अमेरिकी सिनेमा की तुलना में भारतीय सिनेमा अक्सर समाज की कमज़ोर नस पर हाथ रखने से डरता भी है और बचता भी है। लेकिन अनुभव सिन्हा ने लगातार दो फ़िल्में बनाकर इस मिथक को तोड़ने की कोशिश की है। ‘आर्टिकल 15’ अनुभव सिन्हा की अद्भुत फ़िल्म है। ‘आर्टिकल 15’ अनुभव की फ़िल्म ‘मुल्क़’ की तरह वर्तमान भारत को न केवल झकझोरती है बल्कि उसके सामने एक ऐसा नंगा सच सामने लाकर खड़ा कर देती है जिससे सिर्फ़ आँखें ही चुराया जा सकता है, या फिर पूरा समाज शर्मसार हो सकता हैं। फ़िल्म एक सवाल पूछती है एक महान सभ्यता कैसे सदियों से ऐसे सामाजिक अभिशाप के साथ जी रही है और अब तक उसने क्यों इस सामाजिक कोढ़ से निजात पाने की निर्णायक कोशिश नहीं की? ये कोढ़ है जातिवाद का।

क्या फ़िल्म 'आर्टिकल 15' के ज़रिये अनुभव बाबा साहेब की रट लगाते-लगाते अंत में बाबा साहेब की तरह ही हार मान लेते हैं। बाबा साहेब तो बौद्ध बन गये थे। अनुभव ने क्यों ‘ब्राह्मण शरणम गच्छामि’ जाना स्वीकार किया। क्या यह उनका अपना वैयक्तिक जातिगत अपराधबोध है या जातिवादी व्यवस्था के आगे एक फ़िल्मकार का आत्मसमर्पण?
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।