देश में इन दिनों इस बात पर बहस तेज़ है कि लोकतंत्र में आवाज़ उठाने के लिए नागरिकों को सड़क पर उतरने का हक़ है या नहीं। महीनों तक धरने पर बैठना जैसे गंभीर अपराध मान लिया गया है। इसे जुर्म मानने वालों का तर्क है कि उन्हें ऐसा करने का अधिकार नहीं है। इसे जायज़ मान भी लें तो दूसरा सवाल है कि केंद्र सरकार ने आंदोलनकारियों के साथ लंबे समय तक संवाद की कोशिश क्यों नहीं की। सुप्रीम कोर्ट के दख़ल देने तक तो उनसे कोई चर्चा तक करने नहीं गया। क्या यह निर्वाचित सरकार का लोकतांत्रिक तरीक़ा है?