18वीं लोकसभा के लिए चुनावी बिगुल बज चुका है। सात चरणों में होने वाले इस चुनाव का नतीजा 4 जून को आएगा। संविधान बदलने की मुनादी के बीच भाजपा के साथ उसके पितृ संगठन आरएसएस की चर्चा सबसे ज्यादा हो रही है। गांधीजी की हत्या के समय आरएसएस पर लगे प्रतिबंध को इस शर्त के साथ गृहमंत्री सरदार पटेल ने हटाया था कि वह कभी राजनीति में हिस्सेदारी नहीं करेगा। लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि बीजेपी के मुखौटे में आरएसएस ही सत्ता पर विराजमान है। सवाल उठता है कि हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के उद्देश्य से बना यह संगठन भारत की लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राजनीति की कमजोरियों का फायदा उठाकर कैसे इतना ताक़तवर बन बैठा? क्योंकर आरएसएस ने 90 साल के स्वाधीनता आंदोलन से उपजे 'भारत के विचार' को सिर के बल खड़ा कर दिया?
धर्म की राजनीति करने वाला आरएसएस विशुद्ध वर्णवादी संगठन है। ब्राह्मणवाद उसके डीएनए में है। दलितों वंचितों ने लोकतंत्र और संवैधानिक अधिकारों के ज़रिये जो आज़ादी हासिल की है, वो आज ख़तरे में है। हिन्दू राष्ट्र बनने या संविधान बदलने से किसका फायदा होगा? देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने फ्रांसीसी लेखक एंड्रे मेलरोक्स से कहा था कि आज़ादी के बाद उनकी सबसे बड़ी समस्या 'न्यायपूर्ण साधनों द्वारा एक समतामूलक समाज का निर्माण' करना है। नेहरू के समय से जो शुरुआत हुई थी, आज उसपर ताला लग चुका है। इस चुनाव के बीच आरएसएस की राजनीति की पड़ताल करना जरूरी है।
जाति-व्यवस्था से पीड़ित ज्योतिबा फूले से लेकर डॉ. आम्बेडकर तक तमाम बौद्धिकों ने इस व्यवस्था को जड़ से उखाड़ने और समतापरक समाज के निर्माण के लिए संघर्ष किया। छत्रपति शाहूजी महाराज की आरक्षण नीति के ज़रिए सामाजिक न्याय स्थापित करने के लिए डॉ. आंबेडकर ने आरक्षण को संवैधानिक अधिकार का दर्जा दिलाया। संविधान में अस्पृश्यता जैसे जातीय दंश को मिटाकर सैद्धांतिक रूप से समता, न्याय और बंधुत्व स्थापित किया गया। सबको समान मताधिकार प्रदान किया गया। दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार दिए गए। यानी कमजोर वर्गों को संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया। सबको देश के विकास में योगदान करने का अवसर मिला। इसीलिए आरएसएस ने संविधान को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। संघ ने 30 नवम्बर 1949 को अपने मुखपत्र ऑर्गेनाइजर के संपादकीय में लिखा कि 'भारत का संविधान विदेशी है। इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है क्योंकि इसमें मनु की संहिताएं नहीं हैं। इसलिए हमें भारत का संविधान स्वीकार नहीं है।' दरअसल, आरएसएस विशुद्ध मनुवादी संगठन है। हिंदुत्व के नाम पर संघ ब्राह्मणवाद को फिर से दलितों, पिछड़ों और महिलाओं पर लादना चाहता है।
गांधीजी की हत्या के बाद आरएसएस अलग-अलग पड़ गया था। तब उसने लोकतंत्र के ज़रिए सत्ता में पहुँचने और हिंदुत्व को रूपाकर देने की योजना बनाई। 1952 में उसने जनसंघ नमक राजनीतिक दल गठित किया। केवल द्विज जातियों- सामंतों और जमींदारों का संगठन होने के कारण जनसंघ और आरएसएस को लंबे समय तक कोई सफलता नहीं मिली। आरएसएस एक मौके की तलाश में था।
देश की बिगड़ती आंतरिक स्थिति और अमेरिका के बढ़ते ख़तरे को देखते हुए इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लगा दिया। गांधी जी की हत्या के बाद आरएसएस पर दूसरी बार प्रतिबंध लगाया गया। विपक्ष के तमाम नेताओं और अनेक पत्रकारों को जेल भेज दिया गया था।
गौरतलब है कि आपातकाल के दरम्यान दलितों और आदिवासियों को जमीनों के पट्टों से लेकर सरकारी नौकरियां और अनेक सहूलियतें प्रदान की गईं। 20 सूत्रीय कार्यक्रम के जरिए गरीब वंचित तबके के उत्थान को प्राथमिकता दी गई। इंदिरा गांधी ने 1977 में आपातकाल हटाकर लोकतंत्र बहाल कर दिया। इसी साल चुनाव कराए गए। इंदिरा-कांग्रेस से अलग हुए नेता, समाजवादी दल और जनसंघ ने मिलकर जनता पार्टी बनाई। जनता पार्टी चुनाव जीत गई। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। सरकार में शामिल जनसंघ के जरिए आरएसएस ने विभिन्न सरकारी संस्थाओं में अपने लोगों को स्थापित किया। सत्ता की खुराक पाकर हिंदुत्ववादी आरएसएस मजबूत होकर उभरा।
अपने भीतरी अंतर्विरोधों के चलते जनता पार्टी की सरकार दो साल में बिखर गई। 1980 में इंदिरा गांधी फिर से जीतकर आई। अब राजनीति में एक नई धारा का उभार शुरू हुआ। 1980 के दशक में सामाजिक न्याय की पिछड़ा और दलित राजनीति उभरने लगी। समय और समाज का मिजाज भांपकर आरएसएस ने अपना कलेवर बदला। जनसंघ का केंचुल उतारकर आरएसएस ने 1980 में भाजपा का गठन किया। सामाजिक न्याय की राजनीति का मुकाबला करने के लिए आरएसएस ने दलित, आदिवासी और पिछड़ों में जनाधार बढ़ाने के लिए सोशल इंजीनियरिंग शुरू की।
1952 में स्थापित वनवासी कल्याण आश्रम के माध्यम से आरएसएस आदिवासियों के बीच काम कर रहा है। ईसाइयों के प्रतिरोध में आदिवासियों का हिंदूकरण करना इसका लक्ष्य है। ईसाई मिशनरियों द्वारा आदिवासियों को शिक्षित करने और उनका आर्थिक उत्थान करने के स्थान पर आरएसएस ने आदिवासियों को प्रकृति पूजक से मूर्ति पूजक बनाकर ब्राह्मणवाद का सेवक बना दिया। आगे चलकर इनका राजनीतिक दोहन करके सत्ता हासिल करना ही मूल मकसद था। इसी तरह से दलितों के बीच हिंदुत्व का पोषण करने के लिए संघ ने 'सामाजिक समरसता मंच' (1983) स्थापित किया। दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद का सिद्धांत दिया। इसका अर्थ है, जाति भेद बनाए रखते हुए राजनीतिक हिन्दू एकता स्थापित करना। इसी तरह से बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के जरिए पिछड़ों और अन्य लड़ाका जातियों में कट्टर हिंदुत्व के विचार का बीजारोपण किया गया। उन्हें हिंदू धर्म रक्षक में तब्दील कर दिया गया। राम कथा और राम मंदिर आंदोलन ने इसमें बड़ी भूमिका अदा की। शबरी, हनुमान, निषादराज, नल-नील, अंगद, जामवंत जैसे चरित्रों को दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के पूर्वज बताकर उन्हें सेवक और बलिदानी बनाया गया।
बी.पी. मंडल कमीशन (1979-80) द्वारा की गई ओबीसी आरक्षण की सिफारिश को जब वी.पी. सिंह सरकार (1990) ने लागू किया तो आरएसएस ने कमंडल की राजनीति को धार दी। बाबरी मस्जिद के मनगढ़ंत इतिहास के जरिए उग्र हिंदुत्व की भावना पैदा करके विनय कटियार, कल्याण सिंह, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा सरीखे दलित पिछड़ों को आगे करके सांप्रदायिक नफरत फैलाई गई।
आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल जैसे संगठनों के आह्वान पर 6 दिसंबर 1992 को कारसेवकों द्वारा बाबरी मस्जिद तोड़ दी गई।
राम मंदिर आंदोलन और बाबरी विध्वंस से हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का फायदा बीजेपी को मिला। 1996 में पहली बार आरएसएस के स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। 1998 में 13 महीने और फिर 1999 से 2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी एनडीए गठबंधन की सरकार में पूरे पांच साल तक प्रधानमंत्री बने रहे। इस दरमियान आरएसएस और ज्यादा मजबूत हुआ। उसके आनुषंगिक संगठनों का विस्तार हुआ। गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भाजपा की सरकारें बनीं। प्रयोगशाला के तौर पर इन राज्यों में आरएसएस ने खुलकर मुसलमानों के खिलाफ सांप्रदायिकता फैलाई। पहले दलितों और आदिवासियों को सांप्रदायिक दंगों में इस्तेमाल किया गया। फिर उनके वोट से सरकार बनाई गई। बाद में उन्हें मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था वाली कालकोठरी में धकेल दिया गया। मुसलमानों और ईसाइयों के साथ-साथ दलितों और आदिवासियों पर हिंसा बढ़ गयी। उत्पीड़न करने वालों को सरकारी संरक्षण प्राप्त था। सरकारी संस्थानों का भगवाकरण कर दिया गया। इसके जरिए वंचित समुदायों को प्राप्त संवैधानिक संरक्षण लगभग समाप्त हो गया। शिक्षण संस्थानों के स्थान पर उन्हें कर्मकांड और अंधविश्वास के दलदल में धकेल दिया गया। चेतना कुंद करके उनको हिंदुत्व की राजनीति का खरपतवार बना दिया गया।
अब आरएसएस पूर्ण सत्ता प्राप्त करने के लिए बेताब हो उठा। 2002 में गोधरा कांड के बाद गुजरात के मुसलमानों का एकतरफा नरसंहार किया गया। मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और राणा अय्यूब जैसी पत्रकार गुजरात दंगों को सुनियोजित साजिश बताती हैं। उनका कहना है कि इस नरसंहार के पीछे आरएसएस और अन्य हिंदूवादी संगठनों की बड़ी भूमिका थी। दंगों के बाद मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदू हृदय सम्राट बनकर उभरे। इसके बाद हुए गुजरात विधानसभा चुनावों में (2002, 2007 और 2012) नरेंद्र मोदी को लगातार सफलता मिली। अटल-आडवाणी को पीछे छोड़ते हुए अब आरएसएस ने नरेंद्र मोदी को आगे बढ़ने का निश्चय किया। 2012- 2013 में यूपीए सरकार के दौरान हुए कथित भ्रष्टाचार के खिलाफ एक जन आंदोलन खड़ा किया गया। नेपथ्य में रहकर आरएसएस ने बाबा रामदेव और अन्ना हजारे जैसे प्यादों का भरपूर इस्तेमाल किया। मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा का अधिकार और सूचना का अधिकार आदि गरीब हितैषी जनपक्षधर नीतियों के कारण गांवों के सामंत-जमींदार और महानगरों के पूंजीपति-दलाल सब नरेंद्र मोदी और आरएसएस के पीछे गोलबंद होने लगे।
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