। वेस्ट यूपी के 24 जिलों में 126 सीटें हैं। 2017 में बीजेपी की सौ सीटें आईं थीं और इस बार उसकी 85 सीटें आई हैं। उसने पिछले चुनाव के करीब 79 फीसदी मतदाताओं का विश्वास हासिल करने की बजाया इस बार 67 फीसदी मतदाताओं का विश्वास हासिल किया। बहुत साफ है कि वोट शेयर में गिरावट आई है। लेकिन सपा-रालोद गठबंधन अपने लिए सौ फीसदी सीटें जीतने की उम्मीद कर रहा था, जो उनके आकलन में चूक को बताती है। गठबंधन को कुल 41 सीटें मिलीं। इसमें रालोद की सिर्फ 8 सीटें हैं, बाकी सपा की हैं। हालांकि 2017 के विधानसभा चुनाव में रालोद को महज एक सीट मिली थी।
जयंत चौधरी के सामने चुनौतियां
किसान आंदोलन के दौरान पश्चिमी यूपी में जाट और मुसलमान एक ही मंच पर आ गए थे। इनको मिलाने के लिए जयंत के पिता चौधरी अजित सिंह ने काफी मेहनत की थी और बाद में जयंत ने भी इसे जारी रखा। पश्चिमी यूपी में इसी जाति समीकरण के आधार पर अजित सिंह किंगमेकर बने रहते थे। लेकिन बीजेपी ने इस समीकरण में सेंध लगाई। उसी दौरान मुजफ्फरनगर दंगा हुआ और हालात बदल गए। दोनों समुदाय दूर चले गए। इस चुनाव में जाट-मुस्लिम एकता का काफी हल्ला मचा। इसका नतीजा यह निकला कि पश्चिमी यूपी में बीजेपी का कोर वोटरों में बहुत जबरदस्त ढंग से ध्रुवीकरण हुआ। यह ठीक है कि जाटों ने बीजेपी को इस बार भी भारी तादाद में वोट दिया, लेकिन उसने जयंत की पार्टी को भी दिया, तभी वो पिछले चुनाव की एक सीट के मुकाबले 8 सीट तक पहुंची।
इन्हीं 8 सीटों में इस बात के संकेत छिपे हैं कि अगर जयंत कुछ और चीजों को दुरुस्त कर लें तो सीटों का आंकड़ा बढ़ सकता है। 2024 के आम चुनाव दूर नहीं हैं। इसीलिए जयंत अब नए सिरे से पार्टी को खड़ा करने जा रहे हैं। अगर वो नए और कर्मठ कार्यकर्ताओं को सामने लाते हैं और जाट मुस्लिम एकता पर नए सिरे से मेहनत करते हैं तो 2024 में काफी कुछ हासिल कर सकते हैं।
हालांकि बीजेपी की मजबूती को देखते हुए 2024 में बाकी पार्टियों का टिक पाना फिलहाल मुश्किल लग रहा है लेकिन प्रयोग करने और मेहनत करने में बुराई क्या है। इसी सूत्र वाक्य के सहारे जयंत और रालोद ने शुरुआत कर दी है। समझा जाता है कि पश्चिमी यूपी में जयंत और अखिलेश नए सिरे से अपना अभियान शुरू करेंगे।
बीजेपी के साथ नहीं जाएंगे जयंतचुनाव नतीजों ने साफ कर दिया है कि जयंत एनडीए से बाहर रहकर क्षेत्रीय नेता के रूप में अपनी पहचान ज्यादा बेहतर बना सकते हैं। विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी ने जिस तरह जयंत पर डोरे डाले, वो इतिहास में दर्ज है। लेकिन जयंत नहीं पसीजे। बहुत मुमकिन है कि बीजेपी 2024 के आम चुनाव को देखते हुए जयंत पर डोरे डालने की कोशिश फिर करे। लेकिन जयंत ऐसा करेंगे नहीं। क्योंकि इस बार उनकी 8 सीटों की जीत में मुस्लिम मतदाताओं की बड़ी भूमिका रही है। इसके अलावा जिन सीटों को रालोद कम वोटों से हारी है, वहां भी मुस्लिम मतदाताओं की भूमिका प्रमुख रही है। 2017 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाता रालोद से दूर हो गए थे। जयंत अब फिर से मुस्लिम वोटों को खोने का जोखिम फिर से नहीं लेना चाहेंगे। इसलिए हालात ऐसे हैं कि जयंत शायद ही बीजेपी से हाथ मिलाएं। वैसे राजनीति संभावनाओं का खेल है और नेताओं के बदलते रंग के बारे में कोई अऩुमान नहीं लगाया जा सकता।कुछ भी हो 2024 में भी पश्चिमी यूपी की राजनीति बीजेपी को बहुत व्यस्त रखने जा रही है।
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