मानवाधिकार को लेकर बौद्धिक जुगाली करने वालों के लिए खूंखार अपराधी विकास दुबे का पुलिस द्वारा मारा जाना ‘एक्स्ट्रा-जुडिशल किलिंग’ है। जिस तरह एनकाउंटर हुआ, औसत ज्ञान वाला व्यक्ति भी कह सकता है कि यह पुलिस का एक ‘प्रतिशोध’ ड्रामा है। फिर भी आम लोग इस बात से खुश हैं कि ‘अतातायी’ मारा गया। वे भूल रहे हैं कि राजनीतिक और आला पुलिस का बड़ा तबक़ा इस बात से ख़ुश है कि अगर वह ज़िंदा रहता तो सत्ता और विपक्ष में बैठे नेताओं और अफसरों के साथ अपने ‘दुरभिसंधि’ का खुलासा करता। भले ही लोगों की ख़ुशी इस बात की तसदीक है कि उनका विश्वास न्याय प्रक्रिया में नहीं है, लेकिन सिस्टम से बाहर समाधान अंततः एक ख़तरनाक स्थिति की ओर ले जाता है।
विकास मारा गया तो ख़ुशी क्यों?
- विचार
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- 10 Jul, 2020

हम किसी विकास के मारे जाने पर ख़ुश तो होते हैं लेकिन यह नहीं सोचते कि विकास पैदा कैसे होते हैं और कैसे देश के गली–कूचों में ‘विकासों’ की पौध पुष्पित–पल्लवित होती हैं। उन्हें खाद-पानी देने वाला तंत्र क्यों नहीं एनकाउंटर में मारा जाता?