यह ठीक है कि अमेरिका, चीन और कुछ यूरोपीय राष्ट्र आर्थिक क्षेत्र में भारत से आगे हैं, लेकिन इस वक्त दुनिया में किसी एक राष्ट्र का डंका सबसे ज्यादा जोर से बज रहा है तो वह भारत है। दुनिया के 15 देशों में भारतीय मूल के नागरिक या तो वहां के सर्वोच्च पदों पर हैं या उनके बिल्कुल निकट हैं। या तो वे उन देशों के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री हैं या सर्वोच्च न्यायाधीश हैं या सर्वोच्च नौकरशाह हैं या उच्चपदस्थ मंत्री आदि हैं।
पांच राष्ट्रों के शासनाध्यक्ष भारतीय मूल के हैं। तीन उप-शासनाध्यक्ष, 59 केंद्रीय मंत्री, 76 सांसद और विधायक, 10 राजदूत, 4 सर्वोच्च न्यायाधीश, 4 सर्वोच्च बैंक प्रमुख और दो महावाणिज्य दूत भारतीय मूल के हैं। इनमें दक्षिण एशिया के पड़ोसी देशों को नहीं जोड़ा गया है। यदि उन सबको भी जोड़ लिया जाए तो उक्त 200 की संख्या दोगुनी-तिगुनी हो सकती है।
इस समय लगभग साढ़े तीन करोड़ भारतीय मूल के नागरिक दुनिया में दनदना रहे हैं। जिन-जिन देशों में वे गए हैं, वहां उनकी हैसियत क्या थी? वे कभी गए थे वहां मजदूरी, शिक्षा और रोजगार वगैरह की तलाश में लेकिन वे अब उन देशों की रीढ़ बन गए हैं। आज यदि ये साढ़े तीन करोड़ भारतीय अचानक भारत लौट आने का फैसला कर लें तो अमेरिका-जैसे कई संपन्न देशों की अर्थ-व्यवस्था घुटनों के बल रेंगने लगेगी।
इस समय भारतीय लोग अमेरिका के सबसे संपन्न, सबसे सुशिक्षित और सबसे सुसंस्कृत लोग माने जाते हैं। अमेरिका सहित कई देशों में भारतीय लोग ज्ञान-विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्रों में सर्वोच्च स्थानों पर प्रतिष्ठित हैं। उनकी जीवन-शैली और संस्कृति वहां किसी योजनाबद्ध प्रचारतंत्र के बिना ही लोकप्रिय होती चली जा रही है।
भारत एक अघोषित विश्व-गुरू बन गया है। भारतीयता का प्रचार करने के लिए उसे तोप, तलवार, बंदूक और लालच का सहारा नहीं लेना पड़ रहा है। विदेशों में बसे भारतीय अपने मूल देश की अर्थ-व्यवस्था को मजबूत बनाने में तो भरसक योगदान करते ही हैं, वे लोग भारतीय विदेश नीति के क्षेत्र में भी हमारे बहुत बड़े सहायक सिद्ध होते हैं।
कभी-कभी भारत के आंतरिक मामलों पर उनका बोल पड़ना हमें आपत्तिजनक लग जाता है लेकिन उनके लिए वह स्वाभाविक है। इसका हमें ज्यादा बुरा नहीं मानना चाहिए। हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि भारत को ऐसा बनाएं कि यहां से प्रतिभा-पलायन कम से कम हो।
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