स्थापित सत्य है कि व्यवस्था निर्माण में अच्छी नीयत से अधिक सही नीति की आवश्यकता होती है। यह भी निर्विवाद है कि जहां लोकतंत्र में सत्ता = सेवा का मौका माना जाता है, वहीं अधिनायकवाद में सत्ता = सर्वज्ञता का पर्याय होता है। किसानों के लिए बनाए कानून में भारत सरकार इन दोनों यथार्थों से मुंह मोड़ गई।
किसान की कृषि, भक्तों का खालिस्तान, और मोदी की क्षमा याचना
- विचार
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- 21 Nov, 2021

तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन करने वालों को मोदी सरकार के समर्थकों ने खालिस्तानी, नक्सली, देशद्रोही क्यों कहा था? जानिए, अब इन क़ानूनों की वापसी के क्या हैं मायने।
यदि कानून बनाने से पहले ही मोदी सरकार लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप किसानों की सहमति ले लेती तो ‘हम समझा नहीं पाये’ का बहाना बनाकर माफी मांगने की नौबत नहीं आती। ऊपर से सरकार ने पिछले एक वर्ष से चलते आ रहे अहिंसक आंदोलन को बार बार खालिस्तानी, नक्सली, देशद्रोही आदि लेबल चस्पां कर अब माफी माँगकर खुद अपनी फजीहत करवा ली।
संसदीय लोकतंत्र से एक तरह का संख्यासुर पैदा होता है जो 49 को 0 और 51 को 100 दर्शाता है। मोदी सरकार संसद में भारी बहुमत के चलते इसी 51=100 के मुगालते में आ गई। इस संख्यासुर के चलते उसे संसद से कुछ ही मील दूर पर साल भर से तंबू गाड़ कर बैठे हजारों किसान भी नहीं दिखे और न ही 700 से अधिक आंदोलनकारियों की शहादत दिखी। सरकार को बस इतना दिख रहा था कि उसकी अच्छी नीयत से लाए हुए कानूनों का जो भी विरोध कर रहा है, उसी की नीयत गलत है।