प्रयागराज में 24 अगस्त को आयोजित 'संविधान सम्मान सम्मेलन’ को संबोधित करते हुए लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने घोषणा की, “मैं जाति जनगणना राजनीति के लिए नहीं कर रहा हूँ। यह मेरे जीवन का मिशन है। राजनीतिक नुक्सान होगा, तब भी यह काम करूँगा ”
याद नहीं आता कि बीते कुछ दशकों में किसी और राजनेता ने ‘राजनीतिक नुक्सान’ पर वैचारिक प्रतिबद्धता को ऐसी तरजीह दी हो, जैसा कि राहुल गाँधी दी रहे हैं। आमतौर पर सत्ता के शॉर्टकट की तलाश में वैचारिक प्रतिबद्धताओं को दफ़्न कर देने का ही सिलसिला नज़र आता है। ऐसे नेताओं की लंबी फ़ेहरिस्त है जिन्होंने सामाजिक न्याय के पक्ष में नारेबाज़ी करके राजनीतिक पूँजी जमा की लेकिन मौक़ा मिलते ही उसका सौदा कर डाला। ऐसे में राहुल गाँधी की यह भंगिमा आश्वस्त करती है कि भारत की धरती वीरों से ख़ाली नहीं है।
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राहुल गाँधी की यह प्रतिबद्ध वैचारिकी मोदी सरकार, ख़ासतौर पर आरएसएस को परेशान कर रही है। जाति जनगणना को राहुल गाँधी भारतीय समाज का ‘एक्स-रे’ मानते हैं जबकि आरएसएस को डर है कि यह एक्स-रे रिपोर्ट सामने आयी तो समाज में व्याप्त ग़ैरबराबरी और उच्च-वर्णीय वर्चस्व का षड्यंत्र बेपर्दा हो जायेगा। हालिया में इंडिया टुडे ग्रुप की ओर से आये ‘मूड ऑफ द नेशन’ सर्वे ने स्पष्ट किया है कि राहुल गाँधी की अपील दिनो-दिन बढ़ती जा रही है। जबकि तमाम प्रायोजित छवि निर्माण प्रयासों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ढलान पर हैं। इस सर्वे के मुताबिक़ अगस्त 2024 में भारत के 74 फ़ीसदी लोग जाति जनगणना के पक्ष में आ गये हैं। जबकि फ़रवरी में यह आँकड़ा महज़ 59 फ़ीसदी था। इस सर्वे में प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता में छह फ़ीसदी गिरावट और राहुल गाँधी की लोकप्रियता में आठ फ़ीसदी की वृद्धि भी दर्ज की गयी है।
राहुल गाँधी, प्रधानमंत्री मोदी की तरह न तो नॉन-बायलॉजिकल शै हैं और न ही परमात्मा से सीधा कनेक्शन का ही उनका दावा है। इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि उन्होंने कृष्ण की तरह सामाजिक न्याय का गोवर्धन अकेले ही एक उँगली पर उठा रखा है। देश के करोड़ों लोगों का समर्थन और कांग्रेस पार्टी का पूरा तंत्र अपने नेता की शक्ति बनकर खड़ा हुआ है। लेकिन यह तो साफ़तौर पर कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय को लेकर राहुल गाँधी की प्रतिबद्ध कोशिश से ‘इंद्रासन’ डोल रहा है।
मिथक इतिहास नहीं है, लेकिन कई बार मिथक इतिहास निर्माण समझने का ज़रिया बन जाते हैं। ग़ौर से देखें तो वर्तमान सत्ता राहुल गाँधी से उसी तरह डरी हुई है जैसे कि कभी मथुराधीश कंस, कृष्ण से डरा हुआ था। कंस ने बकासुर से लेकर पूतना तक को कृष्ण को मारने के लिए वृंदावन भेजा क्योंकि वह कृष्ण के हाथों अपने अंत की आकाशवाणी पर यक़ीन था। इसलिए वह जड़ पकड़ने से पहले ही पौधे को उखाड़ फेंकना चाहता था।
कुछ ऐसा ही डर पीएम मोदी को भी है। इसलिए सत्ता हासिल करते हुए राहुल गाँधी की छवि धूमिल करे के लिए व्यवस्थित अभियान चलाया गया। क़हते हैं कि यह सैकड़ों करोड़ का प्रोजेक्ट था जो राहुल की छवि ख़राब करने के लिए दैनिक स्तर पर पूरी सक्रियता से चला। लेकिन भारत की चारों दिशाओं को जोड़ने वाली राहुल गाँधी की यात्राओं ने इस प्रोजेक्ट को बुरी तरह नाकाम कर दिया। मोदी की प्रशस्तिगान और राहुल गाँधी के अपमान में रात-दिन जुटे रहने वाले न्यूज़ चैनलों के ‘बक-बकासुर’ 2024 में हुए लोकसभा चुनाव के नतीजों से ऐसा अकबकाए कि हँसी के पात्र बन गये।
पीएम मोदी का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ दरअसल, गाँधी परिवार की प्रतिष्ठा को ख़त्म करने का अभियान है। क्योंकि उन्हें पता है कि उनके लिए कोई वास्तविक ख़तरा है तो यह परिवार ही है। इस परिवार को न डराया जा सकता है और न ख़रीदा जा सकता है जैसा कि वे अपने राजसूय यज्ञ की सफलता के लिए करते आये हैं। यही वजह है कि राहुल गाँधी की संसद सदस्यता ख़त्म करायी गयी, उनको घर से बेदख़ल किया गया, यहाँ तक कि नेशनल हेरल्ड केस में फँसाकर जेल भेजने का डर दिखाया गया और जब इससे भी काम नहीं बना तो राहुल की नागरिकता पर सवाल उठा दिया गया।
बीजेपी सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी का यूँ प्रधानमंत्री मोदी से काफ़ी मतभेद है लेकिन राहुल या गाँधी परिवार के मुद्दे पर दोनों एकजुट हैं। यही वजह है कि स्वामी जी राहुल गाँधी को ब्रिटिश नागरिक साबित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुँच गये हैं। बीस साल से संसद सदस्य और वर्तमान में नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी को ब्रिटिश नागरिक साबित करने की दयनीय कोशिश में मोदी सत्ता ही नहीं, आरएसएस का भी डर छिपा है जिससे राहुल गांधी समझौता-हीन संघर्ष करते नज़र आते हैं।
मोदी सरकार जिस तरह जाति जनगणना के सवाल पर मुँह चुरा रही है और बीजेपी तथा आरएसएस से जुड़े नेता और संगठन इसके ज़रिए समाज में जातिवाद फैलाने का आरोप राहुल गाँधी पर लगा रहे हैं, वह बहुत दिनों तक चल नहीं पायेगा। राहुल गाँधी ने बार-बार कहा है कि जाति जनगणना सिर्फ ‘जनगणना' नहीं है, बल्कि ये ‘पॉलिसी मेकिंग’ की नींव है। जातिगत जनगणना से शासन-प्रशासन में भागीदारी के बारे से सही जानकारी मिलेगा। उन्होंने प्रयागराज सम्मेलन में कहा, “ सिर्फ़ आबादी की जानकारी का मामला नहीं है। मेरा विजन है कि हिंदुस्तान में धन किस प्रकार से बाँटा जा रहा है, साथ ही हिंदुस्तान की संस्थाओं में किसकी कितनी भागीदारी है, यह भी पता लगे।”
राहुल का यह तेवर आरएसएस के लिए भी ख़तरे की घंटी है जो शताब्दी समारोह मनाने कीं तैयारी कर रहा है। प्रयागराज के संविधान सम्मान सम्मेलन में राहुल की यह घोषणा बेहद महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा, “बीजेपी द्वारा पिछड़े दलित और आदिवासियों को यह कहा जाता रहा है कि मंदिर के प्रसाद में आपकी बराबर की हिस्सेदारी है लेकिन ये मंदिर के खज़ाने को बराबर बाँटने की बात नहीं करते...जातिगत जनगणना और आर्थिक सर्वे द्वारा देश के ख़ज़ाने में सबकी बराबर की हिस्सेदारी तय की जाएगी।”
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यानी राहुल गाँधी सिर्फ़ सामाजिक नहीं, आर्थिक क्रांति का भी प्रस्ताव रख रहे हैं। यह क्रांति सामाजिक और आर्थिक ग़ैर-बराबरी के अंत के लिए होगी। इसके लिए मौजूदा व्यवस्था को बदलने की ज़रूरत पड़ेगी जो वास्तवकि अर्थों में सामाजिक न्याय देने में नाकाफ़ी साबित हो रही है। प्रयागराज जब इलाहाबाद था तो इतिहास को मोड़ देने वाले न जाने कितने फ़ैसलों का गवाह बना था। ख़ासतौर पर इलाहाबाद का स्वराज भवन तो कांग्रेस मुख्यालय के रूप में लंबे समय तक आज़ादी के आंदोलन का मुख्य केंद्र रहा। राहुल ने उसी धरती पर खड़े होकर सामाजिक न्याय को 'ज़िंदगी का मिशन’ बनाने का जो ऐलान किया है, उसकी गूँज बहुत दूर और देर तक सुनायी देगी और इतिहास के पन्नों पर दर्ज होगी।
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