23 मई की दोपहर से अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी की अभूतपूर्व जीत पर काफ़ी कुछ लिखा और कहा जा चुका है। टिप्पणीकारों/व्याख्याकारों का एक हिस्सा इस शानदार जीत की व्याख्या जश्नी अंदाज में कर रहा है। यह उसे ‘भारत की आत्मा की जीत’ नज़र आ रही है, मानो जो नहीं जीते, वे ‘भारत की आत्मा’ का हिस्सा ही न हों! व्याख्याकारों का दूसरा हिस्सा इस जीत पर रुदन कर रहा है, मानो इस जीत से ‘भारत की मूल संकल्पना’ ही ख़त्म हो जाएगी या कि भारत की जनता अपने सारे दुख-दर्द और अपने वास्तविक मसलों को हमेशा के लिए भूल जायेगी और जनतंत्र बचाने के लिए आगे नहीं आयेगी!
पहली वाली श्रेणी के व्याख्याकार इस जीत के उल्लास का स्वयं हिस्सा होकर ‘अहो रूपम्-अहो भाग्यम्’ का उद्धोष कर रहे हैं तो दूसरे किस्म के अनेक व्याख्याकार नकारात्मकता से भरे हुए हैं। मुझे लगता है, प्रधानमंत्री मोदी और उनकी बीजेपी की जीत की व्याख्या किसी पक्ष का हिस्सा बनकर या विभिन्न पहलुओं को अलग-अलग बाँट कर नहीं, समग्रता में होनी चाहिए। किसी दार्शनिक-व्याख्याकार या अकादमिक-राजनीतिशास्त्री की तरह मैं कोई भूमिका बनाए बगैर प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी की अभूतपूर्व जीत के प्रमुख कारणों और कारकों पर सीधी बात करना चाहता हूँ।
जीत के आठ प्रमुख कारण
मेरे हिसाब से इस जीत के सबसे प्रमुख कारण और कारक इस प्रकार हैं -
- चुनावी परिदृश्य पर आक्रामक हिंदुत्व-राष्ट्रवाद का छा जाना
- अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुक़ाबले मोदी-शाह की बीजेपी की ज़्यादा कारगर सोशल-इंजीनियरिंग और गठबंधन-रणनीति
- आरएसएस का ताक़तवर और प्रभावी सांगठनिक नेटवर्क
- मोदी सरकार की कुछ चुनिंदा कल्याणकारी योजनाएँ (उदाहरण के लिए गृहनिर्माण के लिए सरकारी धन मुहैया कराना)
- बंटा हुआ कमजोर विपक्ष, जिसके ज़्यादातर नेताओं ने चुनाव प्रचार अभियान भी काफ़ी देर से शुरू किया
- सत्ताधारी दल के पक्ष में जबरदस्त कारपोरेट लामबंदी
- बेमिसाल मीडिया-समर्थन और
- निर्वाचन आयोग की अभूतपूर्व सत्ता-पक्षधरता।
राजनीतिक रूझान में उत्तर-दक्षिण विभाजन बरकरारइन आठ कारकों पर अलग-अलग बात करूँ, उसके पहले यह बताना बहुत ज़रूरी है कि मोदी-शाह की जोड़ी ने पार्टी के इतिहास की सबसे बड़ी जीत तो ज़रूर दर्ज कराई पर इसका चरित्र उस तरह राष्ट्रव्यापी नहीं है, जैसा एक जमाने में जवाहर लाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गाँधी या राजीव गाँधी के 1984 वाले चुनाव में दिखा था। कर्नाटक को छोड़कर (जहाँ बीजेपी का पहले से प्रभाव रहा है), समूचे दक्षिण भारत में उसे कोई बड़ी सफलता नहीं मिली।
दक्षिण भारत के तीन प्रमुख राज्यों केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश ने उसे खारिज कर दिया। तेलंगाना में उसे कुछ सफलता मिली है पर यहाँ याद दिलाना ज़रूरी है कि अविभाजित आंध्र से पहले भी उसके खाते में कुछ सीटें आती रही हैं। अटल-आडवाणी के दौर में बीजेपी को वहाँ से 1998 के चुनाव में करीमनगर और राजामुंदरी सहित कुल चार सीटें मिली थीं।
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि मोदी और उनकी बीजेपी का ‘भगवा-राष्ट्रवादी ज्वार’ अपेक्षाकृत अधिक धार्मिक माने जाने वाले दक्षिण के तीन प्रमुख राज्यों-तमिलनाडु, आध्र और केरल में क्यों नहीं चला?
केरल में बीजेपी ने सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश सम्बन्धी सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर काफ़ी बड़ा सियासी बवाल खड़ा किया। पर चुनाव में उसे निराश होना पड़ा। इसी तरह तमिलनाडु में जयललिता के निधन के बाद की राजनीतिक स्थितियों का उसने पूरा लाभ लेने की कोशिश की। पर कहीं भी सफलता नहीं मिली। इन दक्षिणी प्रदेशों में किसी ख़ास तरह की सामाजिकता ने इसे रोका या राजनीति के अलग रंग ने या दोनों ने?
आरएसएस की मौजूदगी, मोदी-शाह की तमाम कोशिशों और अपार धनशक्ति के प्रयोग के बावजूद बीजेपी को दक्षिण में उत्तर भारतीय राज्यों जैसी कामयाबी क्यों नहीं मिली? बहस का यह भी एक दिलचस्प विषय है, जिस पर बहुत कम बात हो रही है।
जनता के वास्तविक मुद्दों से परहेज
मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने 2014 का संसदीय चुनाव ‘भ्रष्टाचार-मुक्ति’, ‘कालाधन-वापसी’ और ‘सबका साथ-सबका विकास’ जैसे तीन प्रमुख एजेंडे पर लड़ा और जीता। लेकिन इस चुनाव में इन तीनों में किसी को भी बीजेपी या मोदी ने अपने चुनाव अभियान में ख़ास तरजीह नहीं दी। इसके उलट कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी की अगुवाई में विपक्षियों के बड़े हिस्से ने मोदी सरकार को ही भ्रष्टाचार के मामले में घेरने की भरपूर कोशिश की थी। लेकिन नतीजे साफ करते हैं कि विपक्ष को ज़्यादा कामयाबी नहीं मिली।इस चुनाव में बीजेपी ने विकास का कहीं कोई जिक्र नहीं किया। उसके जिन कुछ सांसदों ने अपने क्षेत्र में विकास कार्यक्रमों आदि पर जोर दिया था, उनमें कुछ बड़े नेता स्वयं ही चुनाव हार गये। उदाहरण के लिए ग़ाज़ीपुर के निवर्तमान बीजेपी सांसद मनोज सिन्हा गठबंधन प्रत्याशी अफ़ज़ाल अंसारी से हार गए। अपने इलाक़े में कई प्रमुख रेल योजनाओं के क्रियान्वयन, पुल-सड़क आदि के निर्माण के लिए उन्हें याद किया जायेगा। पर इन विकास कार्यक्रमों के बावजूद वह अपनी सीट नहीं बचा सके। इसकी सबसे बड़ी वजह थी कि तमाम कोशिशों के बावजूद ग़ाज़ीपुर के चुनावी परिदृश्य को ‘भगवा-राष्ट्रवादी ज्वार’ में नहीं झोंका जा सका।
मुसलिम प्रत्याशी के पक्ष में दलित-पिछड़ा एकता की पुख़्ता ज़मीन वहाँ मौजूद थी, जिससे टकराकर ‘भगवा ज्वार’ वापस चला गया। बनारस के बिल्कुल पास होने के बावजूद ऐसा हुआ! ऐसा क्यों हुआ? इसकी बड़ी वजह है कि ग़ाज़ीपुर-आज़मगढ़ जैसे इलाक़ों में आज भी सबाल्टर्न समूहों की एकता और लोगों की सोच में पुरानी वाम-सोशलिस्ट राजनीति का कुछ असर एक हद तक बरकरार है।
पिछले संसदीय चुनाव में भी ग़ाज़ीपुर में मनोज सिन्हा बहुत कम वोटों के अंतर से जीते थे और वह भी तब जब एसपी और बीएसपी दोनों अलग-अलग लड़ रहे थे। इसी पुरानी राजनीतिक पृष्ठभूमि और सामाजिक समीकरणों से आकृष्ट होकर कभी मुलायम तो कभी अखिलेश अपने इटावा-मैनपुरी को छोड़कर चुनाव लड़ने आजमगढ़ चले आते हैं।
जनता से रिश्ते ख़त्म होना हार की वजह
बीजेपी के आक्रामक हिन्दुत्व और उसकी ख़ास सोशल इंजीनियरिंग को हिन्दी भाषी राज्यों में ज़्यादा कामयाबी मिलने की बड़ी वजह है - एसपी, बीएसपी या आरजेडी जैसे दलों के शीर्ष नेताओं का आम जनता, ख़ास तौर पर दलित-पिछड़ों से जीवंत रिश्ते का ख़त्म होना। अखिलेश हों या मायावती या उनके ख़ास समर्थक हों, इनसे अगर पूछा जाय कि चुनाव के अलावा वे आम लोगों के बीच या सुदूर के इलाक़ों में कब-कब गये तो उनके लिए जवाब देना मुश्किल हो जायेगा! क्या इनमें कोई भी अमित शाह या बीजेपी के प्रभारी महासचिवों की तरह जिलावार या शहर-दर-शहर दौरे करते हैं?एक जमाने में कर्पूरी ठाकुर रहे हों या चरण सिंह, कांशी राम रहे हों या मुलायम सिंह यादव या लालू यादव, ये तमाम नेता अपने जनसंपर्क और लोगों के सुख-दुख में शामिल होने के अपने गुण के बल पर बड़े जनाधार के नेता बने थे। लेकिन इनके बाद की पीढ़ी ने, यहाँ तक कि इनके ‘वंशज-उत्तराधिकारियों’ ने भी पुराने नेताओं के इन गुणों से किनारा कर लिया! पर बीजेपी नेताओं ने उसे अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाया। आरएसएस में मिली ट्रेनिंग भी उनके काम आई।दलित-ओबीसी आधार के दलों का बढ़ता दलदल
मोदी की शानदार जीत में संघ-बीजेपी की मेहनत, कारपोरेट (एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक़, इस चुनाव से पहले 95 फ़ीसदी से ज़्यादा इलेक्शन बांड का धन बीजेपी के फंड में गया!) और मीडिया के भरपूर समर्थन के अलावा विपक्ष की निष्क्रियता भी कम कसूरवार नहीं! यूपी-बिहार-झारखंड में जनता का बड़ा हिस्सा सरकार के विपक्ष में नज़र आ रहा था पर विपक्षी दल ही सत्ता पक्ष के ख़िलाफ़ सक्रिय और संगठित शक्ल में नहीं दिख रहे थे।
विपक्ष इन तीनों प्रदेशों में बेरोज़गारी, शिक्षा क्षेत्र की अराजकता, किसानों की अनदेखी और राज्य सरकारों की विफलता, सांप्रदायिक व जातिगत विद्वेष से काम करने के इनके रवैये को मुद्दा बनाने में पूरी तरह विफल रहा।
इन वास्तविक समस्याओं से आम जनता का ध्यान हटाने में सत्ताधारी दल को क़दम-क़दम पर कामयाबी मिलती रही क्योंकि मीडिया, ख़ासतौर पर न्यूज़ चैनलों का उसने जमकर इस्तेमाल किया और चैनलों का बड़ा हिस्सा अपने इस्तेमाल के लिए पहले से बिछा पड़ा था। उनमें सत्ताधारी दल, ख़ासतौर पर उसके शीर्ष नेताओं के पक्ष में उतरने और उनका प्रचारक बनने की मानो होड़ मची हुई थी। पुलवामा की आतंकी घटना के बहाने सत्ताधारी दल ने समूचे हिन्दी भाषी क्षेत्र में पाकिस्तान, कश्मीर और मुसलमान को निशाना बनाया। ऐसा लगा मानो चुनाव में बीजेपी के सामने भारतीय विपक्ष नहीं, पाकिस्तान, कश्मीर और मुसलमान खड़े हैं। इस नैरेटिव का जो भी विरोध करता उसे देश और धर्म के ख़िलाफ़ बताने का बेशर्मी से अभियान चलाया गया। कांग्रेस जैसे मुख्य विपक्षी दल को इसकी वजह से बचाव की मुद्रा में उतरना पड़ा। यही नहीं, उसने भी अनेक स्थानों पर ‘नरम हिन्दुत्व’ का सहारा लेना शुरू किया। उदाहरण के लिए भोपाल में कांग्रेस प्रत्याशी दिग्विजय सिंह ने अपने प्रचार अभियान की शुरुआत बहुत सकारात्मक ढंग से की। लेकिन जैसे ही बीजेपी ने उनके ख़िलाफ़ एक ‘आतंकी-अभियुक्त’ प्रज्ञा सिंह ठाकुर को प्रत्याशी घोषित किया, उन्होंने तत्काल ख़ास ढंग के ‘हिन्दुत्व’ का चोला पहन लिया!
निर्वाचन आयोग सत्ताधारी दल के नेताओं द्वारा आचार संहिता के उल्लंघन के अनेक मामलों में या तो खामोश रहा या उन्हें निर्दोष होने का प्रमाणपत्र बाँटता रहा। सरहदी मामलों और सेना के नाम के चुनावी इस्तेमाल के दो गंभीरतम मामलों में उसने मोदी को क्लीन चिट दे दी।
आयोग ने मंदिर-मंदिर घूमतीं और सामाजिक विद्वेष का जहर उगलतीं प्रज्ञा ठाकुर को भी अभयदान दिया। एक बार सिर्फ़ कुछ समय के लिए प्रचार से रोका। अगर निर्वाचन आयोग एक ग़ैर-पक्षधर अंपायर की भूमिका में नहीं नज़र आया तो विपक्ष के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही ‘दरबार’ था, जहाँ जाकर वह अपने लिए न्याय माँग सकता था! वह था जनता का दरबार! पर बीजेपी के मुक़ाबले न तो उसके पास मीडिया का मंच था और न ही कार्यकर्ताओं की वैसी कतार थी, जो झूठ, अफवाह और विद्वेष को चुनौती देते हुए जनता के बीच सही तस्वीर प्रचारित करती! पुलवामा-बालाकोट आदि से पैदा किये ‘राष्ट्रवादी बुखार’ को विपक्ष यूपी-बिहार जैसे सूबों में तभी रोक सकता था, जब वह जन-जन के संपर्क में होता। जिन-जिन जिलों/क्षेत्रों में उसके पास ताक़तवर और पुख़्ता जन-संपर्क वाले नेता थे, उन्होंने इस बुखार को ज़्यादा नहीं फैलने दिया।
बिहार के कई जिलों में उसके पास ऐसे समर्थ नेता-कार्यकर्ता थे फिर भी वहाँ बीजेपी को न जाने कैसे बेमिसाल कामयाबी मिली! ऐसे हलकों में विपक्ष की अभूतपूर्व पराजय बेहद रहस्यमय है। ऐसे कई-कई इलाक़ों में विपक्ष के ज़मीनी-आधार वाले प्रत्याशियों की हार दो लाख से तीन लाख वोटों के अंतर से हुई है!
बिहार के आरा संसदीय क्षेत्र में केद्रीय राज्यमंत्री और बीजेपी उम्मीदवार आरके सिंह अपनी चुनावी स्थिति से इस कदर निराश थे कि वह जिला कलेक्टर सहित तमाम निर्वाचन अधिकारियों की शिकायत पर शिकायत किये जा रहे थे कि वे सब मिलकर किस तरह उन्हें हराना चाहते हैं। पर आरके सिंह भी बड़े मतों के अंतर से चुनाव जीत गए। बेगूसराय में बीजेपी के विवादास्पद नेता गिरिराज सिंह की जीत का लगभग 4 लाख वोटों का अंतर भी चकित करने वाला है। इसी तरह यूपी के बदायूँ और बलिया में गठबंधन के प्रत्याशियों- धर्मेंद्र यादव और सनातन पांडे की हार पर भी संदेह जताया जा रहा है। दोनों क्षेत्रों के पराजित उम्मीदवारों की तरफ़ से निर्वाचन आयोग के समक्ष शिकायती अर्जियां दर्ज की गई हैं।
गठबंधन रणनीति और सोशल इंजीनियरिंग की कमजोरी
राजनीतिक गठबंधन और सोशल इंजीनियरिंग पर भी बात करना ज़रूरी है। एक ग़ैर-समावेशी दर्शन और वैचारिकी में यकीन करने वाली बीजेपी ने इस मोर्चे पर उन संगठनों के मुक़ाबले बेहतर काम किया जो अपनी वैचारिकी को समावेशी बताते फिरते हैं। कांग्रेस ने यूपी, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बंगाल जैसे प्रदेशों में कहीं भी मुकम्मल गठबंधन नहीं किया। सोशल इंजीनियरिंग के मामले में राहुल दौर में पार्टी कुछ आगे ज़रूर बढ़ी है। पर बीजेपी आज भी उससे बहुत आगे है।
यूपी में ओम प्रकाश राजभर और बिहार में उपेद्र कुशवाहा की पार्टियों के अलावा बीजेपी ने किसी भी प्रमुख सामाजिक समूह या उसके राजनीतिक मंच से अपना रिश्ता ख़त्म नहीं किया। जिनसे ख़त्म हो चुका था, उन्हें फिर से जोड़ा।
एसपी-बीएसपी यूपी में ग़ैर-यादव ओबीसी और ग़ैर-जाटव दलित समाज में ज़्यादा बड़ी मौजूदगी नहीं दर्ज नहीं करा सकीं। कांशीराम-मुलायम दौर में इन तबक़ों का बड़ा हिस्सा इन्हीं दोनों पार्टियों के साथ रहता था। बिहार और झारखंड में सोशल इंजीनियरिंग की कमजोरी के अलावा आरजेडी और कांग्रेस का नेतृत्व अपने गठबंधन को गतिशील बनाने और ज़मीनी सक्रियता देने में विफल रहा।
मधुबनी, शिवहर, मुंगेर, बेगूसराय, झंझारपुर, दरभंगा, मधेपुरा, खगड़िया, मोतिहारी, पटना साहिब, धनबाद, कोडरमा, चतरा और हजारीबाग सहित अनेक सीटें गठबंधन ने नाहक ही बीजेपी की झोली में डाल दीं। अगर इन सीटों पर पार्टी, गठबंधन और उम्मीदवारों के बारे में ज़मीनी आकलन के आधार पर फ़ैसला हुआ होता तो बीजेपी-जेडी(यू) के लिए रास्ता इतना आसान नहीं होता। यही हाल दिल्ली और हरियाणा का रहा। कांग्रेस और आप ने गठबंधन से दोनों जगह परहेज किया।
विपक्ष के लिए रास्ता क्या है?
अंत में एक बात और। यूपी और बिहार जैसे प्रदेश में, जहाँ दलित-ओबीसी-अल्पसंख्यक वोटों की हिस्सेदारी 78 फ़ीसदी बताई जाती है, अगर बीजेपी जैसी संघ-संचालित पार्टी इतनी भारी जीत दर्ज करती है तो विपक्ष को अपने गिरेबां में ठीक से झांकने की ज़रूरत है।
बाहुबल, धनबल या तकनीकी बल से की जाने वाली धांधली की भी सीमा होती है। संभवतः हमारे जैसे समाज में वह सभी परिणामों में बिल्कुल उलट-पुलट नहीं कर सकती। पर कार्यकर्ताओं की बड़ी कतार और कुशल बूथ प्रबंधकों के जरिये कोई भी पार्टी अपनी बराबरी की हैसियत रखने वाली पार्टियों को मात ज़रूर दे सकती है।
क्या कांग्रेस, एसपी-बीएसपी-आरएलडी, आरजेडी-आरएलएसपी जैसे दल आज की स्थिति में बीजेपी के कार्यकर्ताओं की फौज और कुशल बूथ प्रबंधन टीमों की उत्तर के हिन्दी भाषी राज्यों में कहीं भी बराबरी कर सकते हैं?
ऐसे में विपक्ष को सिर्फ़ अपनी रणनीति पर ही नहीं, समूची राजनीति पर नये सिरे से विचार करने की ज़रूरत है। पहले वाली ‘नेतागिरी’, एक व्यक्ति या एक परिवार की अगुवाई वाली राजनीति का दौर ख़त्म हो रहा है। भविष्य में जो लोग भी विकल्प की सार्थक राजनीति करना चाहते हैं, उन्हें संगठन, कार्यकर्ता और इन सबको संचालित-संयोजित करने के कारगर और ज़रूरी तंत्र की खोज करनी होगी। इसके बग़ैर काम नहीं चलने वाला है।
अपनी राय बतायें