संसद के बजट सत्र में दिए राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस का जबाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू का नाम ज़रूर लिया (जिससे वे बचते रहते हैं)। लेकिन नागरिकता संशोधन क़ानून का सन्दर्भ लेते हुए ऐसी बात कह दी जिसकी गूंज काफी समय तक सुनाई देगी।
उन्होंने कहा कि नेहरू ने प्रधानमंत्री बनने की अपनी आकांक्षा में देश के नक्शे के ऊपर एक लकीर खींच दी और बँटवारे से अल्पसंख्यकों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ा। मोदी काफी होम वर्क करके आए थे और उन्होंने नेहरू लियाक़त समझौते का ही नहीं, नेहरू द्वारा असम के मुख्यमंत्री गोपीनाथ बार्दोलोई को लिखी एक चिट्ठी का हवाला भी दिया जिसके अनुसार नेहरू ने उनको हिन्दू-मुसलमान शरणार्थियों में से हिन्दुओं का ज़्यादा ख़याल रखने को कहा था।
नेहरू ने किया भेदभाव?
अल्पसंख्यक सुरक्षा नेहरू सरकार ही नहीं सारी सरकारों की चिंता का विषय रहा है, लेकिन ऐसा भेदभाव बरतने का निर्देश नेहरू ने दिया होगा, यह मानना मुश्किल है। उनका आरोप था कि नेहरू मुसलमान तुष्टिकरण कर रहे थे और यह समझौता उसी पर मोहर लगाता है। अब या तो उनका कहना सही था या 70 साल बाद नरेन्द्र मोदी का कहना। मोदी जी को पहले इसकी सफाई देनी चाहिए।जिन्ना की आत्मा अगर कहीं होगी तो बहुत खुश होगी कि आज़ादी के 72 साल बाद ही सही, हिन्दुस्तान की संसद ने भी हिन्दू-मुसलमान भेद को क़ानूनी रूप में मान लिया और हिन्दुस्तान में ग़ैर-मुसलमानों को ख़ास दर्जा दे दिया।
दो-कौम सिद्धांत
कम लोग जानते हैं कि दो कौम सिद्धांत अल्लामा इकबाल ने दिया, मुसलिम लीग ने स्वीकार किया और भारी हंगामे और मारकाट तथा करोड़ों लोगों के जीवन में उथल-पुथल मचाते हुए इसे अंग्रेज़ों के सहयोग से मुहम्मद अली जिन्ना ने लागू करवा लिया। लेकिन सचाई यह है कि इस सिद्धांत के जनक विनायक दामोदर सावरकर थे।बँटवारे का श्रेय किसे?
विभाजन का मुख्य श्रेय तो जिन्ना को, लीग को और सत्ता के लिए बेचैन हो गए कांग्रेसियों को ही देना होगा, जिसके आगे गाँधी और ख़ुद को उनका अनुयायी बताने वाले कांग्रेसी भी (जिनमें तब के कांग्रेस अध्यक्ष जे. बी. कृपलानी भी शामिल हैं) भी विभाजन मानने को विवश हुए। अकेले ख़ान अब्दुल गफ्फ़ार ख़ान थे, जिन्होंने विभाजन के ख़िलाफ़ मत दिया था।कौन था गुनहगार?
डॉ. लोहिया की किताब ‘भारत विभाजन के अपराधी’ का फोकस कांग्रेसी गुनहगारों पर है तो जे. बी. कृपलानी ने अपनी आत्मकथा में काफी जगह आज़ाद की बातों के खंडन-मंडन में लगाया है। राजमोहन गान्धी ने तो ‘इंडिया विंस एरर’ में आज़ाद की किताब को लगभग षडयंत्र बता दिया है।मुसलिम लीग और कांग्रेस के अलावा कुछ मामूली हैसियत रखने वाले लोग भी थे, जो दो कौमी नज़रिए को बढ़ाने में जुटे थे। इनमें ही संघ परिवार है, रजवाड़े थे, हमारे कम्युनिस्ट भाई थे, सिखों का प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले कुछ और लोग भी थे।
कांग्रेस में ही गाँधी का विरोध
यह दिलचस्प ‘संयोग’ है कि जिन्ना-लियाकत-लीग की सक्रियता बढ़ना और कांग्रेस के अन्दर गाँधी का अनादर-विरोध बढ़ना, संघ परिवार, कुछ दलित गुटों की सक्रियता, रजवाड़ों का षडयंत्र जैसी सारी बातें नमक सत्याग्रह में गाँधी के प्रयोग की सफलता के बाद ही शुरू हुईं। इस सत्याग्रह में गाँधी के लोगों को काफी कष्ट उठाना पड़ा, फौज-हवाई बमबारी तक झेलनी पड़ी। पर यह साफ़ हो गया कि अब ब्रिटिश हुकूमत चलाना कठिन हो गया है।गाँधी के अपने लोग उनसे दूर होने लगे और शासन ने गाँधी-इर्विन समझौते को तो दरकिनार किया ही, ऐसी हर ताक़त को उकसाना शुरू किया जो गाँधी को, कांग्रेस को और मुल्क को नुक़सान पहुँचाती।
खुला खेल
गाँधी ने कांग्रेस की सदस्यता दिखावे के लिए नहीं छोड़ी थी। अगर उनको कांग्रेस को नमक सत्याग्रह के लिए राज़ी करने में कुछ परेशानी हुई थी तो ‘भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव पास कराने में लगभग साल भर का समय लगा। इस आन्दोलन ने और साफ़ किया कि देश के आम लोग किधर थे और लीग-संघ, कम्युनिस्ट, रजवाड़े, कई दलित हितैषी और सत्ता के इशारे पर चलने वाले किधर।1942 के बाद तो खुला खेल फर्रुखाबादी हो गया। जो कांग्रेसी सरकारों में गए, वे किसी क़ीमत पर सत्ता से बाहर होने को तैयार न थे- उनके भी ब्रिटिश शासन से सीधे रिश्ते बन गए थे।
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