18वीं लोकसभा के लिए चुनावी बिगुल बज चुका है। सात चरणों में होने वाले इस चुनाव का नतीजा 4 जून को आएगा। संविधान बदलने की मुनादी के बीच भाजपा के साथ उसके पितृ संगठन आरएसएस की चर्चा सबसे ज्यादा हो रही है। गांधीजी की हत्या के समय आरएसएस पर लगे प्रतिबंध को इस शर्त के साथ गृहमंत्री सरदार पटेल ने हटाया था कि वह कभी राजनीति में हिस्सेदारी नहीं करेगा। लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि बीजेपी के मुखौटे में आरएसएस ही सत्ता पर विराजमान है। सवाल उठता है कि हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के उद्देश्य से बना यह संगठन भारत की लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राजनीति की कमजोरियों का फायदा उठाकर कैसे इतना ताक़तवर बन बैठा? क्योंकर आरएसएस ने 90 साल के स्वाधीनता आंदोलन से उपजे 'भारत के विचार' को सिर के बल खड़ा कर दिया?
दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक RSS के हिंदू राष्ट्र एजेंडे को कामयाब होने देंगे?
- विचार
- |
- |
- 11 Apr, 2024

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष रहे बिबेक देवराय से लेकर कर्नाटक के सांसद अनंत कुमार हेगड़े संविधान को बदलने का ऐलान कर रहे हैं। तो क्या 2024 में संघ की हिंदू राष्ट्र की कोशिश को कामायाबी मिल पाएगी?
धर्म की राजनीति करने वाला आरएसएस विशुद्ध वर्णवादी संगठन है। ब्राह्मणवाद उसके डीएनए में है। दलितों वंचितों ने लोकतंत्र और संवैधानिक अधिकारों के ज़रिये जो आज़ादी हासिल की है, वो आज ख़तरे में है। हिन्दू राष्ट्र बनने या संविधान बदलने से किसका फायदा होगा? देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने फ्रांसीसी लेखक एंड्रे मेलरोक्स से कहा था कि आज़ादी के बाद उनकी सबसे बड़ी समस्या 'न्यायपूर्ण साधनों द्वारा एक समतामूलक समाज का निर्माण' करना है। नेहरू के समय से जो शुरुआत हुई थी, आज उसपर ताला लग चुका है। इस चुनाव के बीच आरएसएस की राजनीति की पड़ताल करना जरूरी है।
लेखक सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक हैं और लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं।