कोरोना के चलते जारी वैश्विक उठापटक और आर्थिक मंदी की स्थिति में भविष्य के अनुमान संबंधी आंकड़े देना जोखिम का काम है। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने समय से पूर्व रिजर्व बैंक की छमाही समीक्षा, मौद्रिक नीतियों में बड़े बदलाव और अर्थव्यवस्था के भविष्य को लेकर कई घोषणाएं कीं तो इनमें आंकड़े सिरे से नदारद थे। यह पहली बार हुआ कि रिजर्व बैंक ने विकास दर जैसी प्राथमिक सूचना का अनुमान भी नहीं बताया ताकि आगे की तसवीर और फिर उस आधार पर लिए गए फ़ैसलों की समीक्षा की जा सके।
इससे एक दिन पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कोरोना संकट के नाम से ही एक बड़े आर्थिक पैकेज (1.70 लाख करोड़) की घोषणा की। इसके बाद शेयर बाजार से लेकर आम आदमी तक ने यह समझकर राहत महसूस की कि सरकार को कुछ व्यावहारिक और ज़रूरी कदम उठाने भी आते हैं। इस बार के पैकेज का ज्यादातर पैसा जरूरतमंदों के हिस्से में जाएगा, पर उससे स्थिति संभलेगी, इसमें शक है।
नोटबंदी तथा जीएसटी के फ़ैसलों की अपार असफलता और इससे हुए नुक़सान से कुछ भी सबक न लेने वाले हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिना तैयारी के और डेढ़ महीने देर से 21 दिनों का लॉकडाउन घोषित करके अर्थव्यवस्था को बड़ी चोट पहुंचाई है।
लॉकडाउन के इस क़दम का क्या असर होगा, इसकी कल्पना कर मन सिहर उठता है। भले ही रिजर्व बैंक कोई अनुमान न बताए पर दुनिया भर की संस्थाओं और अर्थशास्त्रियों के अनुमान आने शुरू हो गए हैं। विश्वप्रसिद्ध संस्था मूडीज ने भारत की जीडीपी में 2.5 फीसदी गिरावट की भविष्यवाणी की है। अगर हम इस साल अर्थव्यवस्था की विकास दर पांच से नीचे जाने का अनुमान कर रहे हैं तो उसमें ढाई फीसदी की गिरावट का क्या मतलब होगा?
शून्य तक पहुंचेगी विकास दर!
नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार का अनुमान है कि नये वित्त वर्ष की पहली तिमाही में विकास दर शून्य या ऋणात्मक हो सकती है। आर्गेनाइजेशन फ़ॉर इकनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट का अनुमान है कि गिरावट दो फीसदी की होगी। अरुण कुमार जैसे अर्थशास्त्री तो पहले से सरकारी आंकड़ों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने के साथ जीडीपी की गणना में असंगठित क्षेत्र का हिसाब शामिल न होने की बात करते हैं। उन्होंने कहा था कि हमारी अर्थव्यवस्था मंदी की गिरफ्त में आ चुकी है।
क्रेडिट स्विस के एशिया पैसेफिक इक्विटी स्ट्रेटेजी के प्रमुख नीलकंठ मिश्र का अनुमान है कि अभी काफी सारे संकेत हैं जो बताते हैं कि कोरोना से होने वाला नुक़सान और ज्यादा और लम्बे समय तक हो सकता है। लॉकडाउन 21 दिन में ही ख़त्म होगा, इसकी भी सम्भावना कम लग रही है।
मुश्किल होगा विदेशी पूंजी का आना
ज्यादा मुश्किल इस बात से आएगी कि विदेशी पूंजी का आना मुश्किल हो जाएगा, जो पिछले साल भर से हमारी ज़रूरत का एक तिहाई से ज्यादा हिस्सा हुआ करती थी। ऐसे में स्थिति बदतर होगी। दुनिया की आर्थिक गतिविधियों में कमी आने का हमारे निर्यात पर असर होगा। तेल की क़ीमतें गिरने से हमें कुछ राहत होगी। लेकिन जब आर्थिक गतिविधियां ही कम होंगी तो यह भी कितना लाभकारी होगा, कहना मुश्किल है।
पर जो नुक़सान मोदी “महाराज” के पिछले दो क़दमों से हुआ है और इस लॉकडाउन से होता नजर आ रहा है, वह स्थायी किस्म का है। ज्यादातर छोटे दुकानदार और कारोबारी स्थायी रूप से अपंग बने हैं और ऑनलाइन मार्केटिंग की क्या सीमा है और वह किस तरह हमारे बेरोज़गार नौजवानों की बेचारगी पर निर्भर है, यह लॉकडाउन ने दिखा दिया है। उसके भरोसे कितना व्यवसाय चलेगा, यह कोई भी सोच सकता है। बार-बार होने वाला लाखों लोगों का पलायन भी उपभोग और खपत की सामान्य प्रवृत्तियों को चौपट कर रहा है।
आर्थिक पैकेज भर से देश वापस पुरानी स्थिति में आ जाएगा, यह सम्भव नहीं लगता। हो यह रहा है कि चाहे प्रवासी मजदूर हों, स्वरोजगार वाले करोड़ों लोग या फिर पेंशन और बचत पर जीवन गुजारने वाले लोग, सभी अपनी बचत को ही निकालकर या उधार लेकर खा-पी रहे हैं। अर्थव्यवस्था के उत्पादक कामों में जाने की जगह बचत का यह इस्तेमाल आर्थिक रूप से नुक़सानदेह है।
लॉकडाउन और कोरोना संकट ने होटल और ट्रांसपोर्ट कारोबार को पूरी तरह से ठप कर दिया है और हालात के फिलहाल सामान्य होने की उम्मीद भी नहीं है। टेलीकॉम, रियल इस्टेट और ऑटोमोबाइल जैसे क्षेत्रों पर सबसे बुरी मार पड़ी है।
एफएमसीजी यानी दैनिक उपभोग की वस्तुओं की खपत भी प्रभावित हुई है। रियल इस्टेट सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देता है। ऑटोमोबाइल कम्पनियों से भी उत्पादन में कटौती की सूचना आ रही है। मोबाइल कम्पनियों की बदहाली जगजाहिर है पर उनके कामकाज और उनके यहां काम करने वालों के रोजगार से ज्यादा बड़ा खतरा यह है कि वे कॉल और डाटा महंगा करेंगी जिससे सारी संचार क्रांति के चौपट होने का ख़तरा हो सकता है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था बुरे हाल में
खपत में सबसे ज्यादा कमी ग्रामीण इलाक़ों से आ रही है। यह क्रम पहले शुरू हो गया था। पिछले दिनों ग्रामीण अर्थव्यवस्था और खास तौर पर खेती-किसानी की सबसे ज्यादा दुर्गति हुई है। मछलीपालन और मुर्गीपालन जैसे धन्धे तो एकदम चौपट हो गए हैं। फल-सब्जी की खेती पर भी बहुत मार पड़ी है। बेमौसम बरसात ने रबी की फसल को कितना नुक़सान पहुंचाया है, इसका हिसाब लगाने के पहले ही कोरोना का संकट खड़ा हो गया है। पंजाब जैसे राज्यों में फसल काटने और दाना निकालने वालों का अकाल हो गया है।
ऐसे में सरकार और रिजर्व बैंक की तरफ से हुई घोषणाएं अपर्याप्त मालूम पड़ती हैं। इतने से अर्थव्यवस्था को जीवित रखना मुश्किल होगा, गिरावट और अर्थव्यवस्था का सिकुड़ना तो जारी रहेगा ही और इसे रोकने के लिए ज्यादा बड़े पैकेज और मजबूत इरादों से काम करने की ज़रूरत है।
बाक़ी दुनिया क्या कर रही है और महाशक्ति अमेरिका और चीन क्या कर रहे हैं, इस पर नजर डालने से भी हमारी तैयारियों की कमी जाहिर होगी। अमेरिका ने अपनी जीडीपी के 10 फीसदी आकार का 2 ट्रिलियन डालर का पैकेज घोषित किया है जबकि हमारा पैकेज एक फीसदी से भी कम (0.90 फीसदी) है। कम से कम 4-5 फीसदी आकार का पैकेज ही मौजूदा संकट को सम्भाल पाएगा।
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