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प्रतीकात्मक तसवीर।

मुसलमानों से साफ़-साफ़ बात क्यों नहीं की जा रही है?

हिंदी की एक प्रतिष्ठित वेबसाइट (सत्य हिंदी.कॉम) में मुरादाबाद में हुए उस पागलपन को लेकर आलेख प्रकाशित हुआ है जिसमें वहां के एक मोहल्ले में इंदौर के टाटपट्टी-बाखल इलाक़े की तरह ही स्वास्थ्य और पुलिसकर्मियों पर हमला कर दिया गया। आलेख के लेखक इक़बाल रिज़वी ने तकलीफ़ ज़ाहिर की है कि इस समय मुसलमानों को ‘सॉफ़्ट टारगेट’ बनाकर पागलों की तरह व्यवहार करने पर मज़बूर किया जा रहा है! 

लेखक ने आरोप लगाया है कि ‘तब्लीग़ी जमात’ की आड़ में मुसलमानों का बुरा हाल किया जा रहा है और इससे प्रशासन के प्रति जो अविश्वास का भाव उनमें बढ़ रहा है, उसने यह हालात कर दिए हैं कि मुरादाबाद जैसा पागलपन सामने आ रहा है। आलेख में यह भी कहा गया है कि एक सुनियोजित झूठ को इतनी बार पूछा जा रहा है कि मुसलमान ‘बैकफुट’ पर आ गए हैं।

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मुसलमानों की देश के प्रति निष्ठा को लेकर इस समय जो कुछ भी चल रहा है उससे कई नए सवाल खड़े होते हैं। पहला सवाल तो यह कि आज़ादी के बाद के तमाम सालों में (साम्प्रदायिक दंगों की घटनाओं और कश्मीर को छोड़कर) इस तरह का आचरण या पागलपन मुसलिम बस्तियों में रहने वालों की ओर से क्या पहली बार प्रकट हो रहा है या पहले के भी ऐसे कोई उदाहरण हैं जिन पर कि राष्ट्रीय स्तर की बहसें भी हो चुकीं हैं?

मुसलमान बच्चों को पोलियो की दवा पिलाने या मलेरिया की दवा का छिड़काव करने या शहर को ‘नम्बर वन’ बनाने के लिए इन्हीं इलाक़ों में ‘अगर’ स्वास्थ्य या सफ़ाईकर्मी पहले भी गए हैं तो क्या तब भी ऐसी ही घटनाएं हुईं हैं? अगर हुईं हैं तो उनका पैटर्न क्या था? और अगर ऐसा पहली बार हो रहा है तो क्या उसके कारणों में जाने की जानबूझकर कोशिश नहीं की गई? 

दूसरा सवाल यह है कि हमलों को लेकर चल रही तमाम बहसों में मुसलमान समाज के उन्हीं लोगों की ज़्यादा भागीदारी क्यों हो रही है जो दूध को दूध और पानी को पानी कहने से हकलाते हैं?

तीसरा सवाल यह है कि जो कैमरे टीवी चैनलों के स्टूडियो के अंदर लगे हैं, वे हमलावरों के घरों के अंदर पहुँचकर उनसे उनके पागलपन का असली कारण क्यों नहीं पूछ रहे हैं? 

इंदौर के टाटपट्टी-बाखल इलाक़े के मुसलमानों के पश्चाताप से भी दुनिया को रूबरू करवाना चाहिए था। और अंत में यह कि देश का समूचा हिंदू समाज अगर विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं जैसा नहीं है तो समूची मुसलमान क़ौम कैसे तब्लीग़ी जमात, टाटपट्टी-बाखल और मुरादाबाद के लोगों जैसी हो सकती है? 

हम क्या ऐसा मानने को तैयार हो सकते हैं कि कोरोना की महामारी का आक्रमण अगर साल-छह महीने के बाद तब होता जब नागरिकता क़ानून और एनआरसी को लेकर मुसलिमों की शंकाओं के घाव भर गए होते तो क्या तब इस तरह की घटनाएं बिलकुल नहीं होतीं? शाहीन बाग़ चल रहा था तभी कोरोना हो गया और तभी तब्लीग़ी जमात का जमावड़ा भी हो गया। क्या कुछ अजीब सा नहीं लगता? 

कट्टरपंथी सिरफिरों ने किया नुक़सान

हुआ यह है कि जो एक और अवसर मुसलमानों को देश की मुख्यधारा के साथ एकाकार करने का मिला था उसे उन्होंने अपनी ही क़ौम के कुछ कट्टरपंथी सिरफिरों के कारण गंवा दिया। और फिर उसे बहुसंख्यक समाज के कुछ अनुदारवादियों ने लपक कर हथिया लिया और मीडिया के एक वर्ग ने भी उसे अपने एजेंडे का हथियार बना लिया।

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एक जो अंतिम सवाल ‘थर्ड पार्टी’ की तरफ़ से भी पूछने का बनता है, वह यह है कि इतनी बड़ी आबादी की नीयत और राष्ट्रीयता पर अगर देश के अधिकांश लोगों का ही यक़ीन गड़बड़ा रहा है तो फिर यह भी बताया जाना चाहिए कि इसका क्या इलाज किया जाए? 

साफ़-साफ़ क्यों नहीं बताया जा रहा है कि मुसलमानों से क्या करने को या कहाँ जाने को कहा जाए? और यह आदेश देश के संविधान की तरफ़ से कौन देगा? और अगर मुसलमान फिर भी यही कहते हैं कि हिंद की ज़मीन ही उनका ख़ुदा है तो उसके बाद किस तरह के दस्तावेज़ों की उनसे मांग की जानी चाहिए? 

अगर इन सभी सवालों के जवाब उपलब्ध हैं तो उन्हें बिना किसी विलम्ब के सार्वजनिक किया जाना चाहिए। कम से उस बड़ी जनसंख्या और उनके बच्चों का ख़याल करके, जो दोनों तरफ़ की उत्तेजक भीड़ के बीच मौन और निःशस्त्र खड़ी हुई है।

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श्रवण गर्ग
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