जीत के आठ प्रमुख कारण
मेरे हिसाब से इस जीत के सबसे प्रमुख कारण और कारक इस प्रकार हैं -
- चुनावी परिदृश्य पर आक्रामक हिंदुत्व-राष्ट्रवाद का छा जाना
- अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुक़ाबले मोदी-शाह की बीजेपी की ज़्यादा कारगर सोशल-इंजीनियरिंग और गठबंधन-रणनीति
- आरएसएस का ताक़तवर और प्रभावी सांगठनिक नेटवर्क
- मोदी सरकार की कुछ चुनिंदा कल्याणकारी योजनाएँ (उदाहरण के लिए गृहनिर्माण के लिए सरकारी धन मुहैया कराना)
- बंटा हुआ कमजोर विपक्ष, जिसके ज़्यादातर नेताओं ने चुनाव प्रचार अभियान भी काफ़ी देर से शुरू किया
- सत्ताधारी दल के पक्ष में जबरदस्त कारपोरेट लामबंदी
- बेमिसाल मीडिया-समर्थन और
- निर्वाचन आयोग की अभूतपूर्व सत्ता-पक्षधरता।
दक्षिण भारत के तीन प्रमुख राज्यों केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश ने उसे खारिज कर दिया। तेलंगाना में उसे कुछ सफलता मिली है पर यहाँ याद दिलाना ज़रूरी है कि अविभाजित आंध्र से पहले भी उसके खाते में कुछ सीटें आती रही हैं। अटल-आडवाणी के दौर में बीजेपी को वहाँ से 1998 के चुनाव में करीमनगर और राजामुंदरी सहित कुल चार सीटें मिली थीं।
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि मोदी और उनकी बीजेपी का ‘भगवा-राष्ट्रवादी ज्वार’ अपेक्षाकृत अधिक धार्मिक माने जाने वाले दक्षिण के तीन प्रमुख राज्यों-तमिलनाडु, आध्र और केरल में क्यों नहीं चला?
आरएसएस की मौजूदगी, मोदी-शाह की तमाम कोशिशों और अपार धनशक्ति के प्रयोग के बावजूद बीजेपी को दक्षिण में उत्तर भारतीय राज्यों जैसी कामयाबी क्यों नहीं मिली? बहस का यह भी एक दिलचस्प विषय है, जिस पर बहुत कम बात हो रही है।
जनता के वास्तविक मुद्दों से परहेज
मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने 2014 का संसदीय चुनाव ‘भ्रष्टाचार-मुक्ति’, ‘कालाधन-वापसी’ और ‘सबका साथ-सबका विकास’ जैसे तीन प्रमुख एजेंडे पर लड़ा और जीता। लेकिन इस चुनाव में इन तीनों में किसी को भी बीजेपी या मोदी ने अपने चुनाव अभियान में ख़ास तरजीह नहीं दी। इसके उलट कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी की अगुवाई में विपक्षियों के बड़े हिस्से ने मोदी सरकार को ही भ्रष्टाचार के मामले में घेरने की भरपूर कोशिश की थी। लेकिन नतीजे साफ करते हैं कि विपक्ष को ज़्यादा कामयाबी नहीं मिली।मुसलिम प्रत्याशी के पक्ष में दलित-पिछड़ा एकता की पुख़्ता ज़मीन वहाँ मौजूद थी, जिससे टकराकर ‘भगवा ज्वार’ वापस चला गया। बनारस के बिल्कुल पास होने के बावजूद ऐसा हुआ! ऐसा क्यों हुआ? इसकी बड़ी वजह है कि ग़ाज़ीपुर-आज़मगढ़ जैसे इलाक़ों में आज भी सबाल्टर्न समूहों की एकता और लोगों की सोच में पुरानी वाम-सोशलिस्ट राजनीति का कुछ असर एक हद तक बरकरार है।
जनता से रिश्ते ख़त्म होना हार की वजह
बीजेपी के आक्रामक हिन्दुत्व और उसकी ख़ास सोशल इंजीनियरिंग को हिन्दी भाषी राज्यों में ज़्यादा कामयाबी मिलने की बड़ी वजह है - एसपी, बीएसपी या आरजेडी जैसे दलों के शीर्ष नेताओं का आम जनता, ख़ास तौर पर दलित-पिछड़ों से जीवंत रिश्ते का ख़त्म होना। अखिलेश हों या मायावती या उनके ख़ास समर्थक हों, इनसे अगर पूछा जाय कि चुनाव के अलावा वे आम लोगों के बीच या सुदूर के इलाक़ों में कब-कब गये तो उनके लिए जवाब देना मुश्किल हो जायेगा! क्या इनमें कोई भी अमित शाह या बीजेपी के प्रभारी महासचिवों की तरह जिलावार या शहर-दर-शहर दौरे करते हैं?एक जमाने में कर्पूरी ठाकुर रहे हों या चरण सिंह, कांशी राम रहे हों या मुलायम सिंह यादव या लालू यादव, ये तमाम नेता अपने जनसंपर्क और लोगों के सुख-दुख में शामिल होने के अपने गुण के बल पर बड़े जनाधार के नेता बने थे। लेकिन इनके बाद की पीढ़ी ने, यहाँ तक कि इनके ‘वंशज-उत्तराधिकारियों’ ने भी पुराने नेताओं के इन गुणों से किनारा कर लिया! पर बीजेपी नेताओं ने उसे अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाया। आरएसएस में मिली ट्रेनिंग भी उनके काम आई।दलित-ओबीसी आधार के दलों का बढ़ता दलदल
मोदी की शानदार जीत में संघ-बीजेपी की मेहनत, कारपोरेट (एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक़, इस चुनाव से पहले 95 फ़ीसदी से ज़्यादा इलेक्शन बांड का धन बीजेपी के फंड में गया!) और मीडिया के भरपूर समर्थन के अलावा विपक्ष की निष्क्रियता भी कम कसूरवार नहीं! यूपी-बिहार-झारखंड में जनता का बड़ा हिस्सा सरकार के विपक्ष में नज़र आ रहा था पर विपक्षी दल ही सत्ता पक्ष के ख़िलाफ़ सक्रिय और संगठित शक्ल में नहीं दिख रहे थे।विपक्ष इन तीनों प्रदेशों में बेरोज़गारी, शिक्षा क्षेत्र की अराजकता, किसानों की अनदेखी और राज्य सरकारों की विफलता, सांप्रदायिक व जातिगत विद्वेष से काम करने के इनके रवैये को मुद्दा बनाने में पूरी तरह विफल रहा।
निर्वाचन आयोग सत्ताधारी दल के नेताओं द्वारा आचार संहिता के उल्लंघन के अनेक मामलों में या तो खामोश रहा या उन्हें निर्दोष होने का प्रमाणपत्र बाँटता रहा। सरहदी मामलों और सेना के नाम के चुनावी इस्तेमाल के दो गंभीरतम मामलों में उसने मोदी को क्लीन चिट दे दी।
बिहार के कई जिलों में उसके पास ऐसे समर्थ नेता-कार्यकर्ता थे फिर भी वहाँ बीजेपी को न जाने कैसे बेमिसाल कामयाबी मिली! ऐसे हलकों में विपक्ष की अभूतपूर्व पराजय बेहद रहस्यमय है। ऐसे कई-कई इलाक़ों में विपक्ष के ज़मीनी-आधार वाले प्रत्याशियों की हार दो लाख से तीन लाख वोटों के अंतर से हुई है!
गठबंधन रणनीति और सोशल इंजीनियरिंग की कमजोरी
राजनीतिक गठबंधन और सोशल इंजीनियरिंग पर भी बात करना ज़रूरी है। एक ग़ैर-समावेशी दर्शन और वैचारिकी में यकीन करने वाली बीजेपी ने इस मोर्चे पर उन संगठनों के मुक़ाबले बेहतर काम किया जो अपनी वैचारिकी को समावेशी बताते फिरते हैं। कांग्रेस ने यूपी, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बंगाल जैसे प्रदेशों में कहीं भी मुकम्मल गठबंधन नहीं किया। सोशल इंजीनियरिंग के मामले में राहुल दौर में पार्टी कुछ आगे ज़रूर बढ़ी है। पर बीजेपी आज भी उससे बहुत आगे है।यूपी में ओम प्रकाश राजभर और बिहार में उपेद्र कुशवाहा की पार्टियों के अलावा बीजेपी ने किसी भी प्रमुख सामाजिक समूह या उसके राजनीतिक मंच से अपना रिश्ता ख़त्म नहीं किया। जिनसे ख़त्म हो चुका था, उन्हें फिर से जोड़ा।
मधुबनी, शिवहर, मुंगेर, बेगूसराय, झंझारपुर, दरभंगा, मधेपुरा, खगड़िया, मोतिहारी, पटना साहिब, धनबाद, कोडरमा, चतरा और हजारीबाग सहित अनेक सीटें गठबंधन ने नाहक ही बीजेपी की झोली में डाल दीं। अगर इन सीटों पर पार्टी, गठबंधन और उम्मीदवारों के बारे में ज़मीनी आकलन के आधार पर फ़ैसला हुआ होता तो बीजेपी-जेडी(यू) के लिए रास्ता इतना आसान नहीं होता। यही हाल दिल्ली और हरियाणा का रहा। कांग्रेस और आप ने गठबंधन से दोनों जगह परहेज किया।
विपक्ष के लिए रास्ता क्या है?
अंत में एक बात और। यूपी और बिहार जैसे प्रदेश में, जहाँ दलित-ओबीसी-अल्पसंख्यक वोटों की हिस्सेदारी 78 फ़ीसदी बताई जाती है, अगर बीजेपी जैसी संघ-संचालित पार्टी इतनी भारी जीत दर्ज करती है तो विपक्ष को अपने गिरेबां में ठीक से झांकने की ज़रूरत है।
बाहुबल, धनबल या तकनीकी बल से की जाने वाली धांधली की भी सीमा होती है। संभवतः हमारे जैसे समाज में वह सभी परिणामों में बिल्कुल उलट-पुलट नहीं कर सकती। पर कार्यकर्ताओं की बड़ी कतार और कुशल बूथ प्रबंधकों के जरिये कोई भी पार्टी अपनी बराबरी की हैसियत रखने वाली पार्टियों को मात ज़रूर दे सकती है।
क्या कांग्रेस, एसपी-बीएसपी-आरएलडी, आरजेडी-आरएलएसपी जैसे दल आज की स्थिति में बीजेपी के कार्यकर्ताओं की फौज और कुशल बूथ प्रबंधन टीमों की उत्तर के हिन्दी भाषी राज्यों में कहीं भी बराबरी कर सकते हैं?
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