महाराष्ट्र में राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच करीब एक महीने तक चला टकराव राज्य विधान परिषद के द्विवार्षिक चुनाव संपन्न होने के साथ खत्म गया। आठ अन्य उम्मीदवारों के साथ मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे भी निर्विरोध निर्वाचित हो गए। विधान परिषद की सदस्यता की शपथ लेने के साथ ही ठाकरे ने अपने पद ग्रहण के छह महीने पूरे होने से पहले ही विधान मंडल का सदस्य होने की संवैधानिक अनिवार्यता पूरी कर ली। इस तरह उनकी कुर्सी पर मंडरा रहा संकट भी टल गया।
महाराष्ट्र सरकार और राज्यपाल के बीच टकराव खत्म कराने और उद्धव ठाकरे की कुर्सी पर आए संकट को टालने का 'श्रेय’ पूरी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खाते में जाता है।
ऐसे में विधान मंडल का सदस्य निर्वाचित हुए बगैर मुख्यमंत्री बने उद्धव ठाकरे के सामने अपनी कुर्सी बचाने का संकट खड़ा हो गया था। कोई और रास्ता न देख ठाकरे ने प्रधानमंत्री से इस बारे में गुहार लगाई थी। हालांकि यह मामला किसी भी दृष्टि से प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप करने जैसा नहीं था लेकिन प्रधानमंत्री ने ठाकरे से कहा था कि वे देखेंगे कि इस मामले में क्या हो सकता है।
प्रधानमंत्री ने अपने आश्वासन के मुताबिक़, मामले को देखा भी। यह तो स्पष्ट नहीं हुआ कि उनकी ओर से राज्यपाल को क्या संदेश या निर्देश दिया गया, मगर अगले ही दिन राज्यपाल ने चुनाव आयोग को पत्र लिख कर विधान परिषद की रिक्त सीटों के चुनाव कराने का अनुरोध किया। उनके इस अनुरोध पर चुनाव आयोग फौरन हरकत में आ गया।
मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा, जो कि इस समय अमेरिका में हैं, ने आनन-फानन में वीडियो कॉफ्रेंसिंग के जरिए चुनाव आयोग की बैठक करने की औपचारिकता पूरी की और महाराष्ट्र विधान परिषद की सभी नौ रिक्त सीटों के लिए 21 मई को चुनाव कराने का एलान कर दिया।
प्रधानमंत्री ने किया 'हस्तक्षेप’?
बहरहाल, उद्धव ठाकरे की गुहार पर प्रधानमंत्री के 'हस्तक्षेप’ से महाराष्ट्र का राजनीतिक संकट तो टल गया, मगर इससे एक नया सवाल खड़ा हो गया है। सवाल यह है कि महाराष्ट्र के अलावा उत्तर प्रदेश और बिहार में विधान परिषद और कई राज्यों में राज्यसभा के लंबित उन चुनावों का क्या होगा, जो कोरोना संकट के चलते बीते मार्च महीने में टाल दिए गए थे? क्या इन चुनावों के लिए भी प्रधानमंत्री 'हस्तक्षेप’ करेंगे?यहां सवाल चुनाव आयोग की स्वायत्तता का भी है, जो संविधान ने उसे प्रदान की है। देखना होगा कि चुनाव आयोग इस बारे में क्या फ़ैसला लेता है।
राज्यसभा, विधान परिषद चुनाव
गौरतलब है कि इस वर्ष राज्यसभा की 73 सीटों और तीन राज्यों की विधान परिषद की करीब 50 रिक्त सीटों के द्विवार्षिक चुनाव प्रस्तावित थे। इनमें से 18 राज्यों से राज्यसभा की 55 और तीन राज्यों - उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में विधान परिषद की करीब 28 सीटों के लिए बीती 26 मार्च को चुनाव होने थे, लेकिन मतदान से ठीक दो दिन पहले चुनाव आयोग ने कोरोना वायरस संक्रमण का हवाला देते हुए इन चुनावों को टाल दिया था। हालांकि राज्यसभा की 55 में से 37 सीटों का चुनाव निर्विरोध हो चुका है और राष्ट्रपति के मनोनयन कोटे की खाली हुई एक सीट भी सेवानिवृत्त प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई के मनोनयन से भरी जा चुकी है। लेकिन अभी भी 7 राज्यों में राज्यसभा की 18 सीटों और तीन राज्यों की विधान परिषद के चुनाव होने बाक़ी हैं।
सवाल उठता है कि चुनाव आयोग ने अपने फ़ैसले से पीछे हटते हुए 21 मई को सिर्फ महाराष्ट्र में ही विधान परिषद के चुनाव किस आधार पर करवाने का आदेश दिया?
यह सवाल इसलिए क्योंकि कोरोना महामारी के जिस संकट को आधार बनाकर चुनाव टाले गए थे, वह आधार तो अब भी कायम है और वह अभी आगे भी काफी समय तक कायम रहेगा।
चुनाव आयोग ने राज्यसभा की 18 सीटों और तीन राज्यों की विधान परिषद के चुनाव कोरोना वायरस के संक्रमण की वजह से अगले आदेश तक टाले जाने का फ़ैसला 24 मार्च को जिस समय किया था, उससे चंद घंटे पहले ही मध्य प्रदेश विधानसभा की कार्यवाही चल रही थी और लगभग 114 विधायकों की मौजूदगी में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विश्वास मत हासिल किया था। जाहिर है, जब सत्र चला तब विधानसभा के तमाम अफ़सर, क्लर्क, सुरक्षा गार्ड और मीडियाकर्मी भी वहां मौजूद रहे होंगे।
मध्य प्रदेश विधानसभा के इस सत्र से एक दिन पहले तक संसद का बजट सत्र भी जारी था। 23 मार्च को दोनों सदनों में वित्त विधेयक पारित कराया गया था। इसके बावजूद चुनाव आयोग ने चुनाव टालने का फ़ैसला कोरोना वायरस संक्रमण को वजह बताते हुए किया।
राज्यसभा और विधान परिषद के चुनाव ऐसे नहीं हैं कि जिनमें बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा होते हों। कोरोना संक्रमण के चलते लॉकडाउन होने के बावजूद सरकार के स्तर पर जिस तरह कई ज़रूरी और ग़ैर-ज़रूरी काम भी हुए हैं और अभी भी हो रहे हैं, उसी तरह राज्यसभा और विधान परिषद के चुनाव भी हो सकते थे और अभी भी हो सकते हैं।
ऐसा नहीं है कि इन चुनावों के बगैर कोई काम रुक रहा है या किसी तरह का संवैधानिक संकट खड़ा हो रहा है। फिर भी अगर चुनाव आयोग चाहता तो ये चुनाव 26 मार्च को हो सकते थे। इनके लिए बहुत ज्यादा तैयारी करने की भी ज़रूरत नहीं थी।
आसानी से हो जाते चुनाव
मिसाल के तौर पर झारखंड में राज्यसभा की दो सीटों के चुनाव के लिए कुल 81 मतदाता हैं। आयोग चाहता तो तीन से पांच मिनट के अंतराल पर हर विधायक के वोट डालने की व्यवस्था की जा सकती थी। विधानसभा भवन में, जहां मतदान की प्रक्रिया संपन्न होती है, वहां दो-दो मीटर की दूरी पर विधायकों के खड़े होने का बंदोबस्त हो सकता था। मास्क और सैनेटाइजर का भी इंतजाम किया जा सकता था।
इसी तरह, गुजरात में राज्यसभा की चार सीटों के लिए 177, मध्य प्रदेश में तीन सीटों के लिए 206, राजस्थान में तीन सीटों के लिए 200, आंध्र प्रदेश में तीन सीटों के लिए 175 और मणिपुर तथा मेघालय में एक-एक सीट के लिए 60-60 विधायक मतदाता हैं।
इसी तरह उत्तर प्रदेश में विधान परिषद के लिए शिक्षक और स्नातक वर्ग की 11 सीटों के लिए और बिहार में इन्हीं वर्गों की आठ सीटों के लिए अलग-अलग जिला मुख्यालय पर वोट डलने हैं, जिसके लिए इंतजाम करना कोई मुश्किल काम नहीं है। मगर चुनाव आयोग ने चुनाव कराने के बजाय चुनाव टालने का आसान रास्ता चुना।
सवाल यही है कि जब चुनाव आयोग महाराष्ट्र में विधान परिषद के चुनाव कराने का एलान कर सकता है तो बाक़ी राज्यों में विधान परिषद और राज्यसभा के चुनाव टाले रखने का क्या औचित्य है?
इसी साल अक्टूबर में उत्तर प्रदेश की 10, कर्नाटक की चार, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर की एक-एक राज्यसभा सीट के लिए चुनाव होना है। इसी साल जुलाई में ही बिहार में राज्यपाल के मनोनयन और विधायकों के वोटों से चुनी जाने वाली विधान परिषद की 18 सीटें खाली होने वाली हैं।
इसके बाद नवंबर-दिसंबर में बिहार विधानसभा के चुनाव होने हैं। मध्य प्रदेश में भी विधानसभा की 24 सीटों पर उपचुनाव सितंबर महीने से पहले कराए जाने की संवैधानिक बाध्यता है। आंध्र प्रदेश और जम्मू-कश्मीर सहित कई राज्यों में स्थानीय निकाय चुनावों पर भी अभी रोक लगी हुई है।
आख़िर कोरोना संक्रमण के संकट को आधार बताकर इन सभी चुनावों को कब तक टाला जाता रहेगा?
चुनाव प्रक्रिया लोकतंत्र की आधारशिला होती है, भले ही वह चुनाव पंचायत का हो या संसद का। किसी भी कारण से चुनावों का टाला जाना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।
चुनाव आयोग के रवैये से कुछ दिनों पहले सोशल मीडिया पर चलाए गए उस खतरनाक अभियान को भी बल मिलता है, जिसमें कहा गया है कि कोरोना महामारी के संकट के मद्देनजर देश में अगले दस वर्ष तक सभी तरह के चुनाव स्थगित कर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही देश का नेतृत्व करने दिया जाए।
अफसोस की बात है कि चुनाव आयोग की मौजूदा छवि और उसके रवैये से पैदा हो रही आशंकाओं को लेकर जिन सक्षम संस्थाओं को चिंता होनी चाहिए, वे पूरी तरह बेफिक्र हैं- प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी।
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