लोकसभा चुनाव से पूर्व नरेंद्र मोदी ने बीजेपी को 370 पार और एनडीए को 400 पार का नारा दिया। इसके बाद भाजपा के तमाम नेता संविधान बदलने की बात कहने लगे। कर्नाटक के पूर्व सांसद अनंत कुमार हेगड़े ने मोदी के 400 पार नारे का एजेंडा स्पष्ट करते हुए कहा कि संविधान बदलने के लिए दो तिहाई से ज्यादा बहुमत चाहिए। राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की प्रत्याशी ज्योति मृधा ने भी इस बात को दोहराया। विपक्ष ने पुरजोर तरीके से इसका विरोध किया। नरेंद्र मोदी ने 13 अप्रैल को इस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि अगर खुद डॉ. आंबेडकर भी आ जाएं तो वे भी संविधान को नहीं बदल सकते। नरेंद्र मोदी की यह टिप्पणी अहमन्यता से भरी हुई और बाबासाहब के प्रति अपमानजनक भी है। 14 अप्रैल को नरेंद्र मोदी सरकार ने बाबासाहब की जयंती मनाई। लेकिन दोपहर होते-होते अयोध्या से बीजेपी के प्रत्याशी लल्लू सिंह ने भी कहा कि संविधान बदलने के लिए 400 पार चाहिए। फिर मेरठ के भाजपा प्रत्याशी रामायण में राम का किरदार निभाने वाले अरुण गोविल ने भी लल्लू सिंह के सुर में सुर मिलाकर कहा कि संविधान बदलने की आवश्यकता है। ऐसे में पूछा जाना चाहिए कि बीजेपी का चुनावी मुद्दा क्या संविधान बदलना है?
संविधान निर्माण के दौरान रामराज्य परिषद जैसे हिंदुत्ववादी संगठनों ने प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. आंबेडकर का जमकर विरोध किया। रामराज परिषद के अध्यक्ष करपात्री का कहना था कि एक अछूत द्वारा लिखे गए संविधान को वे स्वीकार नहीं करेंगे। 26 नवंबर 1949 को संविधान पारित होने के बाद आरएसएस ने खुलकर संविधान का विरोध किया। अपने मुखपत्र ऑर्गेनाइजर के संपादकीय में लिखा कि 'भारत के संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है क्योंकि इसमें मनु की संहिताएं नहीं हैं। इसलिए उन्हें यह संविधान स्वीकार नहीं है। शायद आरएसएस यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा सका कि एक अछूत द्वारा लिखे गए आधुनिक मूल्यों वाले संविधान को वे स्वीकार नहीं करेंगे। लोकतंत्र और संविधान के शासन को आरएसएस और हिंदुत्ववादियों ने कभी मन से स्वीकार नहीं किया। वे हमेशा से भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाकर मनुस्मृति के आधार पर नया संविधान लागू करना चाहते थे। ताकि बाबासाहब के संविधान के जरिये सदियों की गुलामी से मुक्त हुए दलितों, वंचितों और महिलाओं को फिर से गुलामी के दलदल में धकेला जा सके। इसीलिए बाबासाहब आंबेडकर ने हिन्दू राष्ट्र के विचार का पुरजोर विरोध करते हुए अपनी किताब 'पाकिस्तान, द पार्टिशन ऑफ इंडिया' में लिखा था कि हिन्दू राष्ट्र दलितों, वंचितों के लिए बड़ी आपदा साबित होगा। इसलिए इसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा था कि हिंदुत्ववादी अंग्रेजों से भी ज्यादा क्रूर साबित होंगे। बाबासाहब को इस बात की आशंका और डर था कि हिन्दुत्ववादी अपने धर्म, ईश्वर और पाखंड के जरिये दलितों का शोषण करेंगे। इसीलिए उन्होंने अपने लाखों अनुयायियों के साथ 16 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्म ग्रहण करके दलितों को हिन्दू धर्म से मुक्ति का मार्ग भी दे दिया। लेकिन 6 दिसम्बर 1956 को असमय मृत्यु के कारण वे बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार नहीं कर सके।
इटली के मार्क्सवादी विचारक एंटोनियो ग्राम्शी ने कहा था कि किसी विचार को खत्म करने के चार तरीके होते हैं। पहले, उसकी खूब आलोचना की जाए। अगर तर्कों से विचार नहीं खारिज हो तो उस पर हमला किया जाए। उस विचार को मानने वालों पर शारीरिक रूप से हमला किया जाए। अगर इससे भी विचार न खत्म हो तो उसे विकृत किया जाए। अगर विचारों को विकृत करने पर भी मकसद पूरा न हो तो उसका समाहार कर लेना चाहिए। डॉ. आंबेडकर के व्यक्तित्व और विचारों से आरएसएस बहुत भयभीत रहा है। आंबेडकर ने दलितों, वंचितों को समानता और न्याय का सपना दिखाया। संविधान के द्वारा उन्होंने शोषण के विरुद्ध अधिकार प्रदान किए। दलितों को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण जैसा विशेष अधिकार मिला। असमानता और अन्यायपरक ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषक आरएसएस और अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा इसीलिए डॉ. आंबेडकर को शुरू से ही कलंकित किया गया। उन्हें अपमानित करने और उनके विचारों को खंडित करने के लिए व्यक्तिगत हमले तक किये गए। कोलम्बिया विश्वविद्यालय में सिम्बल ऑफ नॉलेज दर्जा पाने वाले आंबेडकर को अरुण शौरी ने थर्ड डिवीजनर कहा। दलितों, पिछड़ों, महिलाओं के मसीहा माने जाने वाले बाबासाहब को फाल्स गॉड बताया। संविधान निर्माता को फर्जी मनु कहकर अपमानित किया।
1960 और 70 के दशक में आंबेडकर पर जमकर प्रहार किए गए। जब इससे आंबेडकर खत्म नहीं हुए तो संघ ने उन्हें प्रातः स्मरणीय बनाकर दलितों को साधने की कवायद शुरू कर दी। लेकिन आंबेडकर की मूर्तियां तोड़ी जाती रहीं और दलितों के स्वाभिमान को कुचलने के लिए लगातार उन्हें प्रताड़ित किया जाता रहा। आरएसएस और भाजपा का हमेशा संविधान को बदलने का अघोषित एजेंडा बना रहा। पहली बार भाजपा 1997 में सत्ता में आई। अटल बिहारी वाजपेई ने अन्य दलों के समर्थन के बदले अपने प्रमुख तीन मुद्दे- राम मंदिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता को तात्कालिक तौर पर छोड़ दिया था। लेकिन सत्तानशीं होने के बाद 1998 में अटल बिहारी वाजपेई ने पूर्व न्यायमूर्ति बैंकट चेलैया के नेतृत्व में संविधान समीक्षा आयोग बनाया। हालांकि विरोध के चलते आरएसएस और अटल सरकार के मंसूबे पूरे नहीं हो सके।
लोकसभा चुनावों के बीच भाजपा के तमाम नेता लगातार संविधान बदलने के लिए 400 से अधिक सीटें जीतने की बात कर रहे हैं। विपक्ष संविधान और लोकतंत्र को बचाने के लिए चुनाव मैदान में है। संविधान बदलने का मुद्दा भाजपा को बहुत भारी पड़ सकता है।
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