करगिल के 20 बरस हो गए! हिन्दुस्तान अखबार के संवाददाता के रूप में हमने 1999 में करगिल की वह लड़ाई कवर की थी! लड़ाई ख़त्म होने के कुछ समय बाद भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने करगिल कवर करने वाले हम सभी संवाददाताओं को प्रधानमंत्री-निवास पर एक संवाद-सह-भोज पर आमंत्रित किया था! लेकिन उस दिन लड़ाई के बारे में उन्होंने पूछे जाने के बावजूद कोई टिप्पणी नहीं की! बस एक अच्छे मेजबान की भूमिका निभाई! वह सिर्फ पत्रकारों के अनुभव सुनते रहे।
बाद के दिनों में उनकी सरकार ने 'करगिल' के बावजूद भारत-पाकिस्तान रिश्तों में सुधार के लिए कुछ कदम भी उठाए। उस लड़ाई में भारतीय सैन्य-पराक्रम के राजनीतिक और चुनावी इस्तेमाल का भी तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी पर आरोप लगा। सत्ता में दोबारा आने के बाद वाजपेयी सरकार ने कश्मीर मसले पर संवाद की कुछ अच्छी कोशिशें कीं। बाद की मनमोहन सिंह सरकार की तरफ से कुछ बहुत महत्वपूर्ण कोशिशें हुईं। दूसरी तरफ से सकारात्मक रिस्पॉन्स आए। बाद के दिनों में गतिरोध पैदा हुआ और सिलसिला ठहर सा गया।
युद्ध पर उल्लास क्यों?
भारत-पाकिस्तान रिश्ते आज बेहद ख़राब हैं। इन ख़राब रिश्तों को सुधारना कोई आसान काम नहीं है। पर दोनों देशों के बेहतर भविष्य के लिए बहुत ज़रूरी काम है। 'करगिल' के 20 बरस होने के मौके पर उस लड़ाई को 'विजयोत्सवी माहौल' के ज़रिये समझने की बजाय ज्यादा गंभीर और सुसंगत होकर दोनों देशों के रिश्तों के भावी रूप पर सोचने की ज़रूरत है। सैन्य बल इस मौके पर अपना आयोजन करते हैं, शहीद-सैनिकों को याद करते हैं, श्रद्धाँजलि अर्पित करते हैं। वह बिल्कुल सही और जायज है। अपने शहीदों को हम भी याद करें।
नागरिक समाज में युद्ध का विजयोत्सवी माहौल बनाने से बचा जाना चाहिए। मुझे लगता है, आज करगिल को अगर हम नागिरक समाज में याद करें तो इस रूप में कि अब आगे से हम कोई 'करगिल' नहीं होने देंगे! क्योंकि युद्ध उल्लास या उत्सव का नहीं, शोक, तकलीफ़ और तबाही का सिलसिला है।
क्या था करगिल?
करगिल एक सैन्य कनफ्लिक्ट था, सैन्य-सामरिक अर्थों में पूरी तरह युद्ध नहीं। यह लड़ाई मई से जुलाई, 1999 के बीच लड़ी गई। सारा कुछ संघर्ष नियंत्रण रेखा के इलाके में हुआ था। भारतीय सेना ने इसका नामकरण किया था- 'आपरेशन विजय'। उस समय सैन्य प्रमुख वीएन मलिक थे। पाकिस्तान के सेना प्रमुख परवेज़ मुशर्रफ़ थे। उपलब्ध आँकड़ों के मुताबिक़, इस लड़ाई में भारत की इस मायने में जीत हुई कि उसने पाकिस्तानी सेना द्वारा कब्जा किए अपने क्षेत्रों को मुक्त करा लिया। पर चूंकि पाकिस्तानी रेगुलर्स ऊँचाई पर थे और हमारी सेना नीचे थी, इसलिए भारतीय सेना के 527 सैनिक मारे गए। पाकिस्तानी प्रेस के बड़े हिस्से के मुताबिक़, पाकिस्तानी सेना के 370 सैनिक मारे गए थे। लेकिन कुछ हिस्सों में यह संख्या 453 भी बताई गई।
पहला टेलिवाइज़्ड वार!
भारतीय सेना ने अपने 'आपरेशन विजय' की समाप्ति की घोषणा 26 जुलाई को की थी। इसलिए उस दिन द्रास में बीते कई सालों से सैन्य-आयोजन होता आ रहा है। इससे पहले, लंबे समय तक सन् 1971के युद्ध में विजय का आयोजन होता था। करगिल भारत का पहला युद्ध था, जिसे टीवी चैनलों ने 'कवर' किया। यानी युद्ध को जनता ने भी अपने-अपने घरों से देखा था। दक्षिण एशिया में पहला टेलिवाइज़्ड वार! इसीलिए दोनों देशों ने एक दूसरे के चैनलों के प्रसारण पर अपने देश में रोक लगा दी थी। मजे की बात है कि दोनों देशों के बीच यह लड़ाई उनके सन् 1998 मे न्यूक्लियर टेस्ट के बाद हुई यानी करगिल ने 'बिग-बम' के 'डिटरेंट' होने की बात ग़लत साबित कर दी।
भारतीय सेना का पराक्रम
करगिल भारतीय सैनिकों की वीरता का अद्भुत उदाहरण था-नीचे से ऊपर जाकर लड़ने की चुनौती के बावजूद सैनिकों ने ज़बरदस्त लड़ाई लड़ी। अगर करगिल में भारतीय शासकों की कमज़ोरियाँ जाहिर हो रही थीं, तो साधारण किसान और निम्नमध्यवर्गीय-मध्यवर्गीय पारिवारिक पृष्ठभूमि से आए सैनिकों का शौर्य और ताकत भी।
भारत को घुसपैठ की जानकारी स्थानीय समर्थकों-गूजर-बक्करवाल-गड़ेरियों से मिलती रही है, उसके इजराइल या अमेरिका आयातित उपकरणों या सर्विलाँस के अन्य तरीकों से नहीं। करगिल में भी ऐसा ही हुआ था। क्या हमारे शासकों और सरकारी रणनीतिक विशेषज्ञों ने इसे सुधारने की कोशिश की है?
करगिल का सच
करगिल का एक सच यह भी है कि इस इलाके में पाकिस्तानियों ने फरवरी-मार्च, 1999 में ही बिल्ड-अप शुरू कर दिया था। पर भारतीय पक्ष को इसकी जानकारी बाद में मिली। जब मिली, तब भी कुछ दिन कोताही कर दी गई। बहरहाल, जब सैनिकों की पुख़्ता तैनाती हुई जब जाकर पता चला कि यहाँ तो पाकिस्तानी सैनिकों की बड़ी घुसपैठ हो चुकी है। यह एक कठिन लड़ाई थी। क्योंकि वे ऊपर थे और भारतीय सेना नीचे। इसीलिए शुरू में पाकिस्तान ने समझा कि यह उनकी एकतरफा लड़ाई है, इसमें वे जीतेंगे!
पाक सेना का ग़लत अनुमान
पाकिस्तानी मीडिया में सैन्य-सूत्रों के हवाले यह बात भी आई कि करगिल-द्रास सब-सेक्टर में सरहद की ऊँची पहाड़ियों पर कब्जा जमाने के बाद इस क्षेत्र में पाकिस्तान की सामरिक स्थिति वैसी ही मजबूत हो जायेगी, जैसी सियाचिन क्षेत्र की ऊँची पहाडियों पर कब्जे के बाद भारत की हो गई थी। लेकिन पाकिस्तानी सैन्य कमांडरों का यह आकलन ग़लत साबित हुआ। शुरुआती हमलों से परेशान भारतीय सेना ने कुछ ही समय बाद अपने युद्धकौशल को सुसंगठित किया और पहाड़ियों पर चढ़कर लड़ने में उसे कामयाबी मिलने लगी। सबसे पहले एक महत्वपूर्ण कामयाबी तोलोलिंग की ऊँची पहाड़ियों को मुक्त कराकर मिली थी। इस ऐलान के वक्त इन पंक्तियों का लेखक द्रास में था और बादलों की उमड़-घुमड़ के बावजूद दूर से झिलमिलाती तोलोलिंग की ऊँची पहाड़ी को हम अपनी आंखों से देख सकते थे।
जून के मध्य में 'तोलोलिंग विजय' से भारतीय सेना का हौसला बुलंद हुआ। लड़ाई के दौरान पाकिस्तानी सेना पहली बार रक्षात्मक होने लगी। इसके बाद सबसे निर्णायक लड़ाई थी-'टाइगर हिल्स' की। मेरा अनुमान है, उस पर भारतीय सेना की फ़तेह से पाकिस्तानी सैन्य बलों में गहरी निराशा पैदा हुई होगी। इसके बाद भी द्रास सब-सेक्टर के सामने की कुछ पहाड़ियों पर पाकिस्तानी मौजूदगी बरक़रार थी। नीलम घाटी की तरफ से उनकी सप्लाई लाइन संभवतः तब तक बरकरार थी। भारत सरकार की तरफ से अपनी सेना को सख्त हिदायत थी कि लड़ाई के दौरान हमें सिर्फ अपने इलाकों को मुक्त कराना है, नियंत्रण रेखा(एलओसी) को पार करके पाकिस्तानी क्षेत्र में नहीं जाना है!
क्लिंटन की पहल
उधर, इसलामाबाद में सिविल प्रशासन और सैन्य प्रशासन के बीच भी मतभेद उभर चुके थे। अंत में प्रधानमंत्री नवाज ने युद्ध के अंत के लिए अमेरिकी सहायता ली। लड़ाई का अंत 4 जुलाई के वाशिंगटन में लिये फ़ैसले के बाद होना शुरू हो गया। यह बात उसी समय सार्वजनिक हो गई थी। तत्कालीन पाकिस्तानी सेना प्रमुख और बाद में राष्ट्रपति बने परवेज मुशर्रफ ने भी इसे अपनी चर्चित किताब-'इन द लाइन आफ फायर' (प्रकाशन वर्ष 2006) में यह बात मानी है। सन् 2009 में छपी एक बहुचर्चित किताब-'द क्लिंटन टेप्स-ए प्रेसिडेंट सीक्रेट डायरी' में भी इसका खुलासा है कि कैसे 'करगिल कनफ्लिक्ट' का अंत हुआ था? 4 जुलाई को अमेरिका का स्वाधीनता दिवस था।
अपने तमाम व्यस्त कार्यक्रमों के बावजूद राष्ट्रपति क्लिंटन ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ से वाशिंगटन में मीटिंग के प्रस्ताव को हरी झंडी दी। मीटिंग के लिए नवाज़ ने ही क्लिंटन को फोन किया था। क्लिंटन की प्रधानमंत्री वाजपेयी से भी फ़ोन पर बातचीत हुई थी।
पाक पीएम को पता नहीं था?
सामरिक-मामलों के ज़्यादातर विशेषज्ञ मानते हैं कि 'करगिल' सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ़ समर्थित-अभियान था, प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ का उसे समर्थन नहीं था। पर मुशर्ऱफ ने अपनी किताब में इसे सिरे से ग़लत बताया और कहा कि पीएम शरीफ़ की उसे अनुमति थी। लेकिन शरीफ ने मुशर्ऱफ की बातों को सफेद झूठ बताया। सच क्या है, कौन जाने! हां, पाकिस्तान के बारे में यह सर्वज्ञात सच है कि वहाँ सियासी-नेतृत्व की ताक़त जनता से नहीं, सेना से आती है। ऐसे में नवाज़ सही भी हो सकते हैं कि उन्हें जानकारी नहीं थी। होने के बाद जानकारी मिली।शायद इसी लिए वह करगिल में युद्धविराम के लिए अमेरिकी राषट्रपति बिल क्लिंटन से गिड़गिडाते रहे और अंततः 4 जुलाई को इसी काम के लिए वाशिंगटन गए, जहाँ युद्ध के ख़ात्मे का फ़ैसला हुआ और पाकिस्तान को कहा गया कि वह जल्द से जल्द अपने लड़ाकों या सैनिकों को ऊँची पहाड़ियों से हटाए!
शर्मिंदगी मिटाने के लिए मुशर्रफ ने अपने दुस्साहस को यह कहते हुए जायज़ ठहराने की कोशिश की थी कि करगिल में जो पाकिस्तान ने किया, वह सियाचिन पर सन् 1984 में हमारे कब्जे के जवाब में था। अगर पाकिस्तान ने ऐसा न किया होता तो भारत गिलगिट-बालतिस्तान में भी उसी तरह की घुसपैठ कर सकता था।
पाक राजनीति पर प्रभाव
बहरहाल, मुशर्ऱफ की ये सारे बातें झूठी और अंतरराष्ट्रीय प्रोपगेंडा पाने से प्रेरित थीं। मजे की बात कि नवाज़ उसके पहले बेनज़ीर को हराकर पाकिस्तान में भारी बहुमत से चुनाव जीतकर आए थे। उन्होंने अपने को सर्वशक्तिमान पीएम बनाने के लिए संविधान में 14 वाँ संशोधन भी कराया था कि उनके ख़िलाफ़ अविश्वास का प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता।
पर पाकिस्तान में सिविल प्रशासन के लिए करगिल बहुत बुरा घटनाक्रम साबित हुआ और पाक सेना ने भारी बहुमत से जीतकर सत्ता में आई शरीफ़ सरकार को कुछ समय बाद अपदस्थ कर स्वयं शासन संभाल लिया। जिन नवाज शरीफ ने 1998 में देश के बेहद ताक़तवर सेनापति जहांगीर करामत को हटाकर एक 'मोहाजिर' जनरल मुशर्ऱफ को अपना नया सेनापति तय किया था, वही शासक बन बैठे!
भारत के लिए 'करगिल' के मायने
इधर भारत में वाजपेयी सरकार ने युद्ध के बाद अपनी सफलताओं-विफलताओं, शक्ति और कमज़ोरी आदि की समीक्षा यानी सबक हासिल करने के लिए करगिल रिव्यू कमेटी बनाई, जिसे संक्षेप में करगिल कमेटी कहा गया। इसके चीफ थे-के. सुब्रह्मण्यम। देश के जाने-माने स्ट्रैटजिक अफ़ेयर एक्सपर्ट। इस रिपोर्ट के कुछ हिस्सों को बचाते हुए लगभग पूरी रिपोर्ट बाद के दिनों में आम जनता के सामने आई। उसमें कई महत्वपूर्ण राय दी गई। उस पर खूब बहस हुई।
करगिल रिपोर्ट पर क्रियान्वयन कितना हुआ? हमने राष्ट्रीय सुरक्षा, कूटनीति, युद्धकौशल और रणनीति के स्तर पर क्या सबक लिए? पाकिस्तान एक दोहरे शासन का देश है-सेना और सियासत। क्या हमने इसके मद्देनजर अपनी रणनीति में बदलाव किया?
सिफ़ारिशें लागू नहीं
सुब्रह्मण्यम कमेटी ने खुफिया तंत्र के स्ट्रैटजिक रिआर्गनाइजेशन, आतंक-रोधी गतिविधियों-आपरेशंस में सेना की हिस्सेदारी कम करने, इंटर सर्विसेज कोआपरेशन्स, मानक आपरेटिंग-प्रोसिजर को सुधारने और ऊँची पहाडियों पर लड़ने के लिए हल्के कारगर हथियारों की उपलब्धता जैसे सुझाव दिए थे। इन पर कितना काम हुआ? देश के अनेक विख्यात सामरिक विशेषज्ञों ने तब से आज तक बार-बार कहा और लिखा कि आई-गई तमाम सरकारों ने करगिल कमेटी की बहुत जरूरी और अहम् सिफारिशों को लागू ही नहीं किया। कमेटी के सुझावों के मद्देनजर भारत की सामरिक नीति और रणनीति में गुणात्मक और मात्रात्मक स्तर पर जिस तरह के बदलावों और पुनर्संयोजनों की जरूरत थी, वे नहीं किये गए।
निर्णायक समाधान क्या है?
भारत और पाकिस्तान के बीच सरहदी इलाक़ों में लड़ाई-भिड़ाई, गोलेबाजी, घुसपैठ, छद्मयुद्ध और आतंकी गतिविधियों पर निर्णायक अंकुश के लिए क्या होना चाहिए? मैं समझता हूँ-भारत-पाकिस्तान के रिश्तों और कश्मीर-मसले के समाधान का यह सबसे बड़ा यक्ष-प्रश्न है।
1965, 1971 जैसे युद्ध या 1999 जैसे करगिल-कनफ़्लिक्ट किसी तरह का समाधान नहीं पेश करते! ये लड़ाइयाँ दोनों मुल्कों के लिए जवानों की मौत और जीवन-भर के ज़ख़्म लेकर आती हैं। देश की अर्थव्यवस्था बर्बाद होती है।
इसलिए सिर्फ और सिर्फ एक ही समाधान है और वह हैः-समझौता। युद्ध नहीं। समझौते के क्या फार्मूले हो सकते हैं, यह दोनों देशों की सरकारों को तय करना होगा और आपसी सहमति बनानी होगी। कश्मीर के मसले पर वहां की तमाम सियासी तंजीमों और जनप्रतिनिधियों को भी भरोसा में लेना होगा। भारत और पाकिस्तान के बीच अक्तूबर, 2006 और मार्च, 2007 के बीच निर्णायक समझौते की आधारशिला तैयार हो रही थी। उसी बीच परवेज मुशर्रफ़ राष्ट्रपति पद से अपदस्थ हो गए, इधर भारत में भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पार्टी से उतना समर्थन नहीं मिल रहा था। मेरा मानना है-मुशर्ऱफ-मनमोहन 4-सूत्री फार्मूले पर बात आगे बढ़नी चाहिए।
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