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कांग्रेस के घोषणापत्र पर मोदी और भाजपा को मिर्च क्यों लगी?

भारत में इस समय चुनाव का मौसम है। हिंदू बहुसंख्यकवाद की राजनीति करने वाली भाजपा तीसरी बार सत्ता हासिल करने के लिए चुनाव मैदान में है। दो दिन पहले कांग्रेस पार्टी ने न्याय पर आधारित अपना घोषणापत्र जारी किया। कांग्रेस का घोषणापत्र सामाजिक न्याय का दस्तावेज है। हमेशा सामाजिक न्याय के खिलाफ हिंदुत्व के एजेंडे पर राजनीति करने वाली भाजपा भला इसे कैसे बर्दाश्त करती! इसलिए नरेंद्र मोदी ने हमला बोलते हुए कहा कि कांग्रेस के मेनिफेस्टो पर मुस्लिम लीग की छाप है। आरएसएस और जनसंघ के जमाने से ही दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी राजनीति, अल्पसंख्यक मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं के मन में डर और नफरत पैदा करती रही है। कांग्रेस और अन्य विपक्षी सेक्युलर दलों पर मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप लगाकर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण किया गया। लेकिन उसे पहली सफलता 1990 के दशक में मिली। 

मण्डल के बरअक्स मन्दिर की राजनीति के जरिए भाजपा ने पहली बार (1995,1997, 1999-2004) सत्ता का स्वाद चखा। दिल्ली के लालकिले तक उसका परचम लहराया। यह सवाल मन में बार-बार कौंधता है कि हजार साल की गंगा जमुनी तहजीब कैसे अचानक भरभराकर ढह गई? गौरतलब है कि यही वो समय था, जब पश्चिमी मीडिया में इस्लामोफोबिया की चर्चा होने लगी थी। जैसे जैसे दुनिया में 'इस्लामी आतंकवाद' का ग्राफ बढ़ रहा था, वैसे वैसे बीजेपी सत्ता की सीढ़ियां चढ़ रही थी। इसकी पड़ताल होना अभी बाकी है कि अमेरिका और यूरोप की पूंजीवादी दक्षिणपंथी राजनीति ने भारत की राजनीति को क्योंकर प्रभावित किया? इस्लामी आतंकवाद जैसे शब्द को गढ़कर अमेरिका ने दुनियाभर में इस्लामोफोबिया पैदा किया। इसके जरिये अमेरिका ने दुनिया में अपना आर्थिक साम्राज्य खड़ा करने में कामयाबी हासिल की। लेकिन इसका दीगर प्रभाव बेहद डरावना है। 
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मुसलमानों के साथ दुर्व्यवहार ही नहीं बल्कि लिंचिंग की सैकड़ों घटनाएं हुईं। इस्लामोफोबिया की आड़ में पश्चिम हो या भारत सब जगह सामाजिक न्याय की राजनीति को कुचल दिया गया। हाशिये के समुदायों की तरक्की के रास्ते बंद कर दिए गए। दक्षिणपंथी दानव मजलूमों के खून से शक्ति अर्जित करने लगा। इसीलिए अमेरिका में अश्वेतों पर गोरों के हमले बढ़ गए और भारत में कहीं आदिवासियों के मुंह पर पेशाब की गई तो कहीं दलितों को पेशाब पिलाई गई। कहीं उन्हें उल्टा लटकाकर पीटा जा रहा है तो कहीं उनकी महिलाओं से बलात्कार हो रहे हैं। फिलहाल, एक जरूरी कदम उठाते हुए यूएनओ ने 15 मार्च को 'इस्लामोफोबिया के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय दिवस' मनाने का एलान किया है। इसका आने वाले समय में क्या असर होगा, ये तो वक्त ही बताएगा। लेकिन यह समझना जरूरी है कि पश्चिम ने कैसे मुस्लिम आतंकवाद को पैदा करके इस्लामोफोबिया को दुनियाभर में फैलाया? भारत में इसका क्या राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव हुआ?
20वीं सदी के प्रारंभ में हुए दो विश्व युद्धों के कारण यूरोपीय देशों की ताकत घट गई। यूरोपीय साम्राज्य दुनिया के नक्शे से मिटने लगा। एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के तमाम देश यूरोपीय उपनिवेशवाद से मुक्त हो गए। अमेरिका और सोवियत संघ दो मुल्क ताकतवर बनकर उभरे। दुनिया में शांति बहाल करने, आपसी विवादों के निपटारे और मानव विकास के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना (24 अक्टूबर, 1945) हुई। लेकिन लंबे समय तक अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध चलता रहा। दुनिया दो ध्रुवों में सिमट गई। लेकिन भारत, मिस्र और इंडोनेशिया जैसे देशों ने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई। अमेरिका और सोवियत संघ के बीच की लड़ाई, दुनिया पर दबदबा स्थापित करने के लिए संघर्ष, के साथ साथ दो विचारधाराओं का टकराव भी था।
अमेरिका पूंजीवादी दक्षिणपंथी धारा का नेतृत्व कर रहा था और सोवियत संघ वामपंथी उदारवादी धारा का नेता था। 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया एक ध्रुवीय बनती चली गई। पूंजीवादी अमेरिका का दबदबा बढ़ गया। अपनी दादागिरी बरकरार रखने के लिए अमेरिका पूरी दुनिया में अपना आर्थिक और सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करना चाहता था। भूमंडलीकरण का तेजी से विस्तार हो रहा था। आईएमएफ और विश्व बैंक जैसे वैश्विक आर्थिक संस्थानों पर अमेरिका का एकछत्र कब्जा हो गया। संयुक्त राष्ट्र संघ पर भी अमेरिका का प्रभुत्व स्थापित हो गया। तीसरी दुनिया के देशों पर जब आर्थिक संकट आया तो अमेरिका और उसके पिछलग्गू यूरोपीय देशों ने एशिया, अफ्रीका के इन देशों पर पूंजीवादी नीतियां थोपीं। उदारवाद के नाम पर बाजारवाद को बढ़ावा दिया गया। भूमण्डलीकरण और बाजारवादी संस्कृति के माध्यम से पश्चिम ने तीसरी दुनिया के देशों में उत्तर उपनिवेशवादी साम्राज्य स्थापित किया। अर्थतंत्र, तकनीकी, संचार और रक्षा आयुध इंडस्ट्री पर अपने वर्चस्व के जरिए पश्चिमी देशों ने तीसरी दुनिया के देशों को मातहत रखने की नीति अपनाई। 
वैश्विक पूंजी और अर्थतंत्र को काबू में रखने के लिए बीसवीं सदी की सबसे बड़ी संपदा, पेट्रोलियम पर नियंत्रण रखना जरूरी था। प्राकृतिक रूप से अधिकांश पेट्रोलियम का खजाना मध्यपूर्व के देशों के पास था। देखते ही देखते कबीलों वाले छोटे छोटे पिछड़े देश पैट्रोलियम संपदा के कारण अमीर देशों की कतार में आ गए। अमेरिका की निगाहें इस पूरे क्षेत्र पर टिक गईं। इसलिए उसने सद्दाम हुसैन पर हमला (2003) करके इराक को नेस्तनाबूद कर दिया। अमेरिका ने दुनिया को यह बताकर इराक पर हमला किया था कि 'क्रूर तानाशाह' सद्दाम हुसैन के पास विध्वंसक हथियारों का जखीरा है। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने पूरी दुनिया को चेतावनी देकर कहा कि अगर आप अमेरिका के साथ नहीं है तो आप अमेरिका के दुश्मन हैं। सद्दाम हुसैन को मारकर अमेरिका ने इराक के तेल के ठिकानों पर कब्जा कर लिया। लेकिन जाहिर तौर पर इराक में हथियारों का कभी कोई जखीरा नहीं मिला।

सोवियत संघ के विघटन (1991) के बाद सैमुअल हटिंगटन की नई थ्योरी 'क्लैश ऑफ़ सिविलाइजेशन' (सभ्यताओं का संघर्ष, 1993) आई। इस सिद्धांत के अनुसार भविष्य में आधुनिक विकसित ईसाई सभ्यता का पिछड़ी इस्लामी सभ्यता से टकराव होगा। दरअसल यह सिद्धांत, एक सभ्यता का दानवीकरण करके उसके पेट्रोलियम ठिकानों पर कब्जा करने की योजना का बौद्धिक प्रहसन था। 9/11/2001 को अमेरिका के ट्विन टावर्स पर अलकायदा के हवाई हमले, जिसमें 3000 लोगों की मौत हुई थी, के बाद पश्चिमी मीडिया ने इस्लामी आतंकवाद को जोरदार ढंग से पूरी दुनिया में प्रचारित किया। इसने बड़े पैमाने पर इस्लामोफोबिया पैदा किया। इस्लाम को बर्बर, मध्ययुगीन, पिछड़ी और हिंसक सभ्यता बताया जाने लगा। पूरी दुनिया के नक्शे पर इसे बड़े खतरे के रूप में चिन्हित किया गया।

जिस अलकायदा के आतंकवाद का शिकार अमेरिका हुआ था, उसे खुद अमेरिका ने पैदा किया था। दरअसल, शीतयुद्ध के दौरान यूरोपीय उपनिवेशवाद से मुक्त हुए देशों में कम्युनिज्म और सोवियत संघ के प्रभाव को रोकने के लिए अमेरिका ने दक्षिणपंथी इस्लामिक ताकतों को खड़ा किया। तेल के लालच और नसीरवाद के बढ़ते प्रभाव से चिंतित अमेरिका ने खाड़ी देशों में चरमपंथी इस्लामवादियों को बड़े पैमाने पर पैसा और प्रशिक्षण दिया। मुस्लिम ब्रदरहुड, अफगान मुजाहिदीन और तालिबान को अमेरिका ने खुलकर प्रश्रय दिया। दरअसल, मिस्र, इराक और लीबिया में सेकुलर राष्ट्रवाद और नासिरवाद का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। नासिर की सोवियत संघ से मित्रता थी।
अफगानिस्तान में सोवियत संघ के प्रभाव को खत्म करने के लिए अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को पैदा किया। मशहूर समाजशास्त्री एजाज अहमद ने 'इस्लाम, इस्लामिज्म एंड दि वेस्ट' लेख में अमेरिकी साम्राज्यवाद और इस्लामवाद के गठजोड़ को बेपर्दा करते हुए लादेन की कहानी को दर्ज किया है। 'पाकिस्तानी आईएसआई प्रमुख ने सीआईए प्रमुख को सलाह दी कि कोई सऊदी प्रिंस अफगानिस्तान में मुजाहिदीन की बागडोर संभाले तो बेहतर होगा। सीआईए को जब कोई सऊदी प्रिंस जान गंवाने के लिए नहीं मिला तो उसकी नजर सऊदी घराने से ताल्लुक रखने वाले एक संपन्न परिवार के थोड़े रंगीन मिजाज वाले एक नौजवान पर गई। यह लादेन था। ओसामा बिन लादेन सऊदी यूनिवर्सिटी से बहावी धर्मशास्त्र में शिक्षित था। इसे सीआईए ने अफगानिस्तान के लिए चुना। पैसा और हथियार पाकर लादेन ने अलकायदा को खड़ा किया। अलकायदा की मदद से अमेरिका, सोवियत संघ को अफगानिस्तान से हटाने में कामयाब हो गया। आगे चलकर जब लादेन को अमेरिका ने नियंत्रित करना चाहा तो वह भस्मासुर बन बैठा। इसके बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद, ईसाई कैथोलिकवाद और पश्चिमी बौद्धिकता ने मिलकर इस्लाम का दानवीकरण किया। एजाज अहमद ने उपरोक्त लेख के एक शीर्षक 'दि प्रेसिडेंट, दि पॉप एंड दि प्रोफेसर' में दर्ज किया है कि प्रेसिडेंट बुश, कार्डिनल रेटजिंगल और सैमुअल हटिंगटन एक ही स्वर में बोल रहे थे।
इसके समानांतर अमेरिका ने पाकिस्तान से लेकर सीरिया आदि इस्लामिक देशों के इस्लामी चरमपंथियों द्वारा अनेक देशों में हुए हमलों को इस्लामी आतंकवाद के रूप में इतना प्रचारित किया कि सामान्य मुसलमानों का रहना, घूमना और काम करना भी दूभर हो गया। प्रत्येक व्यक्ति को दाढ़ी और टोपी में आतंकी नजर आने लगा। भारत से लेकर फ्रांस और अमेरिका आदि देशों में मुसलमान खौफजदा और गैर मुस्लिम शंकाग्रस्त रहने लगे। शाहरुख खान की फिल्म 'माई नेम इज खान' इसका सटीक उदाहरण है। यह भी कहना जरूरी है कि मुस्लिम आतंकवाद का सबसे ज्यादा ओर दीर्घकालिक नुकसान खुद मुसलमानों को ही उठाना पड़ा।

इंडोनेशिया और पाकिस्तान के बाद भारत में सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी रहती है। आज़ादी मिलने के साथ भारत को विभाजन झेलना पड़ा। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि विभाजन अंग्रेजों ने अपरिहार्य बना दिया था। अविभाजित भारत पश्चिम के लिए खतरा बन सकता था। इसलिए पाकिस्तान के निर्माण की परिस्थितियां बना दी गईं। विभाजन से उपजा पाकिस्तान भारत का स्थायी दुश्मन बन गया। पाकिस्तान भारत से चार युद्ध लड़कर बुरी तरह हार चुका है। 1971 के युद्ध में उसकी हर हुई और पूर्वी पाकिस्तान उससे अलग होकर बांग्लादेश बन गया। बांग्लादेश के निर्माण में इन्दिरा गांधी सरकार और भारतीय सेना की उल्लेखनीय भूमिका थी। 

1990 के दशक में पाकिस्तान ने हताशा और जिद पर उतरकर भारत के साथ छद्म युद्ध शुरू किया। कश्मीर के हालातों का फायदा उठाकर पाकिस्तान ने भारत में आतंकवाद को पोषित किया। कश्मीरी नौजवानों को भड़काकर पाकिस्तान की सेना और आईएसआई ने भारत में फिदायीन हमले कराए। दर्जनों आत्मघामी हमलों में सैकड़ों लोगों की मौत हुईं। पाकिस्तानपरस्त इस्लामी आतंकवाद ने सामान्य भारतीय मुसलमानों को कटघरे में खड़ा कर दिया। रही सही कसर बीजेपी की राजनीति ने पूरी कर दी। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद इस्लामी कट्टरपंथियों ने मुसलमानों को डराने और भड़काने का काम किया। इसके शिकार कई पढ़े लिखे मुस्लिम नौजवान भी हुए। हिन्दू बहुसंख्यकवाद की साम्प्रदायिक राजनीति ने मुसलमानों में भय पैदा किया। मुस्लिम आतंकवाद ने इसका फायदा उठाया। जैश-ए-मुहम्मद से लेकर अलकायदा जैसे अनेक आतंकी संगठनों ने भारत में संसद भवन (13/12/2001) से लेकर मुम्बई (26/11/2008) तक दर्जनों हमले कराए। इनमें सैकड़ों निर्दोष लोग मारे गए। इन आतंकी घटनाओं का एक नतीजा यह भी हुआ कि त्वरित कार्यवाही के नाम पर पुलिस ने कई बार निर्दोष मुस्लिम नौजवानों को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। आरोप सिद्ध नहीं होने पर सालों बाद उनकी रिहाई हुई। इन सालों में उनकी और उनके परिवार की जिंदगी तबाह हो गई। जेल से बाईज्जत बरी होने के बाद उन्हें कोई मुआवजा भी नहीं मिला। समाज ने भी उनका बहिष्कार कर दिया।

इसी समय भारत में एक नई प्रवृति का उभार हुआ। 19 फरवरी 2007 को समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट हुआ। इसके बाद 8 सितम्बर 2008 को मालेगांव में एक मस्जिद के पास विस्फोट हुआ। इसी तरह के दर्जनों विस्फोट मुस्लिम बहुल इलाकों में हुए। इनमें सैकड़ों लोगों की मौत हुई। मरने वाले अधिकांश मुस्लिम थे। जांच के नाम पर पुलिस ने अनेक मुस्लिम नौजवानों को उठाया। लेकिन मालेगांव विस्फोट मामले की जांच महाराष्ट्र एटीएस के जांबाज पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे ने शुरू की तो मामला कुछ और ही निकला। इस विस्फोट में जो मोटरसाइकिल इस्तेमाल हुई थी वो साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की थी। इसके बाद परतें खुलती गईं। स्वामी दयानंद पांडे, कर्नल पुरोहित, स्वामी असीमानंद, मेजर उपाध्याय और प्रज्ञा ठाकुर गिरफ्तार हुए। बजरंग दल, सनातन संस्था, अभिनव भारत जैसे कई कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी संगठनों की भूमिका इन आतंकी हमलों में खुलकर सामने आई। स्वामी असीमानंद ने मजिस्ट्रेट के सामने अपने इकबालिया बयान में इन घटनाओं के पीछे की साजिश और आरएसएस के सहयोग और आशीर्वाद प्राप्त करने की बात कुबूल की। इसे हिन्दू आतंकवाद कहा गया। 

शिवसेना और बीजेपी ने इस जांच का विरोध किया। जांच अधिकारी हेमन्त करकरे को गालियां और धमकियां मिलने लगीं। हेमन्त करकरे 26/11 मुंबई के आतंकी हमले में शहीद हो गए। उनकी मौत संदेहास्पद स्थितियों में हुई। उनकी मौत के तार मालेगांव विस्फोट की जांच से भी जोड़े गए। 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद मालेगांव विस्फोट के तमाम आरोपियों को धीरे धीरे जमानत मिल गयी। प्रज्ञा ठाकुर तो माननीय सांसद बन गईं। स्वामी असीमानंद अपने इकबालिया बयान से पलट गया। लेकिन ये जरूर हुआ कि अब आतंकी हमले लगभग बन्द हो गए।
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2014 और उसके बाद भाजपा की तमाम चुनावी जीत को हिंदुत्व की जीत के तौर पर दिखाया जाने लगा। हिन्दू त्योहारों पर हिंदुत्व का जश्न मस्जिदों के सामने मनाया जाने लगा। मुस्लिम इलाकों में तलवारें और भगवा लहराते हुए हिंदुत्व के नशे में चूर नौजवानों की टोलियां निकलने लगीं। इस जीत के जश्न में मुसलमानों के खिलाफ नफरत साफ दिखाई देती है। लेकिन हिंदुओं के मन में इस्लामोफोबिया कम न हो जाये इसलिए अब उसे सिनेमा के जरिए लोगों के जेहन में ठूंसा जा रहा है। इसलिए विवेक अग्निहोत्री की 'कश्मीर फाइल्स' और 'केरला स्टोरी' जैसी फिल्में लगातार बनाई और दिखाई जा रही हैं।

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रविकान्त
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