चुनाव जीतकर सत्ता प्राप्त करने और फिर ‘इच्छा-शासन’ का वरदान प्राप्त करके अनिश्चित काल तक हुकूमत में बने रहने का फ़ार्मूला अब काफ़ी सस्ता और आसान हो गया है। हुकूमतों की मदद से सम्पदा का असीमित विस्तार करने में माहिर साबित हो चुके दो-चार या दस-बीस उद्योगपतियों को कोई भी सत्तारूढ़ दल अगर अपने नियंत्रण में ले ले तो फिर ये ही लोग दलालों के ज़रिए मीडिया की मंडी से कुछ बड़े समूहों को सरकारों के लिए ख़रीद लेंगे और अंत में उनमें काम करने वालों में से ही कुछ चुने हुए समर्पित पत्रकारों के आत्मघाती दस्ते देश और दुनिया के करोड़ों लोगों को वही सब कुछ दिखाएँगे जिसे कि सत्ता अपने बने रहने के लिए ज़रूरी समझेगी।
मीडिया के ये ही हरावल दस्ते किसी धर्म विशेष का प्रचार करने, धार्मिक उन्माद फैलाने, मॉब लिंचिंग की घटनाओं को उत्सवों में परिवर्तित करने, दो समुदायों के बीच नफ़रत पैदा करने, दो देशों के बीच युद्ध करवाने और इस सबके परिणामस्वरूप होने वाली तबाही के बाद शांति के प्रहरी बनकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाले अग्रदूतों की भूमिका भी विनम्रतापूर्वक निभा लेंगे।
उद्योगपतियों और मीडिया मालिकों का छोटा सा समूह भी अगर ठान ले तो बड़ी से बड़ी राजनीतिक पार्टी के लिए उसके लाखों कार्यकर्ताओं की वैचारिक ज़रूरत को ख़त्म करके उन्हें एक ऐसी अनियंत्रित भीड़ में बदल सकता है जो स्थानीय स्तर पर प्रशासन के मौन की स्वीकृति से प्रतिरोध की छोटी से छोटी आवाज़ को भी कुचल देने की क्षमता प्राप्त कर लेती है। आश्चर्यजनक यह भी है कि जिस मीडिया की नकारात्मक भूमिका के चलते दंगे भड़कते हैं और निर्दोष लोगों की जानें जाती हैं वही (मीडिया) बाद में पुलिस और प्रशासन की इस बात के लिए आलोचना करता है कि वह नफ़रत फैलाने वाली घटनाओं को रोकने में पूरी तरह से अक्षम साबित हुआ है। सरकारें उसकी दलीलों को मान भी लेती हैं।
अख़बारों के पाठकों और राष्ट्रीय (राष्ट्रवादी?) चैनलों की ख़बरों के प्रति ईमानदारी और विश्वसनीयता के प्रति पाठकों और दर्शकों का भ्रम काफ़ी हद तक टूटकर संदेहों में तब्दील हो चुका है। उनका बचा हुआ भरोसा भी सरकारी इंजीनियरों द्वारा बनवाए जाने वाले पुलों की तरह ही आने वाले समय में ध्वस्त हो जाएगा।
धार्मिक विद्वेष फैलाने में सक्षम मीडिया के एक वर्ग की ताक़त की चर्चा की जाए तो आठ करोड़ की आबादी वाले राजस्थान की कांग्रेस सरकार की पुलिस एक राष्ट्रीय चैनल के एंकर को ‘आँखों देखे, कानों सुने’ आरोपों के बावजूद राज्य की सीमा से लगी दिल्ली और नोएडा से गिरफ़्तार कर पाने में अपने आप को पूरी क्षमता के साथ असमर्थ साबित कर लेती है। दूसरी ओर, एक अन्य घटना में, एक भाजपा शासित राज्य की पुलिस, हज़ारों किलो मीटर दूर जाकर दूसरे भाजपा-शासित प्रदेश से किसी ऐसे आरोप में जिसे अदालत द्वारा बाद में अयोग्य ठहरा दिया जाता है, एक प्रमुख विरोधी नेता को पकड़कर ले जाने में सफल हो जाती है।
राजस्थान सरकार लम्बे समय तक प्रतीक्षा करती है कि हो सकता है आरोपी एंकर गिरफ़्तारी से बचने के लिए किसी अदालत से राहत पाने में सफल हो जाए। कारण? एंकर ऐसे बड़े चैनल का कर्मचारी है जिसका मालिकाना हक़ एक बड़े औद्योगिक घराने से जुड़ा हुआ है।
एंकर अंतरिम राहत पाने में सफल हो जाता है पर सरकार उसके ख़िलाफ़ ऊपर की कोर्ट में अपील नहीं करती। सरकारों को इस बात को ध्यान में रखना पड़ता है कि नफरत फैलाने के आरोपों में भी कार्रवाई किस मीडिया कम्पनी और राजनीतिक दल का संरक्षण पा रहे किस कर्मचारी के ख़िलाफ़ की जानी है।
जनता की समझ में अब आ गया है कि मीडिया के ज़रिए धार्मिक उन्माद और नफ़रत फैलाने का व्यवसाय किसी एक एंकर के बस की बात नहीं है। मीडिया संस्थानों की मदद से समाज में धार्मिक नफ़रत फैलाने का काम इस समय अरबों की राशि के निवेश वाले एक बड़े उद्योग की शक्ल ले चुका है। कांग्रेस पार्टी जिस उद्योग की ज़रूरत को अपने सत्तर साल के शासन काल में समझ नहीं पाई वही सिर्फ़ छह-सात सालों में उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया है।
अपवादों को छोड़ दें तो मीडिया और सत्ता के बीच रिश्तों को लेकर जिस तरह की राजनीति आज चल रही है उसमें कोई एक टीवी चैनल या मीडिया संस्थान अकेला नहीं है। जब भी कोई जहांगीरपुरी या अलवर होता है, नफ़रत फैलाकर धार्मिक ध्रुवीकरण करने का अभियान पहले मीडिया के एक वर्ग द्वारा शुरू किया जाता है और फिर बाक़ी सब के बीच टीआरपी बटोरने की होड़ मच जाती है।
दिल्ली की जहांगीरपुरी में बुलडोज़रों के इस्तेमाल से कथित अवैध निर्माणों को हटाने की कार्रवाई अलवर में एक प्राचीन मंदिर को स्थानीय स्वायत्त संस्था की कथित सहमति से गिराए जाने की घटना के बाद हुई थी। दोनों के बीच कोई सम्बंध नहीं था पर एंकर द्वारा कार्यक्रम इस तरह प्रस्तुत किया गया कि मंदिर गिराने की घटना को जहांगीरपुरी की कार्रवाई का बदला लेने के लिए अंजाम दिया गया था।
इसी तरह से मध्य प्रदेश के खरगोन में जब साम्प्रदायिक तनाव की घटना होती है, प्रमुख क्षेत्रीय समाचार पत्र भी राष्ट्रीय चैनलों से पीछे नहीं रहते। वे सत्तारूढ़ दल को खुश करने और अपनी प्रसार संख्या बढ़ाने के अभियान में जुट जाते हैं।
धार्मिक तनाव को बढ़ावा देने वाले अपुष्ट और प्रायोजित समाचार प्रमुखता से प्रकाशित किए जाते हैं कि अल्पसंख्यकों की दहशत के कारण बहुसंख्यक वर्ग के लोग अपने मकान बेच रहे हैं और एक बड़ी संख्या में खरगोन छोड़कर दूसरे शहरों में पलायन कर रहे हैं। दो-चार दिन बाद इन अख़बारों के पन्नों से खरगोन पूरी तरह ग़ायब हो जाता है।
आम आदमी की ज़रूरत से जुड़े मुद्दों के स्थान पर धार्मिक उत्तेजना फैलाने वाले विषयों को चुनकर जिस तरह की बहसें चैनलों पर आयोजित की जाती हैं, उनमें जिस तरह से आरोप-प्रत्यारोप एक-दूसरे पर लगाए जाते हैं उन्हें देख-सुनकर यही समझ में आता है कि मीडिया संस्थानों ने साम्प्रदायिक विद्वेष और नफ़रत फैलाने के काम की सुपारी ले रखी है। मुख्य धारा के मीडिया का एक प्रभावशाली वर्ग अमन के नाम से नफ़रत बाँटने वाले कार्यक्रम कर रहा है।
जनता को भ्रम हो रहा है कि चैनलों द्वारा जो कुछ भी अप्रिय या नफ़रत फैलाने वाला दिखाया जा रहा है उसके लिए कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाला एंकर ही अकेला दोषी है! कठपुतलियों को हैंडलर मान लेने की गलती की जा रही है। कभी भी यह बाहर नहीं आ पाता है कि नफ़रत की स्क्रिप्ट कौन लिख रहा है और निर्देशन कहाँ से प्राप्त हो रहे हैं! अभी यह भी तय होना बाक़ी है कि मीडिया संस्थानों द्वारा स्वेच्छा से अपनी आज़ादी सत्ता के हाथों सौंप देने और सरकार द्वारा मीडिया की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करने के बीच कितना फ़र्क़ रह गया है!
‘रिपोर्टर्स सां फ़्रंटीयर्स (आरएसएफ़)’ नामक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संस्थान ने भारत में मीडिया की स्वतंत्रता के पतन के लिए सिर्फ़ सरकार को दोषी ठहराया है। संस्थान ने यह नहीं बताया है कि अपनी आज़ादी सरकार को बेच देने के मामले में मीडिया स्वयं कितना ज़िम्मेदार है?
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