प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का असली स्वरूप कौन सा है? केंद्र की सत्ता में आठ साल और उसके पहले गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में बारह साल गुज़ार लेने के बाद भी इस बात का ठीक से पता लगना कठिन है कि मोदी अपने असली अवतार में क्या हैं! क्या वे वही हैं जो विदेश यात्राओं में अन्य शासनाध्यक्षों से मुलाक़ातों के दौरान या उन देशों में रहने वाले भारतीय समुदाय के लोगों से बातचीत में दिखाई पड़ते हैं या फिर वैसे हैं जब अपने ही देश के साधारण नागरिकों के बीच उनका प्रकटीकरण होता है?
आने वाले सालों में जब किसी एक दिन मोदी भारत राष्ट्र के प्रधानमंत्री के पद पर नहीं होंगे तब इतिहासकारों द्वारा उनके लम्बे कार्यकाल के हरेक तरह के निष्पक्ष मूल्यांकनों में शायद यह भी शामिल रहेगा कि अपनी दर्जनों विदेश यात्राओं के दौरान दूसरे शासनाध्यक्षों और उन देशों के मूल नागरिकों के बीच अपने व्यक्तित्व और वक्तृत्व की वे कैसी छाप छोड़ पाए!
विदेश यात्राओं के दौरान उनके द्वारा गढ़ी जाने वाली भारत की छवि की तुलना उनके पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों के विदेश दौरों से भी की जाएगी। इतिहासकारों के मूल्यांकनों में सम्भवतः यह भी शामिल रहेगा कि अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के प्रति किस तरह का स्पष्ट सम्मान या अप्रत्यक्ष असम्मान उन्होंने पराई ज़मीनों पर दर्शाना उचित समझा।
प्रसिद्ध लेखिका और अंग्रेज़ी की पत्रकार सागरिका घोष ने अपनी फ़ेस बुक वॉल पर नेहरू युग के प्रतिष्ठित राजनयिक 98-वर्षीय एम के रसगोत्रा से हुई मुलाक़ात का ज़िक्र किया है। अटल जी पर लिखी अपनी किताब की प्रति उन्हें भेंट करने के दौरान रसगोत्रा ने सागरिका के साथ वह क़िस्सा शेयर किया जब वे 1950 के दशक में भारतीय राजनयिक के तौर पर न्यूयॉर्क में कार्यरत थे।
प्रधानमंत्री नेहरू के सहयोगी एम ओ मथाई ने एक दिन फ़ोन करके उन्हें सूचना दी कि अटल जी अमेरिका की यात्रा करने वाले हैं और प्रधानमंत्री चाहते हैं कि उनका परिचय सभी प्रमुख अमेरिकी और अंतर्राष्ट्रीय हस्तियों से करवाया जाए। अटल जी का अच्छे से ख़याल भी रखा जाए।
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रसगोत्रा द्वारा अटलजी के सम्मान में आयोजित किए गए रात्रि भोज में जब एक अधिकारी ने प्रधानमंत्री नेहरू की गुट-निरपेक्ष नीति की आलोचना की तो अटलजी ने नाराज़ होकर जवाब दिया कि आपको पंडित जी के बारे में इस तरह की बात नहीं करनी चाहिए। आज़ादी मिलने के समय हमारे पास कुछ भी नहीं था। हमारे पास अपनी कोई स्वतंत्र विदेश नीति नहीं थी। हमारे पास आज जो कुछ भी है उसकी बुनियाद में नेहरू ही हैं।
मोदी जब हाल ही में तीन देशों की यात्रा पर गए तो बर्लिन में भारतीय समुदाय के कोई हज़ार-बारह सौ लोगों को अपने उद्बोधन में नेहरू के नाती और देश के सबसे युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बारे में उनका बग़ैर नाम लिए जो कुछ उन्होंने कहा उसने भारत के उस गौरवशाली अतीत को कटघरे में खड़ा कर दिया जिसका कि ज़िक्र रसगोत्रा ने सागरिका से किया था।
किसी जमाने में अकाल और भुखमरी के लिए कुख्यात रहने वाले उड़ीसा के कालाहांडी ज़िले की वर्ष 1985 में प्रधानमंत्री के तौर पर यात्रा के दौरान राजीव गांधी ने देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर तकलीफ़ ज़ाहिर की थी कि दिल्ली से भेजा जाए वाला एक रुपया जरूरतमंदों तक पहुँचने तक पंद्रह पैसे रह जाता है।
अपनी सरकार द्वारा गवर्नेंस में तकनीक के उपयोग के ज़रिए धन की राशि लाभार्थियों तक सीधे पहुँचाने का ज़िक्र करते हुए मोदी ने अपने उद्बोधन में कटाक्ष किया, “अब किसी प्रधानमंत्री को यह कहना नहीं पड़ेगा कि मैं दिल्ली से एक रुपया भेजता हूँ और नीचे पंद्रह पैसे पहुँचते हैं।”
प्रधानमंत्री यहीं नहीं रुके। अपने दाहिने हाथ के पंजे को फैलाकर उसे बाएँ हाथ की उंगलियों से कुछ क्षणों तक घिसते हुए मोदी ने पूछा, “वह कौन सा पंजा था जो 85 पैसा घिस लेता था?”
वर्तमान प्रधानमंत्री जब एक विदेशी ज़मीन पर अपने ही देश के पूर्व प्रधानमंत्री का बग़ैर नाम लिए मज़ाक़ उड़ा रहे थे तो उनके सामने बैठे हुए भारतीय मूल के हज़ार से अधिक सम्भ्रांत नागरिक खिलखिलाते हुए तालियाँ बजा रहे थे।
देश की जनता और विपक्ष प्रधानमंत्री के इतने सालों के शासन के बाद भी समझ नहीं पा रहा है कि मोदी अपने आपको दुनिया के नायकों की क़तार में किस स्थान पर खड़ा हुआ देखने की आकांक्षा रखते हैं या फिर राष्ट्र के जीवन में अपने किस योगदान के लिए विश्व इतिहास में जगह सुरक्षित करना चाहते हैं!
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यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं कि विदेशों में बसे भारतीय समुदाय के लोग ह्यूस्टन में ‘अब की बार, ट्रम्प सरकार’ के नारे भी मोदी के साथ लगा लेते हैं और जब प्रधानमंत्री बर्लिन में बग़ैर नाम लिए राजीव गांधी की खिल्ली उड़ाते हैं तो उस पर भी तालियाँ बजा देते हैं। भारतीय मूल के कोई दो लाख नागरिक इस समय जर्मनी में रह रहे हैं।
कम से कम दो प्रधानमंत्रियों- अटल जी और डॉ. मनमोहन सिंह के मीडिया दल में अमेरिका सहित कुछ देशों की यात्राएँ करने का मुझे अवसर प्राप्त हो चुका है। दोनों ही लोकप्रिय नेताओं ने अपनी यात्राओं के दौरान शीर्ष वार्ताओं के साथ-साथ भारतीय मूल के नागरिकों के समूहों से भी संवाद किया है। याद नहीं पड़ता कि किसी एक भी अवसर पर उन्होंने उन देशों की घरेलू राजनीति अथवा भारत में अपने राजनीतिक विरोधियों को लेकर कोई अप्रिय टिप्पणी की होगी।
इस तरह के आरोपों से इनकार किया जाना कठिन होगा कि वर्तमान में विदेश यात्राओं का उपयोग भारत को एक मज़बूत प्रजातांत्रिक राष्ट्र के रूप में विदेशी जन-मानस के बीच स्थापित करने के बजाय प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत छवि को मज़बूत करने के लिए ज़्यादा किया जाता है और इस काम में मदद देश का वह मीडिया ही करता है जिसकी विश्वसनीयता पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है।
यह भी कोई कम चौंकनेवाली बात नहीं कि प्रधानमंत्री स्वयं के देश में तो पत्रकारों के सवालों के जवाब देने से इनकार करते ही हैं, अपनी विदेश यात्राओं में भी वहाँ के शासनाध्यक्षों के साथ संयुक्त प्रेस वार्ताएँ नहीं करते।
इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वे उन प्रश्नों का सामना नहीं करना चाहते जिनके अप्राप्त उत्तर विदेशों में बसने वाले उन भारतीयों के लिए आँखें नीची करने की बाध्यता नहीं बन जाएँ जो प्रधानमंत्री के उद्बोधनों के दौरान ‘मोदी है तो मुमकिन है’ के नारे लगते नहीं थकते।
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