बात सिर्फ़ इस बार की नहीं है। हर बार जब किसी अपराधी को फाँसी देने का अवसर आता है तो देश में एक अलग क़िस्म का जुनून छा जाता है। कहना न होगा कि इधर फाँसी की सज़ा मिलने का क्रम भी बढ़ा है। ‘रेयर ऑफ़ द रेयरेस्ट’ के नाम पर सिर्फ़ जान लेने के मामलों में ही नहीं, देशद्रोह या बलात्कार जैसे अपराधों के लिए न सिर्फ़ फाँसी की सज़ा दी जाने लगी है बल्कि जब ऐसे मामलों की सुनवाई चल रही होती है तभी से मीडिया, सोशल मीडिया और अन्य मंचों से फाँसी की माँग का ऐसा शोर मचता है कि जज भी उससे प्रभावित हुए बगैर नहीं रहते और एकाध मामलों में उन्होंने कबूल किया कि अदालती सबूत और गवाहियों से फाँसी लायक दोष साबित न होने पर भी उन्हें यह आख़िरी हथियार मुल्क के सामूहिक जुनून को देखते हुए करना पड़ता है।
गाँधी ज़िंदा होते तो निर्भया के दोषियों को क्या सज़ा दी जाती?
- विचार
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- 28 Jan, 2020

गाँधी का बहुत साफ़ मानना था कि अगर हम जान दे नहीं सकते तो हमें जान लेने का अधिकार नहीं है। उनके इस कथन और वाक्य प्रयोग को भी याद करना चाहिए कि ‘ऐन आई फ़ॉर ऐन आई विल मेक होल वर्ल्ड ब्लाइंड’ (आँख के बदले आँख पूरी दुनिया को अंधा बना देगा) जैसा हिंसक बदला पूरी दुनिया के नाश पर ही जाकर रुकेगा।
बात सिर्फ़ अदालतों की नहीं है। मीडिया भी इन मामलों को जुनूनी रंग देने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है क्योंकि उसकी रेटिंग चढ़ जाती है या उसकी प्रसार संख्या बढ़ जाती है। और ऐसे वक़्त अगर मानवाधिकार की परवाह करने वाला या सामान्य करूणा से भरा कोई व्यक्ति फाँसी के ख़िलाफ़ ज़ुबान भी खोलने की हिम्मत करता है तो उसे देशद्रोही और अपराध का संरक्षक जैसे विशेषणों से विभूषित कर दिया जाता है।