राजनीति हर समय नए रंग दिखाती है। जिस वक्त नरेन्द्र मोदी ने संघ परिवार, बीजेपी सरकार और एक हद तक मतदाताओं के बीच भी अजेय स्थिति बना ली थी, उसी वक्त उनको जबरदस्त चुनौती मिलती दिख रही है और इसका मुकाबला कैसे करें, यह उनकी समझ में भी नहीं आ रहा है।
अपने शासन के छह साल के दौरान ही नहीं उससे पहले से ही नरेन्द्र मोदी और उनकी मंडली ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ जुमले का इस्तेमाल करती आ रही है और एक समय तो लग रहा था कि उनका यह लक्ष्य असलियत में बदलता जा रहा है, और यह भी कहा जा सकता है कि अगर उनकी सरकार सचमुच में ठोस काम करती तो मुल्क कांग्रेस को काफी हद तक भुलाने को तैयार था।
प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ते गए मोदी
सिर्फ 2014 के चुनाव में ही नहीं 2019 के आम चुनाव में भी लोगों ने नरेन्द्र मोदी को उनकी उम्मीद से ज्यादा सफलता दी। इस कारण वे नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, मनोहर पर्रिकर जैसे अपने दल के प्रतिद्वंद्वियों को कहीं पीछे छोड़ने और लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार जैसे ‘बूढों’ को दरकिनार करने में सफल रहे।
सत्ता में आने के बाद उनकी प्रशासनिक और राजनैतिक सफलताएं चाहे जो रहीं हों, उन्होंने सत्ता की ताक़त और सरकार में बैठने से हासिल जानकारियों का इस्तेमाल करते हुए अपने विरोधियों के पैर में बेड़ियां डालने का काम बखूबी किया। सोनिया, राहुल, राबर्ट वाड्रा के ख़िलाफ़ ही नहीं मायावती, अखिलेश यादव, लालू यादव और ममता बनर्जी तक पर शिकंजा कसा।
अन्नाद्रमुक, वाईएसआर कांग्रेस से लेकर नीतीश कुमार तक को बीजेपी ने कैसे पटाया यह कोई रहस्य नहीं है। हां, ये अलग बात है कि जो बीजेपी में आया उसके सारे पाप धुल गये। और सबसे बड़ी बात एक भी बीजेपी नेता को किसी मामले में आज तक सजा नहीं मिली।
मोदी के सामने विकल्प नहीं!
ख़ुद मोदी और अमित शाह ने मिलकर यह जतन किया है कि मोदी लगभग निर्विरोध हो जाएं। सामने विकल्प ही नहीं दिखे। न पार्टी के अन्दर न बाहर। पार्टी के अन्दर तो पिछले आम चुनाव तक नितिन गडकरी ने थोड़ी बहुत अलख जगाए रखी थी क्योंकि उन्हें संघ के मौजूदा नेतृत्व का कुछ समर्थन हासिल है पर विपक्ष एकदम पस्त हो गया।
कई विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और विपक्ष को जीत मिली या उसने बीजेपी का मुकाबला किया पर मोदी-शाह की जोड़ी ने उसकी ज्यादा परवाह नहीं की। साम-दाम, दंड-भेद से शासन हथिया लेने और राज्यपाल के ज़रिये राजनीतिक अस्थिरता का खेल बखूबी खेला गया।
लेकिन चारा कांड में सजा पाए लालू यादव नहीं पटे, नेहरू-गाँधी परिवार नहीं झुका, कम्युनिस्ट पार्टियों के ख़िलाफ़ कुछ ‘निकाल’ पाना मुश्किल हुआ, वरना नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, चन्द्रशेखर राव, जगनमोहन रेड्डी, चौटाला परिवार, महबूबा मुफ्ती और अन्नाद्रमुक के दोनों खेमों को शरणागत बनाना मोदी के लिए ज्यादा मुश्किल साबित नहीं हुआ।
लोकसभा चुनाव के बाद जब राहुल गांधी मैदान छोड़कर भागे तब लगा कि विपक्ष नामक चीज रह ही नहीं गई। बीमार सोनिया गांधी का अध्यक्ष पद सम्भालना कांग्रेस के लिए मजबूरी भी थी और विकल्पहीनता भी।
नेहरू-गांधी परिवार पर निशाना
उधर, कांग्रेस उन्हें फिर से अध्यक्ष बनाने के खेल में जुट गई है। इस बीच राहुल के अपने ‘दरबार’ के अनेक दरबारी धराशायी होकर बिखर चुके हैं और कांग्रेस के अन्दर सोनिया बनाम राहुल के भरोसेमन्द लोगों वाली बहस भी कहीं गुम हो गई है। इस परिवार को ‘घेरने’ के लिए सरकार और बीजेपी ने सामान्य शिष्टाचार छोड़कर उन गोपनीय दस्तावेजों की जानकारियों का इस्तेमाल करना भी शुरू किया है जो सत्ता में बैठे होने के चलते उसे हासिल हुई हैं। अगर ऐसी गड़बड़ थी तो छह साल के शासन के दौरान कार्रवाई क्यों नहीं शुरू हुई?
ऐसे मामलों में राजीव गांधी फाउंडेशन को मिले चन्दों की जानकारी, आपातकाल के मामले को जोर-शोर से उठाना और कांग्रेसी शासन के दौरान कारगिल के कुछ इलाकों को चीन को सौंपने का कथित प्रस्ताव भी है जिसे तत्कालीन सेना प्रमुख और रक्षा सलाहकार के कहने पर टाल दिया गया। ये बातें ऐसे बताई जा रही हैं जैसे रक्षा सलाहकार किसी और सरकार का था और सरकार बस चीन को सब कुछ देने ही वाली थी।
राहुल और कांग्रेस की वापसी सिर्फ इन्हीं कारणों से नहीं हुई है। असल में हाल की बड़ी घटनाओं पर सरकार और उसके नेता की जिस तरह पोल खुली है, उसने यह बताया है कि देश और शासन संभालना आसान काम नहीं है।
नरेन्द्र मोदी ने नोटबन्दी से देश का जितना नुकसान किया उससे कई गुना नुक़सान ‘करोनाबन्दी’ से हुआ है।
आर्थिक, प्रशासनिक और स्वास्थ्य संबंधी नुकसान के साथ प्रधानमंत्री और उनकी टोली ने देश के करोड़ों गरीब प्रवासियों की जो दुर्गति कराई, वह अकल्पनीय है। कोई शासन अपने इतने लोगों को भूल जाए, उनके ख़िलाफ़ ऐसे-ऐसे फ़ैसले करे यह कल्पना से बाहर की चीज है।
शुरू में सरकारी फ़ैसले के ख़िलाफ़ कुछ न बोलकर सोनिया, राहुल और प्रियंका ने जिस तरह प्रवासियों के मसले पर सरकार को चित और नंगा किया, वह बहुत ही कुशल रणनीति का काम था। प्रवासियों के भाड़े पर आनाकानी होने पर कांग्रेस की तरफ से भाड़ा देने की पेशकश में मोदी ही नहीं नीतीश कुमार जैसे लोग भी चित हो गए।
लेकिन बीजेपी और संघ परिवार ने चीन से निपटने और पाकिस्तान या नेपाल की तरफ से दिख रहे खतरे को भूलकर जिस तरह से नेहरू-गांधी परिवार पर हमला जारी रखा, उससे सोनिया, राहुल और कांग्रेस की उनकी फौज़ के आक्रामक रवैये को बुरा बताने का आधार नहीं बचा। सरकार की मुख्य ताकत अगर इसी ‘दुश्मन’ पर लगे तो इसे बड़ा मानना ही पड़ेगा।
राहुल को आम चुनाव के बाद से अब तक अपने अपने बिल में समाए अन्य विपक्षी नेताओं और दलों के व्यवहार से भी लाभ हुआ है। बीच-बीच में ममता बनर्जी कुछ बोल रही थीं पर कोरोना और अंफन ही उनसे नहीं सम्भल रहा है। राज्यपाल और बीजेपी को सम्भालने की उनकी परीक्षा अभी बाक़ी है।
नीतीश कुमार विपक्ष के पीएम मैटेरियल से कब बीजेपी की गोदी का खिलौना बन गये, किसी को पता भी नहीं चला। देश में कोई कम्युनिस्ट आन्दोलन भी कभी था आज बताना मुश्किल है। और मंडल आन्दोलन के सारे चैम्पियन कहां छुपे हैं किसी को पता नहीं है। ऐसे में लगातार मोर्चे पर सक्रिय रहकर राहुल अगर नए सिरे से उभर रहे हैं तो इसमें उनकी, उनके परिवार की, उनकी मंडली की समझ और साहस तो है ही, सरकारी पक्ष की रणनीति की चूक और असफलताओं का बड़ा योगदान भी है।
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