हाल के अपने ‘कृत्यों’ की वजह से भारतीय मीडिया जनता की ज़बरदस्त आलोचना का शिकार है। एक तरफ़ ‘गोदी मीडिया’ है जो ‘राष्ट्र-भक्ति’ के नये रसधार में डूबते-उतराते एक दाढ़ीवाले और एक तिलक वाले को बैठा कर एक-दूसरे के ख़िलाफ़ रोज़ाना ‘प्राइम-टाइम’ में धोबी-पछाड़ दाँव का प्रयोग करता है तो दूसरी ओर ‘सेक्युलर’ मीडिया का छोटा-सा लेकिन ‘जहर से स्याह हुआ’ वर्ग है जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हर काम में खोट नज़र आता है। मसलन, मोदी के कपड़े, मोदी की विदेश-यात्रा, मोदी का चीनी नेता जिनपिंग को झूला झुलाना और फिर उसी चीन से युद्ध की तैयारी करना असफलता की पराकाष्ठ लगती है। मोदी की ग़लतियों से अगर जनता को मुतास्सिर करना ही है तो फ़सल बीमा योजना, स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया की असफलता को सरकार के ही आँकड़ों से सिद्ध कर सकते हैं पर इसके लिए पढ़ाई करनी पड़ेगी, जो भडैती की आदत पड़ने पर ख़त्म हो जाती है।
मोदी के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलने वाला भी उतना ही अनपढ़ है। वह तैयार बैठा होता है कि कोई भूख से मरे और वह आरटीआई से पीएमओ में चाय-पानी का ख़र्च (हालाँकि वह दिया नहीं जाता) दिखा कर सरकार को अयोग्य घोषित करे अपनी ख़ास व्यंग्यात्मक शैली में हल्की मुस्कराहट छोड़ते हुए। दोनों पक्षों का ‘खूँटा यहीं गड़ेगा’ का भाव है। ‘गोदी मीडिया’ के दुलारों को सरकार भाँति-भाँति के अवार्ड या सरकारी पदों से दुलार रही है तो ‘सेक्युलर मीडिया’ के झंडाबरदारों को अंतरराष्ट्रीय या ग़ैर-भाजपा-प्रेरित संस्थाएँ ‘सम्मान’ से पुचकार रही हैं।
कुल मिलाकर मीडिया के एक बड़े वर्ग का भांडपन तब अपने चरम पर दिखाई देता है जब अमिताभ बच्चन का कोरोना मुतवातिर एक हफ़्ते तक देश की सबसे बड़ी न्यूज़ बना रहता है जिसमें अरबों कमाने वाले यह एक्टर बचपन में नाश्ता क्या करते थे, से अस्पताल में नर्सों से भी कैसे अपनेपन से दवा लेते हैं, यानी इनका समाज के प्रति कैसा उदात्त भाव है, बताया जाता है। कोई ताज्जुब नहीं कि कुछ दिन अमिताभ और अस्पताल में रह जाते तो गाँधी और उनके बीच तुलना के लिए कुछ स्टूडियो डिस्कशन्स करा दिए जाते।
एक्टर सुशांत का मरना दुनिया का सबसे बड़ा जलजला बन हफ़्तों तक हमारी बौद्धिक सोच की जड़ों को मट्ठा देता रहता है। भारतीय मीडिया ऐसा केवल इसलिए नहीं है कि यह अपने लाभ के लिए कुछ भी करने को तैयार है। यह सब इसलिए भी है कि मीडिया में शीर्ष पर एक बड़ा वर्ग बैठा है जो वहाँ बैठने की अर्हता दूर-दूर तक नहीं रखता।
आज इन शीर्ष पदों पर बैठे और देश भर में पहचाने जाने संपादकों-एंकरों में से अधिकांश को वारेन हेस्टिंग्स और वारेन बफेट में से कौन पहले दुनिया में आया, शायद ही मालूम हो। चूँकि ये नहीं जानते कि भारत में कितना अनाज पैदा होता है या डाई-अमोनियम फॉस्फेट बम बनाने के काम आता है या खेत में डालने के या संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आठ युक्तियुक्त निर्बंध (रिज़नेबल रेस्ट्रिक्शन्स) कौन से हैं लिहाज़ा ये न्यूज़ के चुनाव में भी अमिताभ के कोरोना और सुशांत की मौत से ऊपर नहीं बढ़ पाते।
देश की कितनी समझ?
खेती में प्रति हेक्टेयर लागत मूल्य का बढ़ना भी किसानों के लिए क़यामत बरपा सकता है, इनकी समझ में हीं नहीं आता। लिहाज़ा नए अध्यादेश के तहत किस तरह उद्योगपति देश की कृषि, उत्पादन और उसकी प्रकृति पर पूरा नियंत्रण करके मोनोपोली का नया इतिहास रचने जा रहे हैं, यह भी उनकी समझ से बाहर है। अगर देश की जीडीपी विकास-दर बढ़ गयी है तो गोदी मीडिया ‘मोदी-भक्ति’ के डेलिरियम में चीखने लगेगा क्योंकि उसे यह नहीं मालूम कि मानव विकास सूचकांक (जो विकास का असली पैमाना है) क्या होता है। अगर इस पैमाने पर भारत गिर भी जाए तो शाहरुख़ –सलमान अनबन से काम चला लेंगे। अगर नवम्बर-दिसम्बर माह में डीएपी खाद का संकट है तो लाखों रुपये महीने की पगार पाने वाले इन एडिटरों के लिये यह बात सिर के ऊपर से निकल जाएगी कि किसानों का क्या हश्र होगा।
आसान है एडिटर के लिए कि रिपोर्टर को किसी एक्ट्रेस के घर के सामने भेज कर ओबी लगा कर तीन घंटे समाज को बताता रहे कि ‘आजकल किस एक्टर से चल रहा है’। इसमें बीच-बीच में ‘मुन्नी कैसे बदनाम हुई’ का ठुमका दिखा कर एक ओर टीआरपी को लूटा जा सकता है और दूसरी ओर आम दर्शक की सोच को और जड़वत किया जा सकता है।
कोई आँकड़ा जानने या संविधान पढ़ने की ज़रूरत ही नहीं है। ये या इनका मालिक राज्यसभा की सदस्यता या उच्च नागरिक अवार्ड को जीवन की सार्थकता समझते हैं लिहाज़ा मोदी में इन्हें ‘रब’ दिखता है। छह साल पहले दूसरा धड़ा हिन्दुओं को गरिया कर आत्मसंतोष से लबरेज हो जाता था।
दुनिया भर के प्रजातंत्र में तीन तरह की संस्थाएँ होती हैं। पहला; औपचारिक, दूसरा; अर्ध-औपचारिक तथा तीसरा; अनौपचारिक। कार्यपालिका, न्यायपालिका और कुछ प्रक्रियाओं में विधायिका औपचारिक और मूर्त सस्थाएँ होती हैं। इनके पास जनता का पैसा ख़र्च करने और उनके लिए नीति/क़ानून बनाने का अधिकार होता है या इनके फ़ैसलों का समाज को आप्त-वचन मान कर अनुपालन करना होता है और न करने पर सज़ा का प्रावधान होता है। इन संस्थाओं को चलाने वालों से सर्वोच्च स्तर की नैतिकता की अपेक्षा होती है।
दूसरा; अर्ध-औपचारिक संस्थाओं में कुछ अर्ध-सरकारी संस्थाएँ, चुना हुआ म्युनिसिपल कॉरपोरेशन, ज़िला परिषद् या ब्लॉक समितियाँ आती हैं। लिहाज़ा ज़िला-परिषद् के चेयरमैन से लेकर ग्राम-प्रधान तक से नैतिक मूल्यों पर खरा उतरने की दरकार होती है।
तीसरा; पूर्ण अनौपचारिक संस्थाएँ। ये वे सस्थाएँ हैं जिनकी भूमिका तो समाज में होती है लेकिन इन पर संस्था के रूप में कोई क़ानूनी अंकुश लगाना संभव नहीं होता क्योंकि इनकी सामूहिक स्वतन्त्रता भी व्यक्तिगत स्वातंत्र्य का विस्तार भर होती है। यानी जो नैतिकता का तकाज़ा सामान्य नागरिक के लिए होता है वही इनके लिए भी। उदाहरण: भारत के संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (अ) जो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता देता है, वह सभी नागरिकों के लिए है न कि किसी मीडिया के व्यक्ति या संस्था के लिए।
प्रोफ़ेशनल एथिक्स
एक डॉक्टर के इलाज़ की गुणवत्ता या वकील के केस लड़ने के तरीक़े को चुनौती देना व्यावहारिक रूप से असम्भव होता है क्योंकि यह उसके बौद्धिक समझ पर अंकुश लगाना है। बुखार सामान्य जुकाम में होता है, कोरोना, टीबी और कैंसर में भी। एक ग़रीब रोगी को पहले ही दिन डॉक्टर महंगे आरटी-पीसीआर या जीन-एक्सपर्ट मॉलिक्यूलर टेस्ट के लिए नहीं भेजता। लेकिन अनैतिक डॉक्टर अगर ये जाँच करवाता है और निजी पैथोलॉजी लैब से कमीशन लेता है तो दुनिया का कोई क़ानून उसके प्रोफ़ेशनल फ़ैसले पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा सकता। वकील मुकदमे में कौन सा पक्ष बहस में उठाएगा और कैसे उसके ग़लत बहस से मुवक्किल को जेल हो गयी, इस पर कोई प्रश्न नहीं कर सकता।
कोई पत्रकार सुशांत को कितना दिखाए यह प्रोफ़ेशनल एथिक्स का प्रश्न नहीं हो सकता वैसे ही, जैसे एक चैनल अगर भारत के बजट के दिन माइकेल जैक्सन का डांस दिखाता है तो कोई उसके फ़ैसले पर उंगली नहीं उठा सकता।
चुनाव में कोई मीडिया हाउस अन्य सभी चैनलों या अख़बारों से अलग अगर लगातार किसी एक पार्टी की भावी जीत की ख़बर परोस रहा है तो कोई भी उसकी समझ को क़ानूनन ग़लत नहीं ठहरा सकता। भले ही चुनाव के बाद वह पत्रकार या मालिक राज्य-सभा का सदस्य बना दिया जाए या नागरिक सम्मान से नवाज़ा जाए या उस पार्टी की सरकार उसे कोई बड़ा विज्ञापन दे दे। यहाँ तक कि इस पार्टी की सरकार किसी बड़े उद्योगपति से इस मीडिया हाउस में पैसा लगाने का इशारा भी कर सकती है। कैसे समाज इन पर अंकुश लगा सकता है?
केवल एक ही तरीक़ा है। समाज का अपना निष्पक्ष विवेक, अपनी वैज्ञानिक तर्क-शक्ति जो विश्वसनीयता की तराजू पर मीडिया की संस्थाओं और रिपोर्टों/संपादकों को तौले और तत्काल उनके अविश्वसनीय होने पर उन्हें ख़ारिज करे। समाज का यह रवैया ऐसे अनैतिक संस्थाओं और पत्रकारों का अकाल प्रोफ़ेशनल मौत का सबब बनेगा। पर क्या समाज निष्पक्ष ख़बरें चाहता है? क्या समाज के लोगों में आज अनवरत मोदी की तारीफ़ सुनने या शाश्वत बुराई सुनने का शौक नहीं है?
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