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गिरिराज सिंह को विवादों में मजा आता है। वह फिर एक विवादास्पद ट्वीट के चलते विवादों में हैं। कारण शायद यह है कि वह इसी रास्ते नेता बने हैं। और अभी भी बिना जनाधार के वह राज्य का मुख्यमंत्री बनने का सपना देखते हैं। ऐसा लगता है कि उन्होंने इसी योजना के तहत कभी खूंखार माने जाने वाले रणबीर सेना के प्रमुख ब्रह्मेश्वर मुखिया की बरसी पर उन्हें शहीद बताते हुए ‘कोटि कोटि नमन’ का ट्वीट किया।
ब्रह्मेश्वर मुखिया पर दलितों और नक्सलियों के कई नरसन्हार कराने के आरोप हैं। उन पर 277 लोगों की हत्या का आरोप था, और उस पर 22 मुक़दमे चल रहे थे। इन बाइस में से सोलह मामलों में उसे ‘सबूत के अभाव’ में बरी कर दिया गया था जबकि छह में ज़मानत मिल गई थी। कहते हैं कि जब वह एक नरसंहार के मामले में जेल में था तो बथानी टोला नरसंहार मामले में पुलिस ने अदालत को यह कह कर गुमराह किया कि उसका पता ही नहीं है। और इस तरह वह बरी हो गया। ज़मानत पर रहने के दौरान ही एक सुबह उसे पाँच गोलियाँ मारी गईं और 1 जून 2012 को उसकी मौत हो गई।
गिरिराज ने तब भी उसे गाँधीवादी बताया था। तब भी काफ़ी बवाल हुआ था। बवाल तो आरा, भोजपुर और पटना समेत काफ़ी जगहों पर हुआ और अपने ‘बिरादरी’ के नेता की हत्या से नाराज़ बिरादरों को सम्भालने गए पूर्व केन्द्रीय मंत्री सी. पी. ठाकुर और पूर्व विधायक रामाधार शर्मा को लोगों की नाराज़गी झेलनी पड़ी थी और उनकी गाड़ियों को नुक़सान हुआ। मुश्किल से पुलिस ने उन्हें बचाया। और उसी बिरादरी के सम्मानित पुलिस अधिकारी अभ्यानन्द ने उस दिन स्थिति सम्भाली और लोग ब्रह्मेश्वर मुखिया का संस्कार करने को राज़ी हुए। लोग मुखिया को बचाने में शासन की असफलता और हत्यारे को तत्काल पकड़ने की माँग कर रहे थे। राज्य सरकार सचमुच थर-थर काँप रही थी।
आठ साल बीतने, बिहार पुलिस की जगह सीबीआई को मामला सौंपने और दस लाख का इनाम रखने के बावजूद आज तक ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या का कोई सुराग नहीं मिला है। उसकी हत्या से किसे फ़ायदा हुआ, इस सामान्य तर्क का इस्तेमाल भी सबसे होशियार समझी जानेवाली बिरादरी के लोग नहीं करते। 277 हत्याओं में से किसी का बदला लेने की बात भी हो सकती है लेकिन अब न वहाँ नक्सलवाद उस तरह बचा है न दलितों में इतनी कूबत हो गई दिखती है।
अचानक आठ साल बाद ब्रह्मेश्वर मुखिया की याद अकेले केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह को नहीं आई। जगह-जगह उनकी बरसी मनी, उनके हत्यारों के ख़िलाफ़ काफ़ी कुछ कहा गया। फ़ेसबुक और वाट्सऐप पर भी ख़ूब धूम रही। असल में इस सक्रियता की वजह चुनाव ही है और चुनाव से आस सिर्फ़ गिरिराज सिंह को नहीं है।
कोई मुख्यमंत्री पद पर निशाना लगा रहा है तो किसी को एमएलए का टिकट चाहिए। भूमिहार बिरादरी का वोट चाहिए जो संख्या में कम होकर भी प्रभाव ज़्यादा रखते हैं। और बीजेपी की अगड़ी राजनीति में भूमिहारों की सबसे ज़्यादा दखल है क्योंकि वही आँख मून्दकर लालू विरोध की राजनीति के अगुआ रहे हैं। अब यह मत गिनने लगिएगा कि इस राजनीति का नेतृत्व गिरिराज सिंह ने किया या इसमें उनकी प्रमुख भूमिका थी।
वह तो अपना कोयला टाल चलाते थे और लालू जी की सहायता से अपने फँसे ट्रक भी छुड़वाते थे। पर उन्होंने बयानों के सहारे चर्चा और दुकान के सहारे धन बटोरने का गुर जान लिया। और फिर एक बार जो आगे बढ़ने लगे तो केन्द्र में कैबिनेट मंत्री बनकर भी चैन नहीं है। अब वह मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं।
गिरिराज जी भाग्यशाली भी हैं। लोकसभा चुनाव में बिहार के उनके राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वियों ने उनका टिकट उनके प्रिय क्षेत्र से कटवा दिया था। इस घटना ने उन्हें हिला दिया था, वह बदहवास हो गये थे। उन्हें जब बेगूसराय से टिकट दिया गया तो उन्होंने चुनाव न लड़ने की धमकी दी और अनशन धरना पर बैठने को उतारू हो गये। लेकिन कमाल देखिए कि पुलवामा कांड से बनी मोदी लहर और बिहार में एकमात्र त्रिकोणात्मक लड़ाई का लाभ लेकर गिरिराज जीत गए और मोदी जी/अमित शाह के फेवरेट भूमिहार नेता मनोज सिन्हा चुनाव हार गए। गिरिराज की लॉटरी लग गई और वह उप मंत्री और राज्य मंत्री की जगह इस बार कैबिनेट मंत्री बन गए।
लेकिन एक बदलाव देखने में आया। गिरिराज सिंह की बयानबाज़ी कम हो गई, काम में लग गए। अपने चुनाव क्षेत्र बेगूसराय और बिहार में उनकी सक्रियता में काफ़ी कमी आयी। कोरोना काल में वह ऐसे छुपे कि पप्पू यादव ने पोस्टर लगवा दिये कि सबको पाकिस्तान भेजने वाले कहीं गिरिराज सिंह सचमुच में पाकिस्तान तो ग़ायब नहीं हो गए। एकमात्र प्रूफ़ लॉकडाउन में आई उनकी वह तसवीर थी जिसमें वह टांग पसारे दूरदर्शन पर धारावाहिक रामायण देख रहे थे। खैर।
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