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भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 1881 में अपना मशहूर नाटक ‘अंधेर नगरी’ लिखा था। छह अंकों के इस व्यंग्य नाटक में एक ऐसे निरंकुश राजा की कहानी बतायी गयी है जो अपने ही अतार्किक फ़ैसलों से नष्ट हो जाता है। यह राजा अपराध के लिए अपराधी की तलाश में वक़्त ज़ाया न करके फंदे के आकार के हिसाब से गर्दन की तलाश करता था। जिसकी गर्दन फ़िट हो गयी, उसे फाँसी चढ़ा दिया जाता था। यही उसका ‘न्याय’ का तरीक़ा था।
ज़ाहिर है, भारतेंदु ने इस नाटक में अंग्रेज़ी राज की निरंकुश व्यवस्था को निशाना बनाया था। लेकिन डेढ़ सदी बाद भारत का हाल कुछ इसी दिशा में जा रहा है। मीडिया जिस ‘बुलडोज़र राज’ के क़सीदे पढ़ रहा है, वह और कुछ नहीं ‘अंधेर नगरी-चौपट राजा’ होने का ही सबूत है। ‘अंधेर नगरी’ में राजा की इच्छा ही इंसाफ़ माना जाता था और ‘बुलडोज़र राज’ में भी किसी अदालत नहीं, राजा की इच्छा से ही फ़ैसला हो रहा है। फ़र्क़ बस इतना है कि ‘अंधेर नगरी’ का राजा गर्दन की मोटाई से ही मतलब रखता था, गर्दन की जाति, रंग, या धर्म से नहीं, जबकि इन ‘अच्छे दिनों’ में गर्दन का मुसलमान होना ज़्यादातर मामलों में ज़रूरी माना जाता है। इस लिहाज़ से अच्छे दिनों का अँधेरा, ‘अंधेर नगरी’ से ज़्यादा गहरा और नफ़रती है।
2017 में संसार से विरक्त संन्यासी की धज में यूपी के मुख्यमंत्री पद से जुड़ी समस्त सांसारिकता निभाने की शपथ लेने के बाद जिस तरह महंत आदित्यनाथ ने बुलडोज़र को ‘न्याय’ का प्रतीक बनाया, उसकी दूसरी मिसाल भारत ही नहीं, किसी भी लोकतांत्रिक देश में मिलना मुश्किल है। अपराध की सूचना मिलते ही उनके बुलडोज़र ‘न्याय’ करने निकल पड़ते हैं। इस ‘न्याय’ का सबूत अपराधी (जो महज़ आरोपित होता है) के घर का मलबा चीख़-चीख़ कर देता है। महंत आदित्यनाथ के भाषणों और भंगिमा पर ग़ौर करने के बाद इस बात पर आश्चर्य नहीं होता कि मिनटों में मलबा कर दिये गये मकान नब्बे फ़ीसदी से ज़्यादा मामलों में किसी मुसलमान के ही क्यों होते हैं!
योगी आदित्यनाथ भारतीय न्याय व्यवस्था को ‘समृद्ध' बनाने में जो भूमिका निभा रहे हैं, उस पर ख़ूब तालियाँ बज रही हैं। उन्हें ‘बुलडोज़र बाबा’ का ख़िताब दिया गया है। नतीजा ये है कि वे कट्टर हिंदुत्ववादी ख़ेमे के बीच 'मोदी के बाद कौन?’ जैसे सवालों का जवाब बनकर उभरे हैं। दूसरे राज्यों के बीजेपी के मुख्यमंत्री भी ‘बुलडोज़र मामा’ से लेकर ‘बुलडोज़र चाचा’ बनने की होड़ में हैं। यह अलग बात है कि ये बुलडोज़र किसी का मकान या प्रतिष्ठान तोड़ने से पहले न्याय व्यवस्था को मलबा बना देते हैं। ये बुलडोज़र उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ अथक संघर्ष करके आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में विकसित हुए भारत की तमाम सभ्यतागत उपलब्धियों को ज़मींदोज़ कर रहे हैं।
यानी महंत आदित्यनाथ की तर्ज़ पर डॉ. मोहन यादव भी ‘बुलडोज़र न्याय’ के रास्ते पर चल पड़े हैं। उन्हें इससे मतलब नहीं कि जुलूस निकालने या पत्थरबाज़ी के पीछे कौन था, या सरकार अगर किसी अपराध का होना मानती है तो एफ़आईआर दर्ज करके आरोपित को अदालत से सज़ा दिलवाये।
उन्हें तो बस ये दिखाना है कि किसी ‘शहज़ाद' ने अगर उनके राज में आवाज़ उठाने की हिमाक़त की तो उसका आशियाना उजाड़ दिया जायेगा। मुसलमानों के प्रति नफ़रत को अपनी राजनीतिक पूँजी समझने वाली सरकार के इस अंदाज़ पर ताली और वोट, दोनों क्यों मिलते हैं, यह अलग समाजशास्त्रीय विश्लेषण का विषय है।
भारत की दंड संहिता अलग-अलग अपराध के लिए अलग-अलग सज़ा का प्रावधान करती है। ‘हीरा चोर’ और ‘खीरा चोर’ को एक ही सज़ा नहीं दी जाती। साथ ही, भारतीय न्याय संहिता के किसी भी पन्ने पर किसी भी अपराध की सज़ा बतौर बुलडोज़र से घर तोड़ना नहीं लिखा है। सरकार ये बात जानती है। इसलिए कथित अपराध के तुरंत बाद सरकारी काग़ज़ों पर दर्ज कर लिया जाता है कि आरोपित का घर अवैध ज़मीन पर बना है या बग़ैर नक़्शा पास कराये बना है। फिर बिना कोई नोटिस या मोहलत दिये घर गिराने का ‘परपीड़क सुख’ लिया-दिया जाता है।
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भारतीय अधिकारियों द्वारा मुस्लिमों की संपत्तियों का गैरकानूनी विध्वंस, जिसे 'बुलडोजर न्याय' के रूप में प्रचारित किया गया है, क्रूर और भयावह है। इस तरह का विस्थापन और बेदखली पूरी तरह से अन्यायपूर्ण, गैरकानूनी और भेदभावपूर्ण है।
एग्नेस कैलामार्ड, एमनेस्टी इंटरनेशनल के महासचिव
दुनिया भर में धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने हाल ही में साल 2023 के लिए अपनी रिपोर्ट जारी की थी। रिपोर्ट में बताया गया है कि 2023 के दौरान भारत में हेट स्पीच, धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक समुदायों के घरों और पूजास्थलों को ध्वस्त करने के मामले बढ़े हैं। रिपोर्ट कहती है कि मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों, दलितों और आदिवासियों के ख़िलाफ हो रही सांप्रदायिक हिंसा से निपटने में बीजेपी नाकाम रही है। रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में यूएपीए, एफ़सीआरए, सीएए, धर्मांतरणविरोधी और गोहत्या को लेकर जो क़ानून हैं, उनके चलते धार्मिक अल्पसंख्यकों और उनकी वकालत करने वाले लोगों को निशाना बनाया गया है।
इससे पहले अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग (यूएससीआईआरएफ़) ने लगातार पाँचवें साल मानवाधिकारों के उल्लंघन को लेकर भारत को ‘विशेष चिंता वाले देशों’ (सीपीसी) की सूची में शामिल करने की सिफ़ारिश की थी। सीपीसी की सूची में उन देशों का नाम शामिल किया जाता है जहाँ मानवाधिकारों का घनघोर उल्लंघन होता है। 2024 की वार्षिक रिपोर्ट में, यूएससीआईआरएफ़ ने इस बात पर प्रकाश डाला था कि “भारत में धार्मिक स्वतंत्रता की स्थिति लगातार ख़राब हो रही है। इसमें भेदभावपूर्ण राष्ट्रवादी नीतियों को लागू करना, घृणा फ़ैलाने वाली बयानबाजी को जारी रखना, धार्मिक अल्पसंख्यकों को ‘असंगत रूप से प्रभावित करने वाली’ सांप्रदायिक हिंसा पर क़ाबू पाने में विफल रहना और धार्मिक अल्पसंख्यकों और उनकी वकालत करने वालों को निशाना बनाना शामिल है।”
मोदी सरकार ने स्वाभाविक ही इन रिपोर्टों को ख़ारिज कर दिया और बीजेपी का ‘इकोसिस्टम’ इसे विदेशी साज़िश बताने में जुट गया। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट अमेरिका के विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन ने जारी की थी।
बहरहाल, विदेशी साज़िश का सिद्धांत गढ़ने वालों को पिछले साल, पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की ओर से जो कहा गया था, उसे याद करना चाहिए। सांप्रदायिक दंगों के बाद नूंह में विध्वंस की कार्रवाई रोकने के अपने आदेश में अदालत ने कहा था कि एक "विशेष समुदाय" के घरों को क़ानून की किसी भी उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना ध्वस्त कर दिया गया था। यह "राज्य द्वारा जातीय सफाई” का एक अभ्यास किया जा रहा है।
“जातीय सफ़ाई!”….यह शब्द मानवता के अपराधी हिटलर के अमानवीय शासन की याद दिलाता है। भारत के किसी हाईकोर्ट का भारत के किसी राज्य के बारे में इस शब्द का इस्तेमाल बेहद डराने वाला है। या फिर इसे चेतावनी और चुनौती समझा जाये जिससे पार पाकर ही भारतीय समाज सभ्यता की कसौटी पर खरा उतर सकता है। अल्पसंख्यकों को पूरी गरिमा के साथ जीने की आज़ादी सभ्य होने की कसौटी है। इस कसौटी पर केवल बांग्लादेश या पाकिस्तान नहीं कसा जायेगा। भारत को भी इस पर खरा उतरना होगा। ‘विश्वगुरु’ के सिंहासन की ओर जा रही सीढ़ी का यह पहला पायदान है।
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