पूर्णिमा दास
बीजेपी - जमशेदपुर पूर्व
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हेमंत सोरेन
जेएमएम - बरहेट
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अगर नोटबंदी को लेकर आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला छह साल से ज्यादा समय बीतने पर भी चर्चा और राजनैतिक हंगामा बटोर रहा है तो तय मानिए कि अगले छह वर्षों तक ही नहीं कई दशकों तक इसके औचित्य और परिणामों के साथ यह फ़ैसला करने वाले नरेंद्र मोदी के राजनैतिक-आर्थिक विवेक पर चर्चा होती रहेगी। इसका मुख्य कारण तो यही है कि पूरी अर्थव्यवस्था पर इस फैसला का जितना और जैसा असर हुआ और अभी भी महसूस किया जा रहा है वैसा इस देश के आर्थिक इतिहास में बहुत कम फैसलों का हुआ है। और हैरानी की बात नहीं है कि फैसला करने और उसे लागू करने में आई शुरुआती परेशानियों के दौर में किए गए कुछ बदलावों के वक्त प्रधानमंत्री ने जो कुछ बातें राष्ट्र से कही थीं, जिनमें एक पखवाड़े में काला धन न निकालने पर चौराहे पर फांसी देने वाला बहुचर्चित बयान भी था, उनको छोड़कर बीते छह साल में खुद उनकी तरफ़ से कोई बयान या दावा नहीं आया है।
सरकारी आँकड़ों के आधार पर या अपनी सूझ से अधिकारियों, भाजपा के पदाधिकारियों, मीडिया के लाल-बुझक्कड़ों और भक्तों की टोली जरूर कभी काला धन कम होने, कभी कर वसूली बढ़ जाने, कभी कर चोरी कम होने, कभी इलेक्ट्रॉनिक ट्रांजेक्शन बढ़ने, कभी आतंकवाद की कमर टूटने तो कभी (काला धन वाले) बड़े-बड़े लोगों की हालत ख़राब होने जैसे नतीजों की घोषणा करते रहे हैं।
कहना न होगा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद प्रधानमंत्री, सरकार और भाजपा के साथ भक्त मंडली के लोगों को काफी राहत महसूस हो रही होगी। अदालत ने बहुत साफ ढंग से सरकार द्वारा फैसला लेने को सही ठहराया है। इससे नोटबंदी और उसके परिणाम को सही नहीं माना जा सकता लेकिन सरकार ऐसे बड़े कदम उठा सकती है, यह अदालत का साफ़ फ़ैसला है। जिस एक जज ने अपनी असहमति जताई है उनके इस कथन को भी अभी ठीक से देखना होगा कि क्या नोटबंदी जैसे बड़े और प्रभावी फ़ैसले की प्रक्रिया को संसद की चर्चा और फिर सार्वजनिक संज्ञान में लाकर प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकता था।
बजट में ऐसी गोपनीयता ज़रूर रखी जाती है और उसमें संशोधन भी कराए जाते हैं पर उसका कोई एक फ़ैसला आर्थिक और वित्तीय जीवन पर इतना बड़ा और प्रभावी असर नहीं छोड़ता। पहले जब सिगरेट और पेट्रोलियम जैसी एकाध चीजों पर कर बढ़ाने-घटाने का फ़ैसला होता था तब बाज़ार में कैसी हाहाकार मचाती थी, हमने देखा है। और कार्यपालिका के पास ‘लोक हित’ में फैसले होने के अधिकार को कौन चुनौती दे सकता है। बल्कि जस्टिस नागरत्ना की असहमति से भी ज्यादा सनसनी तब मची थी जब अदालत ने सरकार से फैसले लेने की प्रक्रिया से जुड़े प्रमाण पेश करने को कहा था। अब उसने सब कुछ देख सुनकर फैसला दिया है तो सरकार/कार्यपालिका के लिए बहुत राहत है। वैसे भी अदालत छह साल बाद इस फैसले को रद्द या गलत घोषित करके क्या हासिल करती या वैसा करना उसके अधिकार क्षेत्र में था, यह भी विवाद का विषय हो सकता था।
जस्टिस नागरत्ना ने इस सवाल पर जो टिप्पणी की है वह ज्यादा वजनदार है क्योंकि उनके अनुसार कानूनी हिसाब से यह प्रस्ताव सरकार की तरफ से नहीं, रिजर्व बैंक से ही आने चाहिए थे और मात्र 24 घंटे में सारी कवायद पूरी नहीं होनी चाहिए थी।
रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन भी कहते हैं (अपनी किताब ‘आई डू ह्वट आई डू’) कि सितंबर 2016 में उनके इस्तीफा देने तक नोटबंदी पर उनसे कोई चर्चा नहीं हुई थी और 8 नवंबर 2016 को फ़ैसला हो गया। इसके लिए दो हजार के नए नोट छापने और हर जगह पहुंचाने जैसे फैसले भी कब हुए, उन्हें नहीं पता। अब अदालत, सरकार और रिजर्व बैंक के बीच छह महीने की चर्चा और सारे वैधानिक प्रावधान पूरे होने का प्रमाण कहां से पा गई है। नोटबंदी का फ़ैसला आठ नवंबर को आया था और अगले दिन ही इसके खिलाफ मामला दर्ज हो गया था। अदालत ने अच्छा किया कि कुल 56 मामलों को एक संविधान पीठ बनाकर सौंप दिया था। देर से सुनवाई का भी अपना तर्क था, सरकारी फैसले के खिलाफ जाने की भी कोई जरूरत न थी लेकिन फैसला ऐसा होना चाहिए था जो शक-शुबहों से ऊपर होता।
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