पापड़ खाइए, कोरोना भगाइए!
इस भाव का सामूहिक क्रियात्मक पहलू है- 'गौमांस तलाशना' और 'गौ माता' की रक्षा करते हुए स्व-नियुक्त गौ-रक्षकों द्वारा अख़लाक, पहलू, जुनैद और तबरेज़ को जान से 'संगसार' कर देना। पापड़ खा कर कोरोना भगाने की सलाह भी इसी राष्ट्रवाद का अ-बौद्धिक उत्कर्ष है। सत्ता में रहने के लिए इसकी बेहद ज़रूरत है क्योंकि कुछ राष्ट्रद्रोही एक नयी चेतना लाना चाहते हैं जो वैज्ञानिक सोच पर आधारित है और जिसमें 'राजा' से उसके कार्यों, अ-कार्यों और अप-कार्यों का लेखा-जोखा प्रजा माँगती है। ज़ीहिर है, ऐसा करना राष्ट्रद्रोह नहीं तो क्या कहेंगे?चौकीदार
जहाँ प्रजा से 'कोऊ नृप होंहिं हमें का हानि' के भाव में राजा के कार्यों को बेनियाजी (निर्लिप्तता) के भाव से देखने का चलन हो, वहाँ क्या राजा इसलिए हिसाब देगा क्योंकि जनता ने उसे 'चुना' है? क्या जनता को मालूम नहीं कि उसका तो जीवन ही इसी प्रजा के 'चौकीदार' के रूप में हुआ है।अब समझ में आ गया होगा कि कैसे एक सर्वे में भूखे –नंगे लोगों वाले भारत में आज छह साल बाद भी 'मोदी' की मक़बूलियत अपूर्व रूप से 77 फ़ीसदी पर जा पहुँची है, जबकि देश में बेरोज़गारी, कोरोना और गिरती अर्थव्यवस्था यानी विकास के सभी पैमानों पर देश पिछड़ता जा रहा है।
असली विकास!
प्रजा जिस 'विकास' को ही अपना कल्याण मान कर उससे मुतास्सिर हो कर उस राजा को फिर वोट देती है, वह विकास अलग है। यह भारत का वह विकास है जिसमें राजा से मंदिर बनाने, स्वयं को पूर्व में उन्हीं जैसा ग़रीब बताने, विदेशों में शान बढ़ाने और 5 रफ़ाल से दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी ताक़त 'ड्रैगन' को बकौल मीडिया 'दुम दबा कर कांपने' को मजबूर कर सकता है।देश सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में दुनिया में पांचवें स्थान पर पहुँच गया है फिर भी कुछ 'राष्ट्रद्रोही' मानव विकास सूचकांक के पैमाने पर भारत के 130वें स्थान पर बने रहने पर छाती पीटते हैं।
'पैसा तो हाथ का मैल है'
'पैसा तो हाथ का मैल है' या 'हमें जितना भगवान ने दिया उसी से संतोष है' कह कर यह प्रजा राजा को दोष-मुक्त कर देती है क्योंकि उसकी नियति तो राजा नहीं बदल सकता न।अंबानी का धन बढ़ता है, पर घुरहू-पतवारू की नौकरी कोरोना के नाम पर चली जाती है तो यह तो पिछले जनम का कर्म है, इसमें कोई मोदी क्या विधि का विधान बदल देगा?
गोबर-टाइप प्रजा
आखिर यह प्रेमचंद के गोदान वाले गोबर-टाइप प्रजा की अज्ञानता ही तो कही जायेगी जो यह भी नहीं जानती कि इन्हीं पिछले जनम में अच्छे कर्म करने वाला एक छोटा वर्ग सोने के भाव बढ़ने पर प्लैटिनम खरीदने लगा है और शेयर मार्किट में पूँजी निवेश बढ़ाने लगता है, क्योंकि सेंसेक्स नीचे आ गया है और आगे अच्छे आसार हैं।लिहाज़ा, दोनों समुदायों का ग़रीब अब अपना बेरोज़गार होना भूल चुका है – ‘पैसा तो हाथ का मैल है’ के भाव।
मोदी की मक़बूलियत
मोदी की मक़बूलियत बढ़ेगी। समाजशास्त्रियों, राजनीति के छात्रों और मीडिया के विश्लेषकों को चश्मा बदलना पड़ेगा। जो करोड़ों प्रवासी मज़दूर कोरोना काल के लॉकडाउन में भाग कर घर गए थे, वे कोरोना से नहीं आसन्न पेट की आग के डर से हज़ारों किलोमीटर पैदल चले और कई मरे। अगर वे अब फिर शहर लौटे हैं तो भी कोरोना के ख़ौफ़ से नहीं, उसी पेट की आग ने उन्हें वापस शहरों में भेजा है।बाढ़ ने गोबर-झुनिया के घर में बचा राशन हीं नहीं खड़ी खरीफ की फसल भी लील ली। दुष्यंत कुमार भारतीय समाज की इस मनोदशा को बहुत पहले ही समझ गए थे। तभी तो लिखा था :
न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढक लेंगे!
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए!!
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