देश में सत्ता प्रतिष्ठान और उससे जुड़ी राजनीतिक जमात के स्तर पर पिछले कुछ सालों से नेहरू-निंदा का दौर चल रहा है। स्वाधीनता संग्राम और आधुनिक भारत के निर्माण में देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के योगदान को बेहद फूहड़ तरीक़े से नकारा जा रहा है। उनके व्यक्तित्व को तरह-तरह से लांछित और अपमानित किया जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि बीजेपी (और उसकी पूर्ववर्ती जनसंघ) शुरू से ही अर्थव्यवस्था, विदेश नीति, राष्ट्रीय सुरक्षा और धर्मनिरपेक्षता संबंधी नेहरू के विचारों और कार्यों की आलोचक रही है। इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के दूसरे नेता भी देश के समक्ष मौजूद तमाम समस्याओं के लिए नेहरू और उनकी सोच को ज़िम्मेदार ठहराते रहते हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि नेहरू को अपने जीवनकाल में तो जनता से बेशुमार प्यार और सम्मान मिला लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनकी लगातार अनदेखी होती गई और उनकी प्रतिष्ठा में कमी आई। कहा जा सकता है कि ऐसा कांग्रेस विरोधी राजनीतिक पार्टियों की ताक़त बढ़ने के कारण हुआ लेकिन हक़ीक़त यह भी है कि ख़ुद कांग्रेस भी उनकी मृत्यु के बाद उनसे लगातार दूर होती चली गई। केंद्र और राज्य की कांग्रेस सरकारों ने छोटी-बड़ी सरकारी परियोजनाओं को तो नेहरू का नाम ज़रूर दिया, लेकिन व्यवहार में वे उनकी वैचारिक विरासत से दूर होती चली गई।