यूक्रेन को लेकर रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं और यूपी के चुनावों के बीच कॉमन क्या तलाश किया जा सकता है? जो समस्या यूक्रेन के सिलसिले में पुतिन की है क्या वही यूपी के सिलसिले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी नहीं मानी जा सकती? इतिहास और भूगोल का कुछ ऐसा संयोग बना है कि यूक्रेन और यूपी एक ही समय पर घटित हो रहे हैं, हालाँकि दोनों स्थानों के बीच पाँच हज़ार किलो मीटर से अधिक की दूरी है। दुनिया के दो महानायकों की महत्वाकांक्षाएँ एक जैसी हो जाएँ तो ज़मीनी दूरियाँ स्वत: समाप्त हो जाती हैं।
यूपी के चुनावी ‘युद्ध’ को यूक्रेन के संदर्भ में पुतिन के चश्मे से देखा जाए तो कुछ नया ज्ञान मिल सकता है जो इस सतही निष्कर्ष से भिन्न होगा कि यूपी की मौजूदा लड़ाई दो दलों के बीच एक राज्य का चुनाव जीतने भर तक ही सीमित है। यूपी के राजनीतिक युद्ध को लेकर उसी तरह की आशंकाएँ व्यक्त की जा रही हैं जो यूक्रेन के संदर्भ में पुतिन की महत्वाकांक्षाओं में नज़र आती हैं।
पुतिन का सपना उस पुराने सोवियत संघ को फिर से साकार करने का है जो दिसम्बर 1991 में इसलिए बिखरकर अलग-अलग स्वतंत्र देशों में बंट गया था कि तत्कालीन राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचोफ ने तब अविभाजित देश में बहु-दलीय व्यवस्था और निष्पक्ष चुनावों के ज़रिए लोकतांत्रिक व्यवस्था क़ायम करने की पहल की थी। पुतिन का पिछले दो दशकों का सपना पश्चिमी लोकतंत्र के प्रभाव से पूरी तरह अछूते अधिनायकवादी रूस के साये में 1991 के पहले के सोवियत संघ को फिर से पुनर्जीवित करने का है। यूक्रेन पर हमला उसी सपने को पूरा करने का एक भाग है। यूक्रेन के बाद किसी और देश का नम्बर आ सकता है।
पुतिन को भय इस बात का है कि लगभग पाँच करोड़ की आबादी वाला यूक्रेन अगर पश्चिमी देशों के ख़ेमे (नाटो-उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) में शामिल हो गया तो रूस की सीमा से लगे एक देश में पश्चिमी यूरोप और अमेरिका जैसा प्रजातंत्र क़ायम हो जाएगा। यूक्रेन में नाटो सेनाओं की उपस्थिति से रूस की वर्तमान अधिनायकवादी व्यवस्था के लिए ख़तरा उत्पन्न हो जाएगा। पुतिन तो अपने लिए पश्चिमी यूरोप की टक्कर का साम्राज्य पूर्वी यूरोप में क़ायम करना चाहते हैं।
यूपी को लेकर भारतीय जनता पार्टी की चिंता बस यहीं तक सीमित नहीं है कि एक और राज्य उसकी झोली से बाहर टपक जाएगा। चिंता ज़्यादा बड़ी है।
यूपी (अयोध्या, काशी, मथुरा) बीजेपी के सपनों के हिंदू राष्ट्र का शीर्ष तीर्थ स्थल है। बीजेपी का सपना उत्तर प्रदेश के रास्ते न सिर्फ़ देश को उसका प्रधानमंत्री ही देना है, उसे एक हिंदू राष्ट्र घोषित करना भी है जिसकी शुरुआत मोदी द्वारा पहले अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण के लिए भूमि पूजन और फिर वाराणसी में काशी-विश्वनाथ कॉरिडोर के शुभारम्भ से की जा चुकी है। मथुरा का मिशन तो अभी बाक़ी ही है। बीजेपी के लिए पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर सम्मिलित रूप से भी यूपी की जगह नहीं ले सकते हैं।
बीजेपी की चिंता को पुतिन के सपनों के साथ जोड़कर यूँ देखा जा सकता है कि लखनऊ में एक विपक्षी गठबंधन की सरकार के क़ाबिज़ हो जाने का अर्थ पच्चीस करोड़ की आबादी वाले देश के सबसे बड़े राज्य (भारत को नहीं गिनें तो आबादी के लिहाज़ से दुनिया के सिर्फ़ तीन देश ही यूपी से ऊपर हैं: चीन, अमेरिका और इंडोनेशिया) में धर्म संसदों के इरादों से अलग एक धर्म-निरपेक्ष शासन व्यवस्था फिर से क़ायम हो जाने की इजाज़त दे देना होगा। उस स्थिति में तो राज्य की पाँच करोड़ मुसलिम आबादी भी हरिद्वार की संसद में उसका अस्तित्व ही समाप्त कर दिए जाने के आह्वान के बाद पहली बार राहत की साँस ले सकेगी।
अखिलेश यादव की पांच साल बाद सत्ता में वापसी का बीजेपी के लिए यह भी मतलब होगा कि राजधानी दिल्ली से लगी यूपी की सीमाओं में लोकतान्त्रिक मूल्यों में आस्था रखने वाले सम्मिलित विपक्ष को केंद्र के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए प्रवेश की छूट प्रदान कर देना। एक विपक्षी सरकार तो पहले से ही केंद्र सरकार की नाक के नीचे मौजूद है। पुतिन अपने साम्यवाद के लिए जो ख़तरा यूक्रेन को लेकर महसूस करते हैं वही मोदी अपनी सत्ता और हिंदू राष्ट्रवाद की स्थापना को लेकर यूपी में करते हैं। यही कारण है कि रूस जैसी महाशक्ति ने जिस तरह यूक्रेन के ख़िलाफ़ अपनी सम्पूर्ण सामरिक शक्ति झोंक दी है, दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी ने भी अपनी पूरी ताक़त और क्षमता एक छोटे से क्षेत्रीय दल को सत्ता में आने देने से रोकने में लगा रखी है।
यूपी और यूक्रेन दोनों ही इस समय साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं के निशाने पर हैं। भारत दुनिया के सामने यूक्रेन संकट के शांतिपूर्ण समाधान की बातें करता है पर यूपी में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री अपनी चुनावी सभाओं में दुश्मनों के ख़िलाफ़ युद्धों के दौरान बरती जाने वाली भाषा का प्रयोग करते हैं। दुनिया के लोकतांत्रिक मुल्क यूक्रेन के घटनाक्रम की ओर भय की नज़रों से देख रहे हैं।
भारत के विपक्षी दल और ग़ैर-भाजपाई सरकारें भी किसी अनहोनी की आशंका के साथ प्रत्येक चरण के मतदान की चापों को गिन रही हैं।
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