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भगत सिंह को मानना यानी सरकार की नज़र में देशद्रोही हो जाना!

आरएसएस कम्युनिज़्म को भारत का शत्रु मानता रहा है और भगत सिंह बोल्शेविक क्रांति और रूसी क्रांति के नायक लेनिन के ज़बरदस्त प्रशंसक थे और भारत में मज़दूरों-किसानों के राज की खुली वक़ालत करते थे।
पंकज श्रीवास्तव

भगत सिंह के वैचारिक नेतृत्व से गठित हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन के सदस्य रहे शिव वर्मा वह आख़िरी क्रांतिकारी थे जो कालापानी से ज़िंदा वापस आये थे। उन्होंने क्रांतिकारियों के बारे में तमाम प्रामाणिक संस्मरण लिखे हैं जिनसे पता चलता है कि भगत सिंह अंतत: बुलेट नहीं, बुलेटिन यानी क्रांतिकारी विचारों को जनता के बीच ले जाने को क्रांति के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ मानने लगे थे।

शिव वर्मा ने लिखा है कि जब काकोरी कांड के नायकों को छुड़ाने की योजना बनाने के लिए भगत सिंह कानपुर आये तो डीएवी कॉलेज के हॉस्टल में उनके साथ ही रहे। यह एक बड़ा 'एक्शन' था (जो बाद में संभव नहीं हो पाया) जिसमें दुबले-पतले शिव वर्मा को नहीं चुना गया था और वह बहुत निराश थे। उनकी उदासी देखकर भगत सिंह ने कहा- ‘हम लोग तो आज़ादी के इस संघर्ष में अपनी लड़ाई लड़ते हुए अपने प्राण त्याग देंगे, पर तुम जैसे मेरे साथियों का काम बहुत जटिल होने वाला है। यह काम है आज़ाद भारत में भी ज़ुल्म और ग़लत बातों के ख़िलाफ़ लड़ते रहना।’

ज़ाहिर है, भगत सिंह को अंग्रेज़ों को भारत से भगाने भर में रुचि नहीं थी। उन्होंने बार-बार कहा, ‘हमारी लड़ाई तब तक जारी रहेगी जब तक शोषण का कोई भी रूप मौजूद रहेगा। इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि लूटने वाले गोरे हैं या काले।’

निधन से लगभग एक साल पहले, 9 मार्च 1996 को 'यूनाइटेड न्यूज़  ऑफ़ इण्डिया एम्प्लॉयीज फ़ेडरेशन' के सातवें राष्ट्रीय सम्मलेन के उद्घाटन के लिए शिव वर्मा ने लिखित भाषण भेजा था। बीमारी की वजह से वह ख़ुद नहीं जा सके थे। इस भाषण में उन्होंने लिखा-

‘हमारे क्रांतिकारी स्वतंत्रता संग्राम के समय, हमें अपने विचार और उद्देश्य आम जनता तक पहुँचाने में मीडिया के समर्थन का अभाव प्रतीत हुआ था। शहीदे आजम भगत सिंह को इसी कारण आत्म-समर्पण करने का निर्णय लिया गया कि हमारे विचार एवं उद्देश्य आम लोगों तक पहुँच सकें। 15 अगस्त 1947 को हमें विदेशी शासकों से स्वतंत्रता तो मिल गयी किन्तु आज भी वैचारिक स्वतंत्रता नहीं मिल सकी है क्योंकि हमारे अख़बार तथा मीडिया पर चंद पूंजीवादी घरानों का एकाधिकार है।...  किसी पत्रकार ने लिखा था कि सोवियत रूस में बोल्शेविकों नें बुलेट का कम तथा बुलेटीन का प्रयोग अधिक किया था। हमारे भारतीय क्रांतिकारियों ने भी भगत सिंह के बाद अपनी आज़ादी की लड़ाई में बुलेट का प्रयोग कम करके बुलेटिन का प्रयोग बढ़ा दिया था। अब हमें जो लड़ाई लड़नी है वह शारीरिक न होकर वैचारिक होगी।’ 

शिव वर्मा को शायद यह अंदेशा भी न होगा कि भारत में ऐसी सरकार बनेगी जिसकी नज़र में 'बुलेटिन' वाले देशद्रोही हो जायेंगे। ये संयोग नहीं कि इस समय मोदी सरकार जिन तमाम बुद्धिजीवियों को जेल में डाले हुए है, पुलिस जिन्हें राजद्रोह के केस में फँसा रही है और आरएसएस-बीजेपी का विचार-प्रवाह जिन्हें देशद्रोही और भारतीय सभ्यता का दुश्मन कहकर प्रचारित कर रहा है, वो सभी भगत सिंह को अपना नायक मानते हैं। भगत सिंह बदलाव और क्रांति के सबसे बड़े प्रतीक बने हुए हैं। भगत सिंह की तेजस्विता का आलम यह है कि शासक वर्ग भी उनकी मूर्ति पर माला चढ़ाता है, उनकी शहादत को सलाम करता है, लेकिन जैसे ही कोई भगत सिंह की राह में चलने का प्रयास करता है, यह भगत सिंह के विचारों का प्रसार मात्र करता है, उसके कान खड़े हो जाते हैं।

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हाल के दिनों में बहुत से सामाजिक कार्यकर्ताओं को माओवादी आदि कहकर गिरफ्तार करते समय जिस आपत्तिजनक साहित्य की सूची पुलिस ने बनायी उसमें भगत सिंह के लेखों का संग्रह भी रहा है। जेएनयू से लेकर शाहीन बाग़ तक के आंदोलन में भगत सिंह की तसवीरें लगातार हवा में लहरायी गयीं जिसे देशद्रोही प्रचारित करने में सरकार परस्त मीडिया और संघ से जुड़े संगठनों ने पूरी जान लगा दी।

भगत सिंह और शासक वर्ग का यह रिश्ता आज भी वैसा ही है जैसा कि आज़ादी के पहले थे। गीतकार शैलेंद्र ने कभी यूँ ही नहीं लिखा था-

‘भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की, देशभक्ति के लिए आज भी सज़ा मिलेगी फाँसी की।’

उदारीकरण के बाद यह रिश्ता और कटु होता चला गया। और मोदी सरकार ने तो इसे अकल्पनीय स्थिति में पहुँचा दिया। इसके पीछे पूरा इतिहास है। आरएसएस के 'हिंदू राष्ट्र' के विचार को भगत सिंह की ओर से हमेशा ही चुनौती मिलती रही है। 1925 में आरएसएस की स्थापना करने वाले हेडगेवार इस बात को लेकर काफ़ी चिंतित थे कि युवाओं में भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी दल के विचारों का प्रभाव बढ़ रहा है। चूँकि यह दल यानी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन रूस जैसे समाजवादी क्रांति की कल्पना कर रहा था इसलिए यह सतर्कता कुछ ज़्यादा ही थी। इस संबंध में संघ के तीसरे सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने जो लिखा है, वह आँख खोलने वाला है। देवरस लिखते हैं-

‘जब भगत सिंह और उनके साथियों को फाँसी दी गई थी, तब हम कुछ दोस्त इतने उत्साहित थे कि हमने साथ में कसम ली थी कि हम भी कुछ ख़तरनाक करेंगे और ऐसा करने के लिए घर से भागने का फ़ैसला भी ले लिया था। पर ऐसे डॉक्टर जी (हेडगेवार) को बताए बिना घर से भागना हमें ठीक नहीं लग रहा था तो हमने डॉक्टर जी को अपने निर्णय से अवगत कराने की सोची और उन्हें यह बताने की ज़िम्मेदारी दोस्तों ने मुझे सौंपी। हम साथ में डॉक्टर जी के पास पहुँचे और बहुत साहस के साथ मैंने अपने विचार उनके सामने रखने शुरू किए। ये जानने के बाद इस योजना को रद्द करने और हमें संघ के काम की श्रेष्ठता बताने के लिए डॉक्टर जी ने हमारे साथ एक मीटिंग की। ये मीटिंग सात दिनों तक हुई और यह रात में भी दस बजे से तीन बजे तक हुआ करती थी। डॉक्टर जी के शानदार विचारों और बहुमूल्य नेतृत्व ने हमारे विचारों और जीवन के आदर्शों में आधारभूत परिवर्तन किया। उस दिन से हमने ऐसे बिना सोचे-समझे योजनाएँ बनाना बंद कर दीं। हमारे जीवन को नई दिशा मिली थी और हमने अपना दिमाग़ संघ के कामों में लगा दिया।’ —मधुकर दत्तात्रेय देवरस ( संघ के तीसरे प्रमुख) (स्मृतिकण- परम पूज्य डॉ. हेडगेवार के जीवन की विभिन्न घटनाओं का संकलन, आरएसएस प्रकाशन विभाग, नागपुर, 1962, पेज- 47-48)

यह संयोग नहीं कि संघ ने आज़ादी के आंदोलन से ख़ुद को दूर रखा क्योंकि उसके आदर्श बिल्कुल भिन्न थे। भगत सिंह और उनकी विचारधारा से तो छत्तीस का रिश्ता था।

आरएसएस कम्युनिज़्म को भारत का शत्रु मानता रहा है और भगत सिंह बोल्शेविक क्रांति और रूसी क्रांति के नायक लेनिन के ज़बरदस्त प्रशंसक थे और भारत में मज़दूरों-किसानों के राज की खुली वक़ालत करते थे।

शहादत से सिर्फ़ दो महीने पहले की बात है। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु पर मुक़दमा चल रहा था कि ‘लेनिन दिवस’ आ गया (21 जनवरी यानी लेनिन की पुण्यतिथि)। भगत सिंह और उनके साथियों ने तीसरे इंटरनेशनल (कम्युनिस्टों की अंतरराष्ट्रीय संस्था) के लिए एक तार तैयार किया और सुनवाई के दौरान अदालत में पढ़ा। अख़बारों में इसकी रिपोर्ट यूँ लिखी गई थी-

“21 जनवरी, 1930 को लाहौर षड्यंत्र केस के सभी अभियुक्त अदालत में लाल रुमाल बांध कर उपस्थित हुए। जैसे ही मजिस्ट्रेट ने अपना आसन ग्रहण किया उन्होंने ‘समाजवादी क्रान्ति जिन्दाबाद,’ ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जिन्दाबाद,’ ‘जनता जिन्दाबाद,’ ‘लेनिन का नाम अमर रहेगा,’ और ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’ के नारे लगाये। इसके बाद भगत सिंह ने अदालत में तार का मजमून पढ़ा और मजिस्ट्रेट से इसे तीसरे इंटरनेशनल को भिजवाने का आग्रह किया।

तार का मजमून—

‘लेनिन दिवस के अवसर पर हम उन सभी को हार्दिक अभिनन्दन भेजते हैं जो महान लेनिन के आदर्शों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ भी कर रहे हैं। हम रूस द्वारा किये जा रहे महान प्रयोग की सफलता की कामना करते हैं। सर्वहारा विजयी होगा। पूँजीवाद पराजित होगा। साम्राज्यवाद की मौत हो।’

-भगत सिंह (1931)"

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यानी भगत सिंह उस पूँजीवाद का नाश चाहते थे जो मौजूदा शासकवर्ग की निगाह में विकल्पहीन है। भगत सिंह होते तो जल-जंगल-ज़मीन को लेकर चल रही खुली लूट के ख़िलाफ़ लड़ रहे होते जैसा कि उनको मानने वाले लड़ते हैं और देशद्रोही क़रार दिये जाते हैं।

फ़र्क़ का यह सिलसिला अंतहीन है। आरएसएस और बीजेपी ने धर्म का इस्तेमाल करके सत्ता पर क़ब्ज़ा किया जिसके ख़िलाफ़ भगत सिंह ने न जाने कितने लेख लिखे। बीजेपी राममंदिर के सहारे सत्ता के शिखर पर पहुँची जबकि भगत सिंह घोषित नास्तिक थे। 'मैं नास्तिक क्यों हूँ' जैसा लेख उन्होंने तब लिखा जब फाँसी का फंदा सामने था। 23 साल की छोटी सी उम्र में भगत सिंह इस नतीजे पर पहुँच गये थे कि ईश्वर जैसी कोई शै नहीं होती। उसका इस्तेमाल करके राजनीति, संस्कृति और अर्थक्षेत्र में ताक़तवर लोग अपना उल्लू सीधा करते हैं।

विचार से ख़ास

और हाँ, नेहरू के ख़िलाफ़ विष वमन करने वालों को शायद यह जानकर धक्का लगे कि भगत सिंह ने नेहरू और सुभाष बोस की तुलना करते हुए एक लेख लिखा था जो 1928 में किरती नाम की पंजाबी पत्रिका में छपा था। इसमें सुभाष को भावुक और नेहरू को क्रांतिकारी बताते हुए उनका साथ देने का युवाओं का आह्वान किया गया था। यह चेतावनी भी थी कि नेहरू भटकें तो उनका भी विरोध होगा। लेख का अंतिम पैरा था-

‘सुभाष आज शायद दिल को कुछ भोजन देने के अलावा कोई दूसरी मानसिक खुराक नहीं दे रहे हैं। अब आवश्यकता इस बात की है कि पंजाब के नौजवानों को इन युगान्तरकारी विचारों को ख़ूब सोच-विचार कर पक्का कर लेना चाहिए। इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख़्त ज़रूरत है और यह पण्डित जवाहरलाल नेहरू से ही मिल सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके अन्धे पैरोकार बन जाना चाहिए। लेकिन जहाँ तक विचारों का सम्बन्ध है, वहाँ तक इस समय पंजाबी नौजवानों को उनके साथ लगना चाहिए, ताकि वे इन्क़लाब के वास्तविक अर्थ, हिन्दुस्तान के इन्क़लाब की आवश्यकता, दुनिया में इन्क़लाब का स्थान क्या है आदि के बारे में जान सकें। सोच-विचार के साथ नौजवान अपने विचारों को स्थिर करें ताकि निराशा, मायूसी और पराजय के समय में भी भटकाव के शिकार न हों और अकेले खड़े होकर दुनिया से मुक़ाबले में डटे रह सकें। इसी तरह जनता इन्क़लाब के ध्येय को पूरा कर सकती है।’

तो भगत सिंह का एकमात्र ध्येय था इन्क़लाब या क्रांति। भगत सिंह की मूरत या तसवीर पर फूल चढ़ाने से ज़्यादा ज़रूरी यह सबक़ याद रखना है। अफ़सोस कि इस बात को याद रखने का मतलब है सरकार की नज़र में देशद्रोही हो जाना। इसके लिए बुलेट चलाने की ज़रूरत नहीं, बुलेटिन ही काफ़ी है।

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