प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में गंगा किनारे स्थित राजघाट परिसर में सर्व सेवा संघ और गांधी अध्ययन संस्थान पर क़ब्ज़े के लिए जब भगवा हुकूमत का पुलिसिया प्रशासन विध्वंस मचा रहा था तो मुझे उस क्षण की पीड़ा को महसूस करने के लिए वहाँ मौजूद रहना चाहिए था। इसलिए नहीं कि मैं उसे रोक सकता था बल्कि इस कारण कि अपने अतीत का स्मरण करते हुए मुझे उस कालिख का साक्षी बनना चाहिए था जो देश-दुनिया में गांधी-विनोबा के लाखों-करोड़ों अनुयाइयों के चेहरों पर सरकारी अतिक्रमणकारियों द्वारा गढ़े गए दस्तावेज़ों की मदद से पोती जा रही थी।
वाराणसी के राजघाट परिसर के साथ स्मृतियों का एक लंबा सिलसिला जुड़ा हुआ है। साठ और सत्तर के दशकों में गांधी-विनोबा-कस्तूरबा का काम करने के दौरान कभी इंदौर से तो कभी नई दिल्ली स्थित राजघाट कॉलोनी से ट्रेन से रात-रात भर बैठे-बैठे सफ़र करके वहाँ जाने और समय बिताने का अवसर प्राप्त हुआ है। वहाँ आयोजित होने वाले शिविरों में कई दिनों तक रहने और सर्वोदय दर्शन की राष्ट्रीय विभूतियों का सान्निध्य प्राप्त करने के दुर्लभ क्षण प्राप्त होते थे। बापू के अनन्यतम सहयोगी महादेव भाई देसाई के सुयोग्य पुत्र और गांधी के कथाकार-विचारक नारायण देसाई तब उसी परिसर में परिवार सहित निवास करते थे। उनके साथ बिताये गए समय और की गई रोमांचक गंगा यात्रा के दृश्य आज भी यादों में सुरक्षित हैं।
तमाम विरोधों, प्रतिरोधों, लंबे सत्याग्रह और गिरफ़्तारियों के बावजूद वाराणसी के राजघाट परिसर में जो भगवा विध्वंस मचाया गया उसका संताप एक सीमा के बाद नहीं भोगा जा सकता। केवल प्रतीक्षा भर की जा सकती है कि इसी तरह के अतिक्रमण की आँच नई दिल्ली में बापू की समाधि के सामने स्थित राजघाट परिसर और दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान की इमारत तक कब पहुँचती है।
बापू चाहे दिनबंधु रहे हों, भगवा सत्ता जिन्हें अपना दीनदयाल मानती है उनके साथ एक ही मार्ग पर कब तक क़ायम रह सकेंगे कहा नहीं जा सकता? (भाजपा का मुख्यालय भी दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर ही स्थित है।) हालाँकि जो ग़ैर-कांग्रेसी एनडीए सरकार इस समय केंद्र में क़ायम है उसकी नींव इसी गांधी शांति प्रतिष्ठान में 1977 में जेपी के नायकत्व में पड़ी थी। दिल्ली की राजघाट कॉलोनी में ही सर्व सेवा संघ के मुखपत्र ‘सर्वोदय’ साप्ताहिक में काम करते हुए समय बीता है। प्रभाष जोशी तब हमारे संपादक और अनुपम मिश्र सहयोगी हुआ करते थे।
अहमदाबाद स्थित साबरमती आश्रम परिसर को जब उसके रहवासियों से ख़ाली करवाया गया तब न तो वाराणसी जैसा कोई प्रतिरोध हुआ, सत्याग्रह हुआ और गिरफ़्तारियाँ ही दी गईं।
अधिकांश रहवासियों ने कथित तौर पर लाखों-करोड़ों के चेक मुआवज़े के रूप में स्वीकार करते हुए फ़ोटो खिंचवाए और गांधी की सत्ता गोडसे-भक्तों के सपनों के हवाले कर दी। इनमें कुछ रहवासी वे भी थे जो सर्वोदय आंदोलनों के नामी-गिरामी पदाधिकारी रहे हैं। साबरमती आश्रम में तो सरकारी अतिक्रमणकारियों के पास वाराणसी जैसा कोई बहाना भी नहीं था कि वहाँ की क़ीमती ज़मीन रेलवे या किसी और के आधिपत्य की थी। साबरमती आश्रम की स्थापना तो सन् 1917 में स्वयं बापू ने की थी।
दूसरा प्रमुख कारण यह है कि गांधी संस्थाओं के साथ अब किसी भी प्रकार का नागरिक समर्थन नहीं बचा है। अधिकांश संस्थाओं की साँसें सरकारी अनुदान के भरोसे ही चल रही हैं। गो सेवा के क्षेत्र में लगी सर्वोदय संस्थाओं के काम को भगवा ब्रिगेड ने सांप्रदायिक विभाजन का हथियार बनाने के लिए हथिया लिया है। लाखों कत्तीनों को बेरोज़गार कर खादी आयोग और उसकी संस्थाएँ खादी के नाम पर खुले आम पॉलिएस्टर बेच रही हैं। कहीं कोई हिसाब नहीं है कि विनोबा के भूदान आंदोलन में प्राप्त हुई पचास लाख एकड़ ज़मीन का क्या हुआ? वह कब और किन भूमिहीन ग़रीबों को वितरित की गई!
अपने किसी आलेख में मैंने ज़िक्र किया था कि दिल्ली स्थित ‘गांधी स्मृति’ स्थल (जहां बापू की हत्या हुई थी) और ‘गांधी दर्शन’ (बापू की समाधि से लगा विशाल प्रदर्शनी स्थल) दोनों की देख-रेख का काम सत्तारूढ़ हुकूमत ने अपने ही एक पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद के हवाले कर रखा है। गांधी का काम अब सावरकर के अनुयायी कर रहे हैं! गांधी और सावरकर बराबरी के देशभक्त बना दिये गए हैं!
तीसरा कारण यह है कि गांधी और सर्वोदय की संस्थाएँ सत्ता और क्षेत्रीय स्वार्थों के आधार पर काफ़ी पहले से आपस में बंट चुकी हैं और शासकों को इसकी पर्याप्त जानकारी भी है। नर्मदा नदी पर बनने वाले सरदार सरोवर बांध के ख़िलाफ़ जब मध्य प्रदेश के गांधीवादी कार्यकर्ता आंदोलन कर रहे थे, गुजरात वाले गांधीवादी कार्यकर्ता बांध का समर्थन कर रहे थे।
बांध-विरोधी नेत्री मेघा पाटकर के साथ अहमदाबाद की एक बैठक में जब बांध-समर्थकों द्वारा अभद्रता की जा रही थी, गुजरात के कुछ प्रख्यात गांधीवादी मूक दर्शकों की तरह बैठे तमाशा देख रहे थे।
वाराणसी में राजघाट परिसर की ज़मीन और संस्था को बचाने के लिए निश्चित ही दस्तावेज़ी प्रमाण भी सौंपे गए हैं कि : ’विनोबा भावे ने भूदान यात्रा के दौरान तेरह एकड़ ज़मीन रेलवे से ख़रीद कर साधना केन्द्र बनाया था। उद्देश्य था : राष्ट्र-निर्माण के लिए युवा रचनाकारों को तैयार करना और साहित्य प्रकाशन करना जिससे लोगों के दिल और दिमाग़ बदलें।’ सवाल यह है कि इन उद्देश्यों की प्राप्ति में कितनी सफलता प्राप्त हुई?
जिस संस्था और ज़मीन को बचाने के लिए विनोबा का उदाहरण दिया जा रहा है उनका संस्थाओं को लेकर क्या कहना था उस पर कोई गौर नहीं करना चाहता! विनोबा ने कहा था : ’विधानबद्ध संस्थाएँ क्रांति का कार्य नहीं कर सकतीं! विचार क्रांति मनुष्यों द्वारा होती है। संस्था से सत्ता बन सकती है, जन समाज में क्रांति नहीं हो सकती। संस्थाओं का कार्य समाप्त हो जाने के बाद उनका विसर्जन भी कर देना चाहिए।’
विनोबा ने ग्रामदान आंदोलन के बाद गांधी निधि से सहायता लेना बंद कर दिया था और सारी भूदान समितियाँ तोड़ डाली थीं।
गांधी और सर्वोदय समाज के अधिकांश सेवक सिर्फ़ संस्थाएँ और उनकी ज़मीनें बचाना चाहते हैं, गांधी को नहीं? वे संघ और भाजपा की भगवा सत्ता से इसलिए नहीं लड़ पाएँगे कि दोनों ही अपनी पूरी ताक़त के साथ सावरकर-गोडसे को बचा रहे हैं और गांधी-विनोबा-जयप्रकाश को समाप्त कर रहे हैं! गांधी संस्थाओं को बचाने से पहले गांधी को बचाना पड़ेगा!
अपनी राय बतायें