देश की सीमाओं की रक्षा करना सरकार का एक महत्वपूर्ण दायित्व होता है। अक्सर सरकार की लोकप्रियता के भिन्न पैमानों में एक यह भी होता है कि उसने सीमाओं की रक्षा किस हद तक की है। यह अलग बात है कि ज़मीन पर सीमा निर्धारण से लेकर उसकी हिफ़ाज़त के तौर-तरीक़ों तक की समझ विकसित करने में सरकारें ही जनता की ‘मदद’ करती हैं। कई बार यह मदद एक ऐसे दुश्चक्र का निर्माण कर देती है जिसमें फँस कर सरकारें सीमा से जुड़े दूसरे महत्वपूर्ण दायित्व को नज़रअंदाज़ करने लगती हैं। वे यह भूल जाती हैं कि जितना महत्वपूर्ण सीमाओं की रक्षा है उससे कम अपने पड़ोसियों के साथ चल रहे सीमा विवादों का हल ढूँढना नहीं है।
सीमा विवाद सुलझाने हैं तो अंधराष्ट्रवाद की भूलभुलैया से निकलें
- विचार
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- 23 Feb, 2021

1962 की शर्मनाक हार का देश के मनोबल पर क्या असर पड़ा, हमें कभी भूलना नहीं चाहिये। बजाय इतिहास को दोहराते हुए सरकार को युद्ध के लिए कूद पड़ने को मजबूर करने के हमें उसे याद दिलाते रहना होगा कि उसके लिये जितना ज़रूरी सीमाओं की हिफ़ाज़त करना है उससे कम ज़रूरी सीमा विवादों को हल करना नहीं है।
एक राष्ट्र राज्य के रूप में भारत के सामने सीमा चुनौतियाँ दो काल खंडों में आयीं। पहली तो एक उपनिवेश के रूप में मिली जब दिल्ली पर क़ाबिज़ एक तत्कालीन विश्व ताक़त ने आसपास के कमज़ोर शासकों से अपने अंतरराष्ट्र्रीय हितों को ध्यान में रख कर सीमा समझौते किये। इनमें दो सबसे महत्वपूर्ण थे।