भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 1881 में अपना मशहूर नाटक ‘अंधेर नगरी’ लिखा था। छह अंकों के इस व्यंग्य नाटक में एक ऐसे निरंकुश राजा की कहानी बतायी गयी है जो अपने ही अतार्किक फ़ैसलों से नष्ट हो जाता है। यह राजा अपराध के लिए अपराधी की तलाश में वक़्त ज़ाया न करके फंदे के आकार के हिसाब से गर्दन की तलाश करता था। जिसकी गर्दन फ़िट हो गयी, उसे फाँसी चढ़ा दिया जाता था। यही उसका ‘न्याय’ का तरीक़ा था।
‘अंधेर नगरी-चौपट राजा’ का नफ़रती संस्करण है ‘बुलडोज़र राज!
- विचार
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- 28 Aug, 2024

अल्पसंख्यकों को पूरी गरिमा के साथ जीने की आज़ादी सभ्य होने की कसौटी है। इस कसौटी पर केवल बांग्लादेश या पाकिस्तान नहीं कसा जायेगा। भारत को भी इस पर खरा उतरना होगा।
ज़ाहिर है, भारतेंदु ने इस नाटक में अंग्रेज़ी राज की निरंकुश व्यवस्था को निशाना बनाया था। लेकिन डेढ़ सदी बाद भारत का हाल कुछ इसी दिशा में जा रहा है। मीडिया जिस ‘बुलडोज़र राज’ के क़सीदे पढ़ रहा है, वह और कुछ नहीं ‘अंधेर नगरी-चौपट राजा’ होने का ही सबूत है। ‘अंधेर नगरी’ में राजा की इच्छा ही इंसाफ़ माना जाता था और ‘बुलडोज़र राज’ में भी किसी अदालत नहीं, राजा की इच्छा से ही फ़ैसला हो रहा है। फ़र्क़ बस इतना है कि ‘अंधेर नगरी’ का राजा गर्दन की मोटाई से ही मतलब रखता था, गर्दन की जाति, रंग, या धर्म से नहीं, जबकि इन ‘अच्छे दिनों’ में गर्दन का मुसलमान होना ज़्यादातर मामलों में ज़रूरी माना जाता है। इस लिहाज़ से अच्छे दिनों का अँधेरा, ‘अंधेर नगरी’ से ज़्यादा गहरा और नफ़रती है।