भारत में आज की राजनैतिक लड़ाई के उत्स तक यदि जाना है तो इतिहास के तथ्यों को खंगालने और इस पर एक सरसरी नज़र डाले बिना यह संभव नहीं है। सच तो यही है कि सोलवीं से सत्रहवीं शताब्दी के जिस दौर से हम गुजर रहे थे वह कूपमंडूपता, सामन्ती व कृषि व्यवस्था का दौर था। सभी भारतीय भाषाओं के मध्ययुगीन कवि अपनी रचनाओं, अपनी वाणी में समाज में व्याप्त जकड़न, धार्मिक पाखंड, अंधविश्वास, रूढ़िवादी जातीय भेदभाव व कठमुल्लापन आदि के खिलाफ भले ही तल्ख आवाज उठा रहे थे, पर इन परिस्थितियों को बदलने के लिये कोई भौतिक आधार नहीं था।
इतिहास की रोशनी में आज़ादी: स्वतंत्रता का असली मतलब क्या?
- विचार
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- 7 Apr, 2025

जब हम 'आज़ादी' कहते हैं, तो उसका क्या मतलब होता है? इतिहास की रोशनी में आज़ादी को समझना हमें न केवल बीते संघर्षों की याद दिलाता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि आज हम कहाँ खड़े हैं।
इसी दौर में यूरोप में वैज्ञानिक खोजों के चलते तर्क और वैज्ञानिक चेतना का अभूतपूर्व विकास हुआ और इसी की वजह से यूरोप में पुनर्जागरण की हवा बही। इस ’’रेनेसां’’ के कारण ही यूरोप में औद्योगिक क्रांति की नींव पड़ी। इस औद्योगिक क्रान्ति ने यूरोप की भौतिक, आध्यात्मिक व राजनैतिक परिस्थितियों को बदलने में बड़ी भूमिका अदा की। सामंती राज व्यवस्था इस औद्योगिक क्रांति के बोझ को संभालने में असफल साबित हुई और अंततः सन् 1789 आते आते फ्रांस में राजशाही व्यवस्था को धरासायी कर पूंजीपतियों के नेतृत्व में किसानों, व्यापारियों व मजदूरों के सहयोग से एक नई लोकतांत्रिक ढंग की सरकार का गठन किया गया। राजशाही की जगह लोकतांत्रिक सरकारों के गठन की शुरुआत पहली बार फ्रांस से शुरू होकर पूरे यूरोप मेंं अलग-अलग ढंग से आकार लेती गई।
यह याद रखना ज़रूरी है कि यूरोप में हुई इस औद्योगिक क्रांति ने एक नई समस्या पैदा की ’’अतिरिक्त उत्पादन’’ की समस्या, इसे खपाने और मशीनों के लिये कच्चे माल की पूर्ति की समस्या। इस अतिरिक्त उत्पादन और अतिरिक्त मूल्य पर विश्व के अद्वितीय विचारक कार्ल मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ’’पूंजी’’ में इस पर इतना सटीक अकाट्य और वैज्ञानिक विश्लेषण किया है कि इस व्यवस्था के बने रहने तक संभवतः यह चुनौती जिंदा रहेगी। बहरहाल यहां अतिरिक्त मूल्य पर चर्चा करने की जगह अतिरिक्त उत्पादन पर ही चर्चा प्रासंगिक होगी। यह अतिरिक्त उत्पादन ही वह आधार था, उपनिवेशों के बनने का, अतः उपनिवेशों की तलाश की दौड़ में यूरोप के तमाम देश अपने नाविक बेड़ों के साथ अविकसित एशिया, अफ्रीका व लैटिन अमेरिकी देशों की ओर भाग-दौड़ करने लगे। अंग्रेज, फ्रांसीसी, डच, पुर्तगाली सभी उपनिवेश स्थापित करने व व्यापार करने के मुहिम में शामिल हो गये।