तर्क-शास्त्र में एक प्रमुख लेकिन बेहद “चालाकी भरा” दोष होता है- वर्तमान वैल्यू-सिस्टम को ऐतिहासिक घटना या उसके किरदार पर चस्पा कर उसका महिमा-मंडन करना या छवि खराब कर फिर से इतिहास गढ़ना। इस दोष को “प्रेसेन्टीज्म” बनाम “हिस्टोरीसिज्म” के नाम से जाना जाता है। इसका सहारा लेकर किसी इतिहास-पुरुष की छवि कालांतर में खराब करना बहुत आसान होता है। ऐसा करने के लिए मात्र “पसंद के तथ्यों को प्राथमिकता देनी” होती है। सत्ताधारी वर्ग के लिए यह काम और आसान हो जाता है।
एक युवा मंत्री का संसद में नेहरू-परिवार को लेकर घटिया टिप्पणी करना नेहरू की क्षवि धूमिल करने के अभियान का ही एक असभ्य मुजाहिरा है।
इन दिनों चुनिन्दा तथ्यों के सहारे किताबें लिखी जा रही हैं। चीन मामलों के विशेषज्ञ एक लेखक ने नेहरू पर प्रकाशित हो रही पुस्तक में लिखा है कि नेहरू-मेनन ने 1957 में चीन द्वारा अकसाई-चीन में सड़क बनाने की खुफिया रिपोर्ट को ख़ारिज कर दिया। लेखक ने कुछ अन्य तथ्यों के आधार पर बताया कि नेहरू के पास हवाई हमले का विकल्प खुला था और मांगा भी गया था। इस आधार पर कि उस समय भारत की वायु सेना चीन के मुकाबले ज्यादा ताकतवर थी। लेकिन लेखक के अनुसार नेहरू ने उस विकल्प का इस्तेमाल नहीं किया।
सीमा विवाद के लिए नेहरू जिम्मेदार?
इसमें कोई दो राय नहीं कि पागलपन की हद तक प्रलाप में फंसा गोदी मीडिया “भले ही पांच राफेल से चीन की कंपकंपी छुड़ा रहा हो” और सरकार के नुमाइंदे हर दो घंटे पर “आज का भारत 62 का भारत नहीं है” कह रहे हों लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि आज का चीन भी बदला हुआ चीन है। लिहाज़ा, हमें स्थिति को अतिरेक से न देखते हुए और सेना की क्षमता पर पूरा भरोसा रखते हुए स्थिति का विश्लेषण करना होगा। कोई ताज्जुब नहीं कि एक और भौंडा कुतर्क देते हुए आज के सीमा-संकट को भी नेहरू पर डाल दिया जाए।
भारत के विदेश मंत्री और करियर-डिप्लोमेट एस. जयशंकर की ताज़ा किताब ‘द इंडिया वे-स्ट्रेटेजीज फॉर एन अनसर्टेन वर्ल्ड’ में नेहरू पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से आरोप लगाते हुए कहा गया कि उस समय की सरकार हालात का सही जायजा न लेते हुए अवसर खोती रही।
जयशंकर ने पाकिस्तान या उसकी डिप्लोमेसी को भी बेहतर बताया और इस संदर्भ में कहा कि इस वजह से वैश्विक परिदृश्य में शक्ति-संतुलन में पाकिस्तान दशकों तक मजबूत बना रहा। यह भी कहा कि जम्मू और कश्मीर के एक भाग को पाकिस्तान द्वारा हड़पे जाने को भी तत्कालीन शासकों ने हल्के में लिया।
किताब में विदेश मंत्री ने बताया कि “पॉलिटिकल रोमांटिसिज्म” की वजह से तत्कालीन शासन को चीन, उसकी 1949 की क्रांति और उसके बाद साम्यवादी राष्ट्रवाद की सही समझ नहीं थी और न ही चीन के 1978 के बाद के विकास की। इस तरह के आरोप वर्तमान परिदृश्य में सत्ताधारी दल के लिए बड़े काम के होंगे क्योंकि लद्दाख में तनाव अकल्पनीय रूप से बढ़ा है।
विदेश मंत्री की अभिजात्यवर्गीय समझ
किताब में विदेश मंत्री ने आजाद भारत में अपने पुरुषार्थ को जागृत करने वाली चार घटनाओं का जिक्र किया है। 1971 का बांग्लादेश युद्ध, 1991 का उदारीकरण, 1998 का परमाणु पोखरण परीक्षण और 2008 का परमाणु समझौता। यानी तीन पुरुषार्थ- इंदिरा गाँधी, नरसिम्हा राव, मनमोहन काल के और एक वाजपेयी काल का। लेकिन एक भी नेहरू युग का नहीं। फिर किताब के बाकी हिस्से में तो “मोदी-शासन का गुणगान और कैसे इस काल में वैश्विक परिदृश्य में मोदी-इफ़ेक्ट ने भारत को शिखर पहुँचाया” अदि का जिक्र है।
इन बातों को भूल गए लेखक?
किताब में लेखक की अभिजात्यवर्गीय सोच खुलकर सामने आती है। कुछ सत्य उनकी नज़रों से छूट गये। 1960 के दशक में भयंकर भुखमरी झेलते हुए अगर नार्मन बोर्लोग को बुलाकर 1963 में मैक्सिकन बौनी प्रजाति का गेहूं बीज हासिल न किया गया होता, अगर भारतीय वैज्ञानिकों ने पूर्वी एशियाई देशों की बौनी प्रजाति के धान को भारतीय बीजों के साथ वर्ण-संकर न पैदा किया होता या सोनालिका क्रांति न हुई होती तो देश आज खाद्यान्न निर्यातक न होता और कोरोना का संकट इतनी आसानी से न झेल रहे होते।
नेहरू-निंदा में लेखक महोदय यह भी भूल गए कि पाकिस्तान बनने से गेहूं पैदा करने वाला बड़ा क्षेत्र भारत से बाहर हो गया। निंदक भूल जाते हैं कि अंग्रेजों ने आजादी के पूर्व के 50 सालों में कृषि पर एक पैसा भी खर्च नहीं किया था लिहाज़ा अनाज का उत्पादन मात्र 5 कुंतल प्रति हेक्टेयर था जो आज 35 कुंतल है।
1970 तक अनाज में आत्म-निर्भरता के साथ ही दुग्ध-क्रांति शुरू हुई। आज दुनिया में हम सबसे बड़े उत्पादक हैं। सन 1968 में कुल 14 करोड़ हेक्टेयर में खेती होती थी जो आज भी उतनी ही है। सिंचाई में भी पिछले 20 सालों में कोई खास वृद्धि नहीं हुई है। फिर 1991 का आर्थिक सुधार केवल औद्योगिक क्षेत्र में था न कि कृषि में।
इंदिरा गांधी 18 मई, 1974 को पोखरण में एक परमाणु टेस्ट कर चुकी थीं। नेहरू का सार्वजनिक क्षेत्र में स्टील, भाखड़ा डैम, दुनिया के पांच समृद्ध देशों की मदद से पांच आईआईटी लाना कोई सामान्य योगदान नहीं था।
वर्तमान विकास मॉडल की खामी
उत्तर भारत के राज्य, खासकर, बिहार और उत्तर प्रदेश, बच्चे भी ज्यादा पैदा कर रहे हैं और फिर उन्हें तमाम दशकों से कुपोषण से अंतिम सांस लेने की स्थिति तक बरकरार रखने में भी अव्वल हैं। शायद पांच बसंत भी न देख सकने वाले इन बच्चों में वाक-शक्ति होती तो वे मरने से पहले चीख-चीख कर यही कहते, “अगर कुपोषण से ही मरने देना था तो कम से कम पैदा तो न करते (यह तो तुम्हारे हाथ में था)।”
एक रिपोर्ट बताती है कि बेहतर प्रशासन देने वाले दक्षिण के राज्य, खासकर केरल और तमिलनाडु, बेहतर स्थिति में हैं जबकि उत्तर भारत के राज्यों में विकास न होना, सामाजिक अज्ञानता और सत्ताधारी वर्ग का शाश्वत आपराधिक उनिंदापन इस डरावनी स्थिति के जिम्मेदार बने हुए हैं।
आश्चर्य यह है कि बिहार में एक ही पार्टी-गठबंधन और व्यक्ति का शासन लगभग डेढ़ दशकों से चल रहा है लेकिन सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन या सांप्रदायिक दंगे होते हैं तो इस बात पर कि रामनवमी पर जुलूस या मुहर्रम का ताजिया किस रास्ते से जाएगा या अमुक जाति की “उपेक्षा” हो रही है।
पुल उद्घाटन से पहले गिर जाते हैं, मानव विकास के हर पैमाने पर बिहार सबसे नीचे है लेकिन राज्य में चुनाव के कारण प्रधानमंत्री प्रदेश के मुख्यमंत्री की तारीफ में कसीदे काढ़ रहे हैं और मुख्यमंत्री मोदी के नेतृत्व को “न भूतो न भविष्यति” बता रहे है। नानक साहेब के दोहे- “एक ने कही दूजे ने मानी, नानक दोनों ब्रह्म ज्ञानी” की तरह।
पांच वर्ष से कम आयु में ही मरने वाले कुल बच्चों में कुपोषण से मरने वाले बच्चों का प्रतिशत सबसे अधिक बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में है जबकि सबसे कम केरल, मेघालय, तमिलनाडु और मिजोरम व गोवा में है।
यूपी, बिहार में बुरा हाल
हाल में आयी एक अन्य सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, बिहार पिछले 15 वर्षों के “सुशासन” में परिवार नियोजन अभियान में बुरी तरह असफ़ल रहा (या सोता रहा क्योंकि इस राज्य में 46 प्रतिशत कंडोम की कमी है)।
नीति आयोग ने 23 पैमानों पर आधारित सालाना स्वास्थ्य सूचकांक हाल ही में जारी किया। इनमें उत्तर प्रदेश और बिहार सबसे निचले पायदान पर विराजमान रहे। जो बात किसी विश्लेषक ने नहीं देखी वह यह कि सन 2015-16 के मुकाबले सन 2017-18 में स्वास्थ्य सेवाओं में गिरावट बिहार में सबसे ज्यादा (6.35 प्रतिशत) रही। ये उत्तर भारत के वही राज्य हैं जो स्वास्थ्य और शिक्षा पर प्रति-व्यक्ति सबसे कम खर्च करते हैं।
देश का विकास बगैर कृषि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का बनाये संभव नहीं है। किसान केवल अनाज पैदा करके अलाभकर खेती ही करता रहेगा जबतक कि साथ में दुग्ध, मत्स्य, कुक्कुट या अन्य व्यवसाय शुरू नहीं करता। देश की 68% प्रतिशत आबादी ग्रामीण है और लगभग 55 करोड़ लोग कृषि श्रमिक हैं।
चिंता यह है कि इन सब का दोषी 56 साल पहले दुनिया से विदा हुए नेहरू को नहीं ठहराया जा सकता। और अगर वे हैं भी तो उसे दुरुस्त करने काम तो 12 साल के भारतीय जनता पार्टी के शासन-काल में किया जा सकता था। लेकिन नेहरू-इंदिरा काल के बाद से कृषि क्षेत्र में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं हुआ।
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