कोरोना का कोहराम चरम पर है। चंद रोज़ पहले तक सवा सौ करोड़ की आबादी के इस मुल्क में संक्रमण पर प्रभावी नियंत्रण दिखाई दे रहा था। लगता था कि एकाध महीने में हिन्दुस्तान महामारी को दबोच लेगा। लेकिन दिल्ली के निज़ामुद्दीन इलाक़े में धार्मिक जलसे के लिए आए अनेक देशों के जत्थों ने जो ग़ैर ज़िम्मेदार बर्ताव किया, उसने करोड़ों नागरिकों को क्षुब्ध कर दिया। अपने चरित्र के मुताबिक़ हमने इसे सांप्रदायिक रंग देने में रत्ती भर देर नहीं की। जमातों और उनके मेज़बानों ने इलाज और बचाव के उपायों को धता बताते हुए इसलाम के ख़िलाफ़ मान लिया तो बाक़ी देशवासियों ने भी इसे समूचे मुसलमानों की प्रतिनिधि राय समझ कर उनके साथ वैसा ही सुलूक किया। गाँव-गाँव में एक बार फिर इस सोच का आकार विकराल हो रहा है। यह कोरोना से भी भयावह है।
देश के नागरिक परेशान हैं कि इन धार्मिक जत्थों ने ऐसा क्यों किया? क्या यह मुसलिमों की वही मानसिकता है, जो पाकिस्तान में बच्चों को पोलियो ड्रॉप पिलाने से रोकती है और मलाला पर हमले करती है। यह मानसिकता पाकिस्तान में भी कोरोना से लॉकडाउन का विरोध करती है और मसजिदों में सरकारी पाबंदी के बाद भी सामूहिक तौर पर जुमे की नमाज़ अदा करती है। यह कट्टरपंथी सोच तेज़ी से भाग रहे 2020 के विश्व के साथ नहीं जाना चाहता। इस सोच के ठेकेदारों को अपनी मज़हबी दुकानों के बंद हो जाने का ख़तरा है, जिनका ग्राहक अनपढ़ और आर्थिक दृष्टि से बेहद कमज़ोर मुसलमान हैं।