दुनिया में ऐसे और भी देश हैं, जहाँ की सरकारें अपने संवेदनशील सरहदी इलाक़ों में सुरक्षा का बंदोबस्त पुख्ता रखती हैं। उस इलाक़े में कोई ख़ास बात होती है या कोई बड़ा विवादास्पद फ़ैसला लिया जाना होता है तो सरकारें सुरक्षा बलों की संख्या बढ़ाती भी हैं। पर ऐसा कहीं नहीं देखा गया कि सरकार अपने किसी संवेदनशील सरहदी इलाक़े में कायम शांति-व्यवस्था और अपेक्षाकृत बेहतर हालात को स्वयं ही ख़राब करे या अपने कुछ विवादास्पद क़दमों से तरह-तरह की अटकलों और अफ़वाहों के लिए आधार बनाए! भारत के जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील सरहदी सूबे में आज ठीक ऐसा ही हो रहा है। बीते तीन-चार दिनों से श्रीनगर सहित पूरे सूबे में अफ़वाहों-अटकलों का बाज़ार ज़्यादा गर्म है। लोगों के बीच घबराहट है और बाजार में अफ़रा-तफ़री मची है। पेट्रोल पंपों, दवा, अनाज और खाने-पीने के अन्य सामान की दुकानों पर भारी भीड़ है। इसकी ख़ास वजह है- सरकार की तरफ़ से जारी की गई एक ख़ास एडवाइज़री!
कश्मीर घाटी में 28 हज़ार अतिरिक्त जवानों की तैनाती के बाद बीते शुक्रवार को सरकार के गृह विभाग की तरफ़ से एक अजीबोगरीब एडवाइज़री जारी की गई। इसमें अमरनाथ यात्रा को समय से पहले ही ख़त्म करने का आदेश निहित था। धर्म-यात्रियों को सलाह दी गई कि वे फ़ौरन घाटी से निकलने का प्रबंध करें और यात्रा पर आगे जाना बंद करें। दूसरी सलाह आम पर्यटकों को दी गई कि वे कश्मीर का अपना भ्रमण ख़त्म कर अपने-अपने घरों की तरफ़ लौटना शुरू कर दें। इसके लिए विमान सेवा कंपनियों को विशेष एहतियात बरतने और ज़रूरत के हिसाब से अतिरिक्त उड़ानें शुरू करने की हिदायत दी गई है। इस एडवाइज़री के बाद जम्मू-कश्मीर में टैक्सियों और एयरलाइंस कंपनियों ने अपने-अपने किराए बेतहाशा बढ़ा दिये हैं। सरकार ने ऐसा कोई निर्देश नहीं जारी किया कि ये कंपनियाँ पहले से तयशुदा किराए पर ही अपनी अतिरिक्त उड़ानों का संचालन करें।
सरकार की तरफ़ से एडवाइज़री जारी किए जाने के कुछ घंटे पहले सेनाध्यक्ष जनरल विपिन रावत और श्रीनगर स्थित 15वीं कोर के प्रमुख जनरल के जे एस ढिल्लों सहित तीन शीर्ष सैन्य अधिकारियों की श्रीनगर राजभवन में राज्यपाल सतपाल मलिक के साथ लंबी बैठक चली। अब चर्चा है कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह भी घाटी के दो दिवसीय दौरे पर जाने वाले हैं। राज्य के हालात पर संसद में भी चिंता जताई जा चुकी है। विपक्ष ने सरकार से अद्यतन स्थिति की जानकारी चाही लेकिन सरकार की तरफ़ से कुछ भी नहीं बताया गया।
आख़िर अमरनाथ यात्रा निर्धारित समय से पहले ही क्यों ख़त्म की जा रही है और आम पर्यटकों को कश्मीर से तुरंत चले जाने को क्यों कहा जा रहा है? जब श्रीनगर में सुरक्षा बलों के उच्चाधिकारियों से इस बाबत पत्रकारों ने पूछा तो उनका जवाब था कि बीते तीन दिनों के दौरान घाटी में, ख़ासकर अमरनाथ यात्रा के रास्ते के आसपास, भारी मात्रा में विस्फोटक पाये गए हैं। एक अमेरिकन एम-24 स्नाइपर राइफ़ल भी बरामद की गई है। ऐसे में एहतियातन ये क़दम उठाए जा रहे हैं। लेकिन घाटी में विस्फोटकों या हथियार की बरामदगी कोई नई बात नहीं है। इसके लिए अमरनाथ यात्रा तो कभी नहीं रोकी गई।
आतंक के सबसे बुरे दिनों या फिर करगिल युद्ध के समय भी घाटी में अमरनाथ यात्रा नहीं रोकी गई। हा्ँ, यह बात सही है कि एनडीए-राज के अलग-अलग दौर में यात्रा के रूट पर विस्फोट ज़रूर हुए। जानमाल का नुक़सान भी हुआ। पर यात्रा तब भी नहीं रोकी गई। इस बार अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण माहौल के बावजूद यात्रा रोकी जा रही है तो इसके पीछे कुछ तो कारण होगा। अगर कारण हैं तो बताए क्यों नहीं जा रहे? कुछ तो पर्देदारी है! वह क्या है?
चार तरह की अटकलें
इस बारे में चार तरह की अटकलें हैं : अटकल नंबर-1, सरकार जल्दी ही संविधान में शामिल 35-ए के प्रावधानों को ख़त्म करेगी! अटकल नंबर-2, सरकार सिर्फ़ 35-ए ही नहीं, अनुच्छेद 370 को भी ख़त्म करेगी। अटकल नंबर-3, सरकार जम्मू-कश्मीर सूबे को तीन भागों में बाँटने का हुम्क़नामा जारी करेगी, इसके तहत जम्मू को अलग पूर्ण राज्य का दर्जा मिलेगा और कश्मीर घाटी एवं लद्दाख को अलग-अलग कर दो केंद्र-शासित क्षेत्र में तब्दील कर दिया जाएगा। अटकल नंबर-4, सरकार जम्मू-कश्मीर के लिए निर्वाचन क्षेत्रों के डिमिलिटेशन का अभियान चलाएगी। उसके बाद ही चुनाव होंगे। इन चार अटकलों में कौन सही है और कौन ग़लत या कि कोई सही नहीं है?
सत्ताधारी दल और नौकरशाही के अंदर भी इस बारे में सिर्फ अटकलें ही हैं। सच पूछिए तो इस बारे में सरकार के शीर्ष पदों पर आसीन दो या तीन लोगों के अलावा किसी को कोई जानकारी नहीं है। क्या एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह स्थिति सहज और सामान्य मानी जा सकती है?
देश और समाज की बजाय एजेंडा सिर्फ़ आरएसएस का?
यह बात आम समझ से परे है कि हाल के दिनों मे जम्मू-कश्मीर में कोई बड़ा उपद्रव नहीं हुआ, सूबे की शांति-व्यवस्था पर पिछले दिनों स्वयं राज्यपाल सतपाल मलिक ने भी संतोष व्यक्त किया था। फिर सूबे के हालात को बिगाड़ने का काम स्वयं सरकार ही क्यों कर रही है? हालात को बिगाड़े बगैर भी सूबे से सम्बद्ध संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन की ज़रूरत पर संसद या संसद के बाहर बहस या चर्चा कराई जा सकती थी। अगर समाज और सियासत में व्यापक सहमति बनती है और जम्मू-कश्मीर की अवाम भी उसके लिए तैयार है तो वैसे संशोधनों को आसानी से राज्यसभा सहित संसद की मंज़ूरी दिलाई जा सकती है। फिर सरकार ने इसके लिए संसदीय रास्ता क्यों नहीं अख्तियार किया? अगर सचमुच कोई संवैधानिक या विधायी बदलाव या नया नोटिफिकेशन जारी होना है तो सरकार की मंशा पर एक बड़ा सवाल उठता है- आख़िर वह जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति में कोई बड़ा बदलाव या संशोधन गुपचुप ढंग से क्यों करना चाहती है? कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार जम्मू-कश्मीर मामले में समाज, सरकार, अवाम या देश के हितों को दरकिनार कर सिर्फ़ और सिर्फ़ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की वैचारिकी को अमलीजामा पहनाने में भिड़ गई है?
अनुच्छेद 370 और 35-ए पर भ्रामक प्रचार
बीते कुछ सालों से आरएसएस, बीजेपी और उनसे सम्बद्ध संगठनों ने संविधान के अनुच्छेद 370 को लेकर जितना भ्रामक प्रचार अभियान चलाया है, हाल के वर्षों में ऐसा दूसरा उदाहरण संभवतः जेएनयू और उस कथित ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का मिलेगा, जिसमें देश के सर्वोत्तम विश्वविद्यालय के प्रतिभाशाली छात्रों के अलावा आरएसएस-बीजेपी आदि ने समाज के कुछ प्रख्यात बौद्धिकों को भी शामिल बताया। इन सबके ख़िलाफ़ ख़ूब अभियान चलाया गया। दिलचस्प बात है कि अनुच्छेद 370 क्या है, क्यों है और इसके क्या व्यावहारिक पहलू हैं, इस बारे में आरएसएस-बीजेपी आदि जैसे संगठन कभी कोई बहस नहीं चलाते। क्या इन संगठनों ने कभी संविधान के अनुच्छेद 371 की विभिन्न उपधाराओं के तहत नगालैंड और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों के लिए किए विशेष प्रावधानों पर कभी कोई सवाल उठाये? क्या उन्होंने जम्मू-कश्मीर के भारत में सम्मिलन के दस्तावेज़ (इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेसन) के सभी नौ उपबंधों, ख़ासकर उपबंध 7 और 8 की रोशनी में अनुच्छेद 370 या 35-ए की व्याख्या पर संसद या उसके बाहर कभी कोई बहस कराई? सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही काम किया गया और वह था-अनुच्छेद 370 के ख़िलाफ़ विषवमन या भ्रामक प्रचार। आज के समाज में सड़क चलता आदमी भी 370 को कोसते हुए मिल जायेगा। पर उससे पूछिए, भाई ये क्या है 370? इस सवाल पर वह बगलें झाँकने लगेगा।
सोचने लायक बात है, अगर अनुच्छेद 370 इतना ही ख़तरनाक और भारत नामक एक नव-स्वाधीन देश के ख़िलाफ़ था तो क्या भारतीय संविधान सभा के सदस्य डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. भीम राव आम्बेडकर, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और यहाँ तक कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी, ये सारे लोग देश-हित के विरूद्ध थे या किसी गफलत में देश-विरोधी फ़ैसले ले रहे थे या कि इस संवैधानिक प्रावधान के ख़तरे को लेकर निपट अज्ञानी थे? क्या वे सचमुच आज के आरएसएस-बीजेपी नेताओं जैसे ज्ञानी, देशभक्त और विद्वान नहीं थे? सारे ज्ञानी राजनीतिज्ञ आज अवतरित हो गये हैं?
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने विरोध क्यों नहीं किया था?
दिवंगत श्यामा प्रसाद मुखर्जी तो मौजूदा सत्ताधारी नेताओं के आराध्य पुरुष हैं! वह भारतीय जनता पार्टी के पूर्व रूप-जनसंघ के संस्थापक हैं! आख़िर उन्होंने संविधान सभा में इस अनुच्छेद का समर्थन क्यों किया? 17 अक्तूबर, 1949 को जब भारतीय संविधान सभा में अनुच्छेद 370 मंज़ूर हो रहा था तो मुखर्जी साहब ने उसका क्यों नहीं विरोध किया? उनका विरोध बहुत बाद में शुरू हुआ और फिर जम्मू स्थित अपने समर्थक नेताओं और प्रजा परिषद आदि के बुलावे पर वह अनुच्छेद 370 का विरोध करते हुए सरहदी सूबे में गए। बाद के दिनों में जहाँ उनका जेल में ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में निधन हो गया।
अनुच्छेद 370 का सच!
सच यह है कि अनुच्छेद 370 जैसा संवैधानिक प्रावधान जम्मू-कश्मीर के ऐतिहासिक इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेसन का प्रतिपाद है। राज्य की विशेष स्थिति या दर्जा का प्रावधान संवैधानिक तौर पर दर्ज होना ही था। अनुच्छेद 370 इसीलिए मंज़ूर किया गया। यह अलग बात है कि सन् 1953 से 1965 के बीच संविधान के उक्त अनुच्छेद की तत्कालीन सरकारों ने लगातार धज्जियाँ उड़ाईं और आज की तारीख़ में अनुच्छेद 370 के बस ढाँचागत निशान भर बचे हैं। उसका वास्तविक रूप और वजूद ख़त्म किया जा चुका है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपने मातृ-संगठन आरएसएस और अपनी अंधभक्त-कट्टरपंथी कतारों को ख़ुश करने के लिए 370 के उस ढाँचागत निशान पर बेवजह क़ानूनी-लाठियाँ बरसाकर अपनी वीरता का प्रदर्शन करना चाहती है। जहाँ तक 35-ए का सम्बन्ध है, उसके व्याख्यागत पहलुओं और सन् 1927 व सन् 1932 से चले आ रहे डोगरा-राज की वैधानिक अधिसूचनाओं की रोशनी में देखें तो उसमें कुछ क़ानूनी असंगतियाँ ज़रूर हैं। इन असंगतियों को लोकतांत्रिक समाज के मूल्यों के हिसाब से संशोधित करने की ज़रूरत से इंकार नहीं किया जा सकता। पर इसके लिए समूचे 35-ए को रद्द करने या ख़त्म करने का कोई औचित्य नहीं है। ऐसा करने के दूसरे ख़तरे होंगे और उससे जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे का प्रावधान प्रभावित होगा। फिर यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। न्यायालय को अपना फ़ैसला करने दीजिए। वह जो भी फ़ैसला करेगा, बहुत संभव है, उसे सभी पक्ष मानें। जो नहीं मानेंगे, वे पुनर्विचार-याचिका दायर कर सकेंगे। लोकतांत्रिक और न्यायिक तरीक़ा तो यही है।
कश्मीर के विरूद्ध गोलबंदी के मायने साफ़
बीजेपी या उसकी अगुवाई वाली सरकार चुनाव के मौक़े पर या अपनी विफलताओं के उजागर होने की स्थिति में अक्सर कुछ न कुछ चमकदार या कारगर शिगूफे छोड़ने में उस्ताद है। इसके लिए कभी वह कथित राष्ट्रवादी एजेंडे को सामने लाती है और इसमें पाकिस्तान का हौव्वा खड़ा करती है, जो आज अपनी ही समस्याओं से बुरी तरह घिरा हुआ है। कभी हिन्दू-मुसलमान तो कभी गाय-गोबर का जुमला उछाला जाता है। पूर्वोत्तर में ध्रुवीकरण के लिए एनआरसी को उछाला जा रहा है। समय-समय पर कश्मीर का मसला उछाल दिया जाता है और संपूर्ण देश को कश्मीर के ख़िलाफ़ खड़ा करने की कोशिश की जाती है, मानो कश्मीर का मतलब ख़तरनाक लोगों का भू-खंड हो! आज वैसे ही हालात बन गए हैं। हाल के वर्षों में आतंकी घटनाओं में कमी आई थी। पर पिछले लोकसभा चुनाव से ऐन पहले पुलवामा की घटना हो गई, जिसमें 44 भारतीय जवान मारे गए।
अगर आज के हालात पर नज़र डालें तो तत्काल कोई बड़ा चुनाव भले न हो पर हमारी अर्थव्यवस्था भयानक सुस्ती की तरफ़ बढ़ रही है। कुछ महीने बाद हरियाणा, झारखंड सहित कई राज्यों में चुनाव होने हैं। पर आर्थिक हालात बेहद ख़राब हैं। टैक्स-टेररिज़्म एक अलग समस्या है, जिसके चलते बड़े-बड़े उद्यमी-उपक्रमी आत्महत्या तक करने को अभिशप्त हो रहे हैं। ग्रोथ ठहर-सी गई है, बेरोज़गारी बेतहाशा बढ़ रही है अर्थव्यवस्था बड़े विनाश के कगार की तरफ़ जा रही है। ऐसे दौर के चुनावों में लगातार जीत दर्ज करने के लिए शासक पार्टी को नये-नये नुस्खों की ज़रूरत होती है। ऐसा लगता है, मौजूदा सत्ताधारी पार्टी सिर्फ़ जुमलों और नुस्खों के बल पर सत्ता में हमेशा काबिज़ रहना चाहती है। पर सोचिए, देश का क्या होगा?
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