नैंसी पेलोसी ने ताइवान पहुंच कर अमेरिका की प्रतिष्ठा बचा ली है अन्यथा चीन ने ऐसा नहीं करने की अंतिम चेतावनी दे रखी थी। व्यक्तिगत तौर पर यह नैंसी पेलोसी की बहादुरी है जो डोनाल्ड ट्रंप के काल में भी स्त्री स्वतंत्रता, नस्लभेद और लोकतंत्र के लिए मुखर आवाज़ रही थीं। जो बाइडेन के लिए भी यह अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में बतौर राष्ट्रपति खुद को मज़बूत दिखाने का अवसर बनकर आया है। अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की किरकिरी होने के बाद यह पहला मौका है जब अमेरिका ने यह दिखाया है कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में उसकी पकड़ कमजोर नहीं हुई है।
अलकायदा प्रमुख अल जवाहिरी को अफगानिस्तान में मार गिराने के बाद राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अमेरिका की धूमिल हुई प्रतिष्ठा की क्षतिपूर्ति अभी-अभी की है। अब ताइवान पर चीन से सीधे तकरार मोल लेकर अमेरिका ने वर्चस्व की लड़ाई में दक्षिण चीन सागर में मजबूत चुनौती रखने की ठान ली है।
अमेरिका की स्पीकर नैंसी पेलोसी ने ताइवान में प्रेस कॉन्फ्रेन्स कर स्पष्ट रूप से कहा है कि वह चीन और ताइवान दोनों देशों की सुरक्षा की चिंता करती है। दरअसल, यह रणनीतिक बयान है। इससे ज्यादा पेलोसी का स्पष्ट संदेश यह है कि अमेरिका और ताइवान के बीच मजबूत संबंध की ज़रूरत इससे पहले इतनी ज्यादा कभी नहीं रही थी। अमेरिका-ताइवान में व्यापारिक संबंध को मजबूत करने की भी बात उन्होंने कही है।
चीन का पड़ोसियों से पंगा!
कोरोना के बाद विश्व में रणनीतिक संतुलन नये सिरे से साबित होने की आवश्यकता बनी है। यूक्रेन के साथ युद्ध में रूस फंसा हुआ है। चीन की व्यापारिक महत्वाकांक्षाएं जो ‘वन बेल्ट वन रोड इनिशिएटिव’ के रूप में सामने आ रही थी, उस पर कोरोना ने ब्रेक लगाया। कोविड के बाद वैश्विक मंदी की ओर बढ़ती दुनिया अब चीन के व्यापारिक उद्देश्यों में रुकावट बन रही है। वहीं चीन के भी अंदरूनी आर्थिक हालात भी कोविड के बाद मजबूत नहीं हुए हैं जबकि इसका ढिंढोरा पीटा जा रहा था।
चीन को पड़ोसी देशों के साथ तनाव पैदा करने की नीति भारी पड़ रही है। भारत के साथ डोकलाम और फिर गलवान संघर्ष से चीन के पड़ोसी देश और सशंकित हुए हैं। इसके बावजूद चीन इस नीति से पीछे हटने को तैयार नहीं है।
श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह में 11 अगस्त से 17 अगस्त तक युद्धपोत की तैनाती का फैसला इसी दिशा में कदम है।
क्या करे भारत?
आपत्ति दर्ज किए जाने के बावजूद श्रीलंका हंबनटोटा का सैन्य इस्तेमाल करने की छूट देने को विवश है। चीन का यह कदम भारत को उकसाने की कार्रवाई है। मगर, भारत के लिए यह मुमकिन नहीं है कि वह अमेरिका की तरह चीन को जवाब दे। माना जा रहा है कि श्रीलंका के हंबनटोटा से चीन दक्षिण भारत तक अपनी पहुंच की धमक भारत को दिखाने वाला है।
अमेरिका और चीन के लिहाज से देखें तो ताइवान में अमेरिका ने और श्रीलंका में चीन ने अपनी सैन्य ताकत के बूते एक-दूसरे की हैसियत को चुनौती देने की कोशिश की है। लेकिन, इस कोशिश में भारत की प्रतिष्ठा भी दांव पर है। इसे इस तरह से समझ सकते हैं कि कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने कहा है कि भारत के लोकसभाध्यक्ष को भी चाहिए कि वह एक प्रतिनिधिमंडल के साथ ताइवान का दौरा करे।
निश्चित रूप से हंबनटोटा में चीन की प्रस्तावित सैन्य पहल के जवाब में भारत भी जवाबी कार्रवाई करे, इसकी आवश्यकता महसूस की जा रही है। अब तक भारत ने दुनिया को यह संदेश दिया है कि उसने चीन को डोकलाम और गलवान में रोके रखा। वहीं, चीन ने समय-समय पर दुनिया को बताया है कि उसकी सेना एलएसी को अपनी तरह से परिभाषित करने की कोशिश जारी रखेगी। भारतीय क्षेत्र में सड़क, कॉलोनी समेत रणनीतिक निर्माण इसी दिशा में पहल है।
ताइवान पर चीन को वरीयता देना छोड़ेगा भारत?
चीन के साथ संबंध की वरीयता रखते हुए भारत ने अब तक ताइवान के साथ राजनयिक संबंध तक स्थापित नहीं किया है। 1949 में चीन में कम्युनिस्ट शासन स्थापित होने के बाद भारत ने ताइवान के पास संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट होने को तार्किक नहीं माना। लेकिन, यह सीट खुद लेने से भी इनकार कर दिया। इसके पीछे पंडित जवाहरलाल नेहरू का तर्क था कि इससे पड़ोसी देश चीन के साथ स्थायी दुश्मनी की स्थिति बन जाएगी। लिहाजा भारत ने चीन को वीटो पावर देने की वकालत की।
1990 में भारत ने जब लुक ईस्ट पॉलिसी शुरू की, जो बाद में मोदी सरकार में एक्ट ईस्ट पॉलिसी के रूप में सामने आया, तब से ताइवान के साथ व्यापारिक संबंध लगातार मज़बूत हुए हैं और अनौपचारिक राजनयिक संबंध भी।
सन् 2000 में भारत-ताइवान के बीच 1 अरब डॉलर का कारोबार था, वह 2019 में बढ़कर 7.5 अरब डॉलर हो गया। 2018 में भारत-ताइवान के बीच विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर द्विपक्षी संबंध की शुरुआत हुई। ताइवान ने भारत में 2018 में 360 मिलियन डॉलर का निवेश भी किया। ये बातें दिखाती हैं कि भारत ने चीनी दबाव को नज़रअंदाज़ करने की ओर कदम बढ़ाया है।
अगर भारत पर दबाव बनाने के लिए चीनी हथकंडों से भारत-ताइवान संबंध में प्रगति की तुलना करें तो चीन अधिक आक्रामक रहा है। फिर भी भारत ने सशक्त विदेश नीति पर अमल ज़रूर किया है जिससे चीनी दबाव से मुक्त हुआ जा सके। इसमें रूस के साथ संबंध को बनाए रखते हुए अमेरिका से नजदीकी अहम है। खासकर अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वाड का संबंध विकसित करना उल्लेखनीय पहल है। 2017 के बाद से इस दिशा में तेजी से काम हो रहा है। कोविड काल के बाद मई 2022 में क्वाड की हुई बैठक में चारों देशों ने परस्पर मज़बूत संबंध को और मज़बूत करने का संकल्प लिया। चीन की भृकुटि इस पर तन गयी।
ताइवान में अमेरिकी स्पीकर नैन्सी पेलोसी की धमक ने दक्षिण एशियाई कूटनीति में उबाल ला दिया है। सामरिक मक़सद से चीन के लिए यह निर्णायक समय है। यही वजह है कि वह युद्ध तक के विकल्प के साथ सामने आ खड़ा हुआ है। ताइवान की घेराबंदी कर दी गयी है। साइबर अटैक भी शुरू हो चुका है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि फाइटर प्लेन की घेरेबंदी में पेलोसी को ताइवान तो अमेरिका पहुंचा सकता है लेकिन क्या वह ताइवान की संप्रभुत्ता की रक्षा कर पाएगा?
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