सर्वोच्च न्यायालय ने जन-प्रदर्शनों के बारे में जो ताज़ा फ़ैसला किया है, उससे उन याचिकाकर्ताओं को निराशा ज़रूर हुई होगी, जो विरोध-प्रदर्शन के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं। यदि किसी राज्य में जनता को विरोध-प्रदर्शन का अधिकार न हो तो वह लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। विपक्ष या विरोध तो लोकतंत्र की मोटरकार में ब्रेक की तरह होता है। विरोधरहित लोकतंत्र तो बिना ब्रेक की गाड़ी बन जाता है। अदालत ने विरोध-प्रदर्शन, धरने, अनशन, जुलूस आदि को भारतीय नागरिकों का मूलभूत अधिकार माना है लेकिन उसने यह भी साफ़-साफ़ कहा है कि उक्त सभी कार्यों से जनता को लंबे समय तक असुविधा होती है तो उन्हें रोकना सरकार का अधिकार है।
लोकतंत्र में प्रदर्शन का अधिकार, पर किसका विरोध, क्या जनता का?
- विचार
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- 15 Feb, 2021

शाहीन बाग़ और किसानों जैसे धरने यदि हफ्तों तक चलते रहते हैं तो देश को अरबों रुपये का नुक़सान हो जाता है। रेल रोको अभियान सड़कबंद धरनों से भी ज़्यादा दुखदायी सिद्ध होते हैं। ऐसे प्रदर्शनकारी जनता की भी सहानुभूति खो देते हैं। उनसे कोई पूछे कि आप किसका विरोध कर रहे हैं, सरकार का या जनता का?