एक पाकिस्तानी चैनल पर बहस ख़त्म करते हुए स्तंभकार, क्रिकेट प्रशासक और गाहे ब गाहे राजनीति में भी सक्रिय नज़म सेठी ने देश के क्षितिज पर उभर रही उस काली आँधी का ज़िक्र किया जिसे ज़्यादातर लोग नज़रअंदाज़ करते हुए शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन ज़मीन में गड़ा कर उसके गुज़र जाने की कामना कर रहे हैं। तहरीक ए लब्बैक पाकिस्तान नामक देश पर छा जाने को आतुर यह काली आँधी किसी शून्य से नहीं उपजी है। इसका सीधा रिश्ता पाकिस्तान के जन्म से जुड़े तर्कों से है।
पाकिस्तान और इज़राइल दुनिया के ऐसे दो मुल्क हैं जिनका जन्म धर्म के आधार पर हुआ है। दुर्भाग्य से पाकिस्तान में तो जन्म के बाद से ही कट्टरपंथी अपने अस्तित्व को बचाने के लिये धार्मिक प्रतीकों का उपयोग अलग अलग रूपों में करते रहे हैं। पहला बड़ा उन्मादी उभार साठ के दशक में अहमदियों के ख़िलाफ़ हुआ जब मुल्क के बहुत से शहरों में पहली बार मार्शल ला लगाना पड़ा था। इस आंदोलन के नतीजतन अहमदियों को न सिर्फ़ ग़ैर-मुसलिम घोषित किया गया बल्कि आज तक पाकिस्तानी संविधान में ऐसे किसी परिवर्तन के प्रयास पर हिंसा हो सकती है जिसके माध्यम से अहमदियों और मुसलमानों के बीच फ़र्क़ को धुंधला करने का प्रयास किया जाता हो।
आज का तहरीक ए लब्बैक पाकिस्तान इसी तरह का एक आंदोलन है जो ख़त्मे नबूवत के बहाने राज्य मशीनरी पर क़ब्ज़ा करने का प्रयास करता लगता है। ख़त्मे नबूवत का मतलब यह विश्वास करना है कि मोहम्मद साहब अल्ला के भेजे आख़िरी पैग़म्बर हैं और उनके बाद कोई पैग़म्बर नहीं आयेगा। भारतीय पंजाब के कादियान क़स्बे में जन्मे मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद के अनुयायियों की सोच थोड़ी भिन्न है और यही भिन्नता उनमें और कट्टरपंथियों में संघर्ष का बायस बनती रहती है। यह एक दिलचस्प अंतर्विरोध है कि पाकिस्तान आंदोलन में अहमदियों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था और जिन्ना के एक निकट अनुयायी और पाकिस्तान के पहले विदेश मंत्री सर जफरुल्ला ख़ान इसी समुदाय से आते थे।
पाकिस्तान बनने के बाद जब भी किसी राजनैतिक गिरोह को वैधता की ज़रूरत पड़ी उसने मुल्ला का सहारा लिया है। इसमें ख़ास तौर से सेना को हमेशा मुल्ला की ज़रूरत पड़ी है। चूँकि वे जनता से चुन कर नहीं आते हैं, उन्हें धर्म ही वैध करता है। जनरल जियाउल हक़ ने तो इस्लामीकरण की जो आँधी चलायी उसने देश की ऐसी तबाही की कि आज तक उससे उबरना संभव नहीं हो सका है। यह तो दिसंबर 2014 में पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल के डेढ़ सौ से अधिक बच्चों का क़त्ल था जिसने पाकिस्तानी चेतना को इस कदर झकझोरा कि सेना, ख़ुफ़िया इदारों और राजनीतिज्ञों को कट्टरपंथियों के विरुद्ध एक पेज़ पर आने के लिए मजबूर कर दिया और फिर पाकिस्तानी सेना ने बड़ी क्रूरता से जिहादियों का सफ़ाया किया।
ईश निंदा क़ानून के अंतर्गत उन दिनों एक असहाय ईसाई औरत आसिया बीबी मृत्युदंड की प्रतीक्षा कर रही थी और तासीर उसे झूठे मुक़दमे से बरी कराने की पैरवी कर रहे थे। हत्यारा मुमताज़ क़ादरी पाकिस्तानी समाज के बड़े हिस्से के लिए नायक बन कर उभरा।
इन्हीं दिनों टीएलपी और उसके नेता ख़ादिम हुसैन रिज़वी का पाकिस्तान के क्षितिज पर उदय हुआ। एक छोटी सी बरेलवी मसजिद का वेतन भोगी इमाम रिज़वी अपनी वक्तृता से देश भर में छा गया। उसने अपने भाषणों से मुमताज़ क़ादरी को इतना लोकप्रिय कर दिया कि बड़ी ज़द्दोज़हद के बाद जब जनवरी 2016 में सरकार उसे फाँसी पर लटका पायी तो कहा गया कि उसका जनाज़ा पाकिस्तान बनने के बाद का सबसे बड़ा जनाज़ा था।
इस बीच ख़ादिम हुसैन रिज़वी ने टीएलपी को एक राजनैतिक दल के रूप में रजिस्टर भी करवा लिया था और अपनी महत्वाकांक्षाओं का खुलेआम प्रदर्शन भी करने लगा था। पहला बड़ा मौक़ा उसे मिला नवंबर 2017 में जब उसने मुसलिम लीग (नवाज़) की सरकार पर यह आरोप लगाते हुए कि वे खत्मे नबूवत को संविधान से हटाने की कोशिश कर रहे हैं, इस्लामाबाद के रास्ते बंद कर दिए। उसे खुलेआम सेना का समर्थन मिला जिसने सरकार को बल प्रयोग न करने के लिये लगभग मज़बूर सा कर दिया। नतीज़तन सरकार को घुटने टेकने के लिए मजबूर होना पड़ा। एक मंत्री की बलि देनी पड़ी और टीएलपी के मुँह में ख़ून लग गया।
कट्टरपंथियों को पाकिस्तानी समाज में मुद्दों के लिए ज़्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ता। आख़िरी मौक़ा उन्हें फ़्रांस ने प्रदान कर दिया।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता फ़्रांस में एक बड़े मूल्य के रूप में ली जाती है। मोहम्मद साहब के कार्टून ऐसा ही एक विषय है जिस पर फ़्रांसीसी और पाकिस्तानी समाज एक-दूसरे के विपरीत ध्रुवों पर खड़े दिखते हैं। फ़्रेंच पत्रिका शार्ली एब्दो में छपे मोहम्मद साहब के कार्टूनों पर पूरी मुसलिम दुनिया में जो विवाद छिड़े उनका सबसे ज़्यादा असर पाकिस्तान में पड़ा। ख़ादिम हुसैन रिज़वी ने धरनों और प्रदर्शनों के ज़रिये सरकार पर दबाव डालना शुरू कर दिया कि वह फ़्रांस के राज़दूत को देश से बाहर निकाल दे, अपना राजदूत वापस बुला ले और उसके सामानों का बहिष्कार कर दे।
पिछले फ़ैज़ाबाद धरने के दौरान टीएलपी का खुल कर समर्थन करने वाले इमरान ख़ान के लिए इस बार सांप छछून्दर जैसी स्थिति आ गयी। यह वायदा करके कि अगले छह महीनों में राष्ट्रीय असेम्बली से अनुमति ले कर फ़्रांस के राजदूत को वापस भेज दिया जाएगा, सरकार ने टीएलपी का धरना फ़ौरी तौर पर तो ख़त्म करवा दिया पर जब छह महीनों की मीयाद ख़त्म होने लगी तो उसके हाथ पाँव फूल गये। इस बीच ख़ादिम हुसैन रिज़वी का इंतक़ाल हो गया पर बिना किसी बड़ी बाधा के उसके बेटे शाद रिज़वी के हाथ में नेतृत्व आ गया।
स्वाभाविक रूप से शाद को अपना नेतृत्व साबित करने के लिए ज़्यादा आक्रामक तेवर अपनाने पड़ रहे हैं। इस बार टीएलपी ने फिर से सड़कों पर उतरने की ठानी तो सरकार को न चाहते हुए भी सख़्त क़दम उठाने पड़े और कई दिनों के ख़ूनख़राबे के बाद सड़कों पर शांति लौट सकी। टीएलपी प्रतिबंधित कर दी गयी है और उसका अमीर जेल में है पर कट्टरपंथियों के ख़िलाफ़ हमेशा ढुलमुल रवैये के शिकार रहे इमरान ख़ान कब उनके सामने समर्पण कर देंगे, नहीं कहा जा सकता।
पुराने नौकरशाह और रैडिकल इस्लाम से सहानुभूति रखने वाले ओरिया मक़बूल जान ने एक टीवी कार्यक्रम में कहा कि टीएलपी अगले चुनाव में किंग मेकर होगी। उनके अनुसार उसे मुख्यधारा में शामिल होने की इजाज़त मिलनी चाहिए। इसी तरह का तर्क विपक्ष में बैठे इमरान ख़ान तालिबान के लिए देते थे, वे चाहते थे कि तालिबान को खुलेआम अपने दफ़्तर बनाने की इजाज़त मिलनी चाहिए। पिछले हफ़्ते कराची के एक उपचुनाव में टीएलपी ने सत्ता पार्टी पीटीआई से अधिक वोट हासिल किए हैं। संकेत स्पष्ट हैं, हमारे पड़ोसी क्षितिज पर एक काली आँधी उठ रही है जिससे पूरे उप महाद्वीप को सतर्क रहना होगा।
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