किसान आंदोलन के कारण सबसे ज़्यादा प्रभावित राज्य पंजाब में स्थानीय निकाय के चुनाव होने जा रहे हैं। ये चुनाव इस लिहाज से ज़्यादा अहम हैं क्योंकि अगले साल फ़रवरी में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, इसलिए इन्हें सत्ता का सेमी फ़ाइनल माना जा रहा है। किसान आंदोलन के कारण सूबे की सियासत बेहद गर्म है और किसानों की प्रधानता वाले इस राज्य में हर राजनीतिक दल इस बात से डरा हुआ है कि कहीं उसे किसानों की नाराज़गी का शिकार न होना पड़े।
17 फ़रवरी को आएंगे नतीजे
पंजाब में स्थानीय निकाय के चुनाव के लिए मतदान 14 फ़रवरी को होगा। ये चुनाव 8 नगर निगमों और 109 नगर पालिका परिषदों में होंगे। इनमें कुल 1,630 वार्ड हैं। नामांकन दाखिल करने की अंतिम तारीख़ 3 फ़रवरी थी जबकि 12 फ़रवरी को प्रचार ख़त्म हो जाएगा। नतीजे 17 फ़रवरी को आएंगे।
किसान आंदोलन शुरू होने के बाद राज्य में यह पहला बड़ा चुनाव होने जा रहा है। किसान आंदोलन के कारण राज्य की माली हालत बेहद ख़राब हो चुकी है क्योंकि 9 महीने से राज्य में किसान धरने पर बैठे हैं।
बादल के काफिले पर हमला
राज्य की अमरिंदर सरकार के सामने अहिंसक चुनाव कराने की बड़ी चुनौती है। राज्य के उप मुख्यमंत्री रहे सुखबीर बादल के काफिले पर कुछ दिन पहले ही जलालाबाद इलाक़े में एसडीएम दफ़्तर के कार्यालय के बाहर हमला हुआ था। इसके बाद से ही चिंता जताई जा रही है और कहा जा रहा है कि सुखबीर जैसे बड़े क़द के नेता के काफिले पर हमला होने का मतलब है कि राज्य में क़ानून व्यवस्था की स्थिति लचर है।
सुखबीर पर हुए हमले को लेकर शिरोमणि अकाली दल और अन्य विपक्षी दल अमरिंदर सरकार पर हमलावर हैं। स्थानीय निकाय चुनाव में हिंसा की आशंका को लेकर आम आदमी पार्टी, बीजेपी और शिरोमणि अकाली दल राज्य के मुख्य निर्वाचन आयुक्त जेएस संधू से मिल चुके हैं। उन्होंने मांग की है कि ये चुनाव केंद्रीय सुरक्षा बलों की निगरानी में कराए जाने चाहिए क्योंकि उन्हें पंजाब पुलिस पर भरोसा नहीं है।
अमरिंदर की चिंता
अमरिंदर के सामने सबसे बड़ी चिंता किसान आंदोलन है। अमरिंदर इस बात की चिंता जता चुके हैं कि किसान आंदोलन की आड़ में पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई पंजाब में गड़बड़ी कर सकती है।
26 जनवरी को लाल किले पर निशान साहिब फहराए जाने के बाद से ही बीजेपी और केंद्र सरकार के मंत्री किसान आंदोलन में खालिस्तान समर्थकों के घुसने के अपने आरोप को सही बता रहे हैं। ऐसे में अमरिंदर के कंधों पर क़ानून व्यवस्था की स्थिति को बनाए रखते हुए कांग्रेस को जीत दिलाने की भी जिम्मेदारी है।
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अकाली दल-बीजेपी का अलग होना
अब नज़र डालते हैं राजनीतिक दलों पर। 10 साल तक अकाली दल के साथ सरकार में रही बीजेपी पंजाब में 2022 का विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने और सरकार बनाने के दावे कर रही थी। लेकिन किसान आंदोलन के कारण हालात ऐसे बदले हैं कि पार्टी के नेताओं का बाहर निकलना मुश्किल हो गया है।
स्थानीय निकाय के चुनाव में शहरी मतदाताओं के मूड का भी पता चलेगा। माना जाता है कि शहरी इलाकों में हिंदू मतदाताओं के बीच बीजेपी की उपस्थिति है। हाल ही में कई जगहों पर बीजेपी नेताओं के कार्यक्रमों में पहुंचकर किसानों ने खलल डाला था। देखना होगा कि क्या बीजेपी को शहरी इलाक़ों में समर्थन मिलेगा।
अकाली दल की साख दांव पर
दूसरी ओर अकाली दल के सामने भी करो या मरो का सवाल है। पिछले चुनाव में उसे सिर्फ़ 15 सीट मिली थीं। अकाली दल को पंजाब के गांवों के लोगों और किसानों का समर्थन हासिल है। कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसानों के मैदान में उतरते ही अकाली दल ने एनडीए से नाता तोड़कर यह बताने की कोशिश की थी कि उसके लिए किसान पहले हैं और सियासत बाद में।
अब तो सुखबीर बादल अपने कार्यकर्ताओं से खुलकर किसान आंदोलन का समर्थन करने को कह चुके हैं। लेकिन इससे उन्हें कितना फ़ायदा होगा, इसका पता नतीजे आने पर ही चलेगा। सुखबीर चुनावों की पूरी मॉनिटरिंग ख़ुद कर रहे हैं।
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आम आदमी पार्टी लगा रही जोर
पंजाब में मुख्य चुनावी लड़ाई कांग्रेस और अकाली दल के बीच ही होती थी लेकिन बीते कुछ सालों में राज्य की सियासत में आम आदमी पार्टी मजबूती से उभरी है। 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी ने पंजाब में पूरा जोर लगाया था। हालांकि तब नतीजे वैसे नहीं रहे थे लेकिन चुनाव में अकाली दल-बीजेपी गठबंधन की बुरी हार हुई और आम आदमी पार्टी मुख्य विपक्षी दल बन गई थी।
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पार्टी की पंजाब इकाई के प्रधान और सांसद भगवंत मान किसानों के आंदोलन को लेकर खासे सक्रिय हैं। पार्टी के उम्मीदवार जोर-शोर से प्रचार में जुटे हैं। पार्टी को उम्मीद है कि उसे हिंदू-सिख मतदाताओं का समर्थन मिलेगा।
किसान आंदोलन के मुद्दे पर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी भिड़ चुके हैं। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की कृषि क़ानूनों को लेकर जोरदार बहस हो चुकी है।
घर की लड़ाई से जूझ रहे अमरिंदर
सबसे अंत में बात सत्ता में बैठी कांग्रेस की। कांग्रेस के बुजुर्ग लेकिन चुस्त मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह 78 साल की उम्र में भी सियासी मोर्चे पर डटे हुए हैं। अमरिंदर पंजाब कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद प्रताप सिंह बाजवा को फूटी आंख नहीं सुहाते। बाजवा के साथ कांग्रेस के एक और राज्यसभा सांसद शमशेर सिंह दूलों भी हैं। दोनों मिलकर कैप्टन को हटाना चाहते हैं लेकिन आलाकमान इसके लिए तैयार नहीं है।
कैप्टन के साथ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सुनील जाखड़ खड़े हुए हैं। ऐसे में कैप्टन को संगठन की ओर से मजबूत सहारा मिला हुआ है। अमरिंदर और जाखड़ इन दिनों चुनावी रणनीति बना रहे हैं।
बीजेपी में नहीं जाएंगे सिद्धू!
कैप्टन के एक और सियासी विरोधी हैं जिनका नाम है नवजोत सिंह सिद्धू। सिद्धू के बारे में कुछ वक़्त पहले तक चर्चा आम थी कि वह बीजेपी में वापस लौट सकते हैं और उनकी पत्नी नवजोत कौर सिद्धू ने इस बात के संकेत भी दिए थे। लेकिन उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने पंजाब का प्रभारी बनने के बाद सिद्धू को मनाने के लिए पूरा जोर लगाया है और अब ऐसा लगता है कि सिद्धू कांग्रेस में ही रहेंगे।
अमरिंदर की कड़ी परीक्षा
अमरिंदर को किसान आंदोलन के कारण बेहद ख़राब हो चुकी राज्य की माली हालत को दुरुस्त करने के साथ ही विदेशों में बैठे सिख अलगाववादी संगठनों की ओर से पंजाब में खालिस्तान को लेकर किए जा रहे दुष्प्रचार को रोकना है और इनकी नकेल भी कसनी है। साथ ही निकाय चुनाव के अलावा विधानसभा चुनाव में भी पार्टी का परचम फिर से लहराए, इस परीक्षा से भी उन्हें गुजरना है। देखना होगा कि वह इसमें पास होते हैं या फ़ेल।
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