इसलामाबाद सिक्योरिटी डायलॉग (बुधवार, 17 मार्च) में इमरान खान ने कहा कि भारत को पाकिस्तान से सम्बंध सुधारने के लिये पहला कदम उठाना चाहिये। प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते वक़्त भी उन्होंने कहा था कि भारत यदि दोस्ती के लिये एक कदम उठायेगा तो वे दो कदम आगे बढ़ेंगे। डायलॉग के अंतिम दिन सबसे महत्वपूर्ण था पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल बाज़वा का बयान जिन्होंने कहा कि अब समय आ गया है जब हमें अतीत की तल्खियों को दफ़्न कर आगे बढ़ने की सोचना चाहिये।
बदले हुए तेवर
स्वाभाविक था कि हर बार की तरह इस मौक़े पर भी दोनों ने जम्मू कश्मीर का ज़िक्र किया और दोनों की नज़र में यही भारत - पाकिस्तान के बीच सम्बंधों मे बिगाड़ का मुख्य कारण है, पर इस बार इस बार उनके तेवर बदले हुए से थे। दोनो में से किसी ने भी कश्मीर के संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव या बातचीत में हुर्रियत कांफ्रेंस को भी शामिल करने जैसे विवादास्पद मुद्दे नही उठाये।
भारत में एक आम धारणा है और जो काफ़ी हद तक सही भी है कि पाकिस्तान में सुरक्षा और विदेश नीति सम्बंधी महत्वपूर्ण फ़ैसलों में, ख़ास तौर से यदि उन का सम्बंध भारत से हो तो, पाकिस्तानी सेना का इनपुट सबसे निर्णायक होता है।
व्यापार
अपने भाषण में इमरान ख़ान ने एक ऐसी बात कही जो बिना सेना की सहमति से नहीं कही जा सकती थी। इमरान ने कहा कि पाकिस्तान से दोस्ती भारत के हित में इसलिये भी है कि इससे उसे पाकिस्तान के रास्ते ऊर्जा समृद्ध सेंट्रल एशिया तक रास्ता मिल जाएगा जो उसके आर्थिक विकास में सहायक होगा। यह एक बहुत पुराना मुद्दा है, जिसे भारत से भी अधिक अफ़ग़ानिस्तान उठाता रहा है।
भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच पारम्परिक रूप से व्यापार पाकिस्तान के रास्ते सड़क मार्ग से होता रहा है। यह दोनों पक्षों के लिये फ़ायदेमंद है, एक तरफ़ जहाँ भारत – अफ़ग़ानिस्तान को एक कम खर्चे वाला सड़क मार्ग मिलेगा, वहीं पाकिस्तान को भी तमाम शुल्कों के रूप मे अच्छी ख़ासी कमाई होगी।
अभी सीधा सड़क मार्ग उपलब्ध न होने के कारण यह व्यापार लम्बे, खर्चीले मार्गों से और अधिकतर अवैध चैनलों से होता है। साल 1971 के बाद अलग अलग वक़्तों पर भिन्न कारणों से यह रास्ता खुलता बंद होता रहा है। कारगिल युद्ध (1999) के बाद छोटे अपवादों को छोड़ कर यह बंद ही रहा है।
फ़ौज का बदला मिजाज
आसिफ़ अली ज़रदारी और नवाज़ शरीफ़ की पिछली दो निर्वाचित सरकारों ने रास्ते को खोलने की बाक़ायदा घोषणा की और हर बार उन्हें अपना फ़ैसला वापस लेना पड़ा। कभी भी फ़ौज ने उन्हें आगे बढ़ने की इजाज़त नहीं दी।
इस बार अगर इमरान ने स्वयं ही यह सुझाव दिया है तो इस के पीछे सिर्फ़ ख़राब पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था को सुधारने की सदिच्छा नहीं, बल्कि जनरल बाज़वा के नेतृत्व वाली फ़ौज का बदला मिज़ाज है जो भारत से युद्ध की व्यर्थता समझने लगा है।
युद्धविराम
इस बीच बिना शोर मचाये दो महत्वपूर्ण घटनायें घटीं। अचानक 25 फ़रवरी को दोनो देशों के डीजीएमओ ने घोषित किया कि उन्होंने 2003 में एलओसी पर हुये युद्धविराम समझौते को लागू करने का फ़ैसला किया है। इस समझौते की पिछले कुछ वर्षों से धज्जियाँ उड़ रहीं थीं।
2018 में 2000, 2019 में 3400 और 2020 में 5,000 से अधिक बार युद्ध विराम के उल्लंघन हुये हैं। कोई नहीं मानेगा कि यह समझौता बिना सरकारों की भागीदारी के सेना मुख्यालयों मे बैठे अधिकारियों ने कर लिया है। चर्चा थी कि दोनो देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों ने किसी तीसरे देश में बैठक कर यह महत्वपूर्ण फ़ैसला लिया था।
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ट्रैक टू डिप्लोमेसी?
एक दूसरे महत्वपूर्ण घटनाक्रम के तहत भारत ने अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं मे भाग लेने के लिये पाकिस्तानी खिलाड़ियों को वीज़ा देना शुरू कर दिया है। इसी महीने घुड़सवारी और निशानेबाज़ी के पाकिस्तानी खिलाड़ियों को भारतीय वीज़ा दिया गया जब कि पिछले साल अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का ख़तरा मोल लेते हुये भी पाकिस्तानी शूटर्स को दिल्ली आने का वीज़ा नही दिया गया था।
ये दोनों घटनायें इंगित करती है कि नेपथ्य में कोई खिचड़ी पक ज़रूर रही है। ऐसे ही नहीं कहा जाता कि पाकिस्तान में सेना और भारत में संघ परिवार अगर चाह ले तो दोनो देशों के सम्बंध सुधर सकते हैं। इन्हीं दोनों के पास वह वीटो भी है, जो बनते बनते भी सम्बन्धों को बिगाड़ सकता है।
पहले भी कई बार हो चुका है कि जब लगा कि अब सम्बंध सुधर रहे हैं और तभी कभी करगिल हो गया, कभी पठानकोट और कभी पुलवामा। इस बार अच्छा है कि बिना किसी शोर शराबे के सब कुछ पर्दे के पीछे हो रहा है। चाहे यह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के स्तर पर हो रहा है या विदेश मंत्रियों के स्तर पर, यह अच्छा ही हो रहा है।
सावधानी सिर्फ़ यही बरतनी है कि इस प्रक्रिया को कोई उलट न दे। अच्छी बात है कि भारत में लोकसभा के चुनाव अभी दूर हैं और पाकिस्तानी सेना का नेतृत्व पहले के मुक़ाबले कम भारत विरोधी है। बार- बार छले जाने के बावजूद हमे शांति को एक और मौक़ा ज़रूर देना चाहिए।
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