किसान आन्दोलन के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विगत 29 नवम्बर को अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में तीनों क़ानूनों को न केवल भाग्य बदलने वाला बताया बल्कि उसके अमल में आने का ताज़ा साक्ष्य देते हुए महाराष्ट्र के धुले के किसान जीतेन्द्र भोइजी की चर्चा की। यह भी दिखाया गया कि एक न्यूज़ एजेंसी के कैमरे पर जीतेंद्र ने कहा कि उसने मध्य प्रदेश के एक व्यापारी को 3.32 लाख रुपये का मक्का बेचा लेकिन वह पैसे नहीं दे रहा था तो क़ानून के प्रावधान के तहत एसडीएम से शिकायत के तत्काल बाद व्यापारी किस्तों में पैसा देने को राज़ी हो गया। मोदी ने यह प्रकरण बता कर सिद्ध करना चाहा कि तीनों क़ानून कैसे किसानों को जंजीरों से मुक्त करेगा।
लेकिन पाँच दिन बाद ही उसी जीतेंद्र ने मीडिया में अपनी बात रखते हुए बताया कि वह इन क़ानूनों के ख़िलाफ़ है क्योंकि इसी क़ानून के तहत सरकारी क्रय-केंद्र पर उसका 340 कुंतल मक्का 1800 रुपये प्रति कुंतल के एमएसपी पर ‘कोटा ख़त्म हो गया’ कह कर खरीदने से मना कर दिया गया और उसे मजबूरन 1200 रुपये के भाव पर उक्त व्यापारी को बेचना पड़ा। इस पर जीतेंद्र को दो लाख का घाटा हुआ। लिहाज़ा जीतेंद्र ने पाँच दिन में ही मोदी जी के ‘यूएसपी’ को पलट दिया यह कह कर कि वह तीनों क़ानूनों के ख़िलाफ़ है क्योंकि ये किसान विरोधी हैं।
क्या मोदी यह सब करने के पूर्व सोचते नहीं हैं कि जिस बुनियाद पर वह वाहवाही का तमगा हासिल करना चाहते हैं अगर उसकी बुनियाद ही खिसक गयी तो उनकी विश्वसनीयता का क्या होगा?
सन 2014 के आम चुनाव में कांकेर (छत्तीसगढ़) की एक जन-सभा में बोलते हुए मोदी ने कहा ‘भाइयों-बहनों, मुझे बताइये, हमारी चोरी किये हुए पैसे वापस आना चाहिए कि नहीं आना चाहिए’? भीड़ ने कहा ‘आना चाहिए’। मोदी ने फिर पूछा ‘ये काला धन वापस आना चाहिए कि नहीं आना चाहिए’? जवाब आया ‘आना चाहिए’। ‘ये चोर-लुटेरों से एक-एक पैसा वापस लाना चाहिए कि नहीं लाना चाहिये’? भीड़ में उन्माद था, ‘लाना चाहिए’। ‘इस रुपयों पर जनता का अधिकार है कि नहीं है’? ‘ये रुपया जनता के काम आना चाहिए कि नहीं आना चाहिए’? ‘और एक बार ये जो चोर –लुटेरों के पैसे जो विदेशी बैंकों में जमा हैं, इतना भी रुपया हम ले आये तो फिर हिंदुस्तान के एक-एक ग़रीब आदमी को मुफ्त में 15 से 20 लाख रुपये यूँ ही मिल जायेंगे, इतने रुपये हैं।’
बाद में बकौल वर्तमान गृह मंत्री और तत्कालीन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि यह जुमला था। एक कक्षा पाँच का बच्चा भी अगर उस समय के ग़रीबों की संख्या (रंगराजन समिति की रिपोर्ट के अनुसार 36.30 करोड़) 30 करोड़ मान कर गणना करता तो पता चलता कि उसकी जेब में जाने वाली यह राशि भारत के अगले 30 साल के बजट के बराबर होती। क्या मोदी को यह कहते समय जनता की बौधिक क्षमता इतनी कम लगी?
दो साल पुरानी एक अन्य घटना लें। 11 मई को नेपाल के जनकपुर (सीता की जन्मस्थली) से अयोध्या (राम जन्म भूमि ) के लिए बस सेवा शुरू की गयी। जैसा कि हर घटना को ‘शो’ का स्वरूप दे दिया जाता है इसे भी मोदी और उनके समकक्ष नेपाल के प्रधानमंत्री ने जनकपुरी से हरी झंडी दिखा कर बस रवाना की। देश भर की मीडिया ने हाफ-हाफ कट तीन घंटे नॉन-स्टॉप दिखाया- मोदी जी का मंदिर में पूजा-अर्चना करना, भाषण देना और बाक़ी कार्यक्रम। इधर भारत की तरफ़ से अयोध्या से भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने भी एक बस रवाना की। भाषण में मोदी ने बताया कि कैसे इस बस के परिचालन से एक ही प्राचीन संस्कृति के दो पहलुओं का मेल एक बार फिर से जीवंत हो उठेगा।
तीन हफ्ते बाद पता चला कि बस सेवा तो पहले दिन ही चली। उत्तर प्रदेश सरकार ने नेपाल सरकार पर आरोप लगाया कि वे अपनी मंजूरी नहीं दे रहे हैं और नेपाल ने कहा कि अभी तक दोनों देशों की सरकारों में कोई समझौता हुआ हीं नहीं है। तीन माह तक झगडा चलता रहा और आज भी दोनों सांस्कृतिक पहलुओं का मेल सरकारी झगड़े में लटक गया।
किसानों के साथ वार्ता में सच्चाई ग़ायब
ताज़ा घटना देखिये। कई चक्र की वार्ता के दौरान शुरू से ही सरकार का रवैया शक पैदा करने लगा। पिछले नवम्बर में तीन बार किसान प्रतिनिधियों से कहा गया कि मंत्री बात करेंगे लेकिन जब प्रतिनिधि पहुँचे तो खाली सरकारी अफसर दिखे। दिल्ली में चल रहे आन्दोलन के बाद इस हफ्ते भी पहले दिन की वार्ता के ठीक दो घंटे पहले एक मंत्री अलग से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेता से बातचीत करने लगे। जब वार्ता शुरू हुई तो फिर वही चालाकी दिखी। पूरा देश जानता है कि किसी कार्य को लटकाना हो तो उसके लिए एक समिति बना दीजिये। सरकार ने भी प्रस्ताव दिया कि एक समिति बने जिसमें विशेषज्ञों के अलावा किसानों के चार से छः प्रतिनिधि रहें।
जाहिर है विशेषज्ञ भी सरकार चुनती यानी उनके पक्ष वाले लोग। लिहाज़ा कुछ माह बाद जब रिपोर्ट आती तो क़ानून को सही बताया जाता और किसानों का आन्दोलन ग़लत।
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चूँकि देश की सबसे बड़ी पार्टी का सबसे ताक़तवर नेता इस तरह के तात्कालिक लाभ का सहारा लेता है लिहाज़ा पूरे सिस्टम में यह घर करने लगा है।
दलित का हिन्दू मुख्यधारा में पूरी तरह समाहित न होना बीजेपी को सालता है। संघ की भी यही दुश्वारी है। लिहाज़ा रज्जू भैया के सरसंघचालक के कार्यकाल में समरसता का कार्यक्रम चला और वाराणसी में डोम राजा के घर संघ का शीर्ष नेतृत्व नाश्ते पर पहुँचा। लेकिन बाद में पता चला कि ब्राह्मणवादी सोच सनाघ के लोगों पर भी उतनी ही भारी पड़ रही है। पिछले साल पार्टी ने एक बार फिर तय किया कि हर मंत्री दलितों के घर जा कर खाना खायेंगे। अलीगढ़ में एक मंत्री जी का स्टाफ और पुलिस एक दलित के रात के 11 बजे कुंडी खटखटाए और जगा कर बोले ‘मंत्री जी यहाँ खाना खायेंगे’ जल्दी से कमरा खाली करो। जब तक वह दलित समझता एक गाड़ी से मेज कुर्सी ला कर सजा दी गयी और एक बड़े होटल से खाना ला कर परोसा गया। खाना खाए हुए मंत्री ने दलित को अन्दर से बुलवाया और उसके साथ फोटो खिंचवा कर मीडिया को भेज दिया। यह था समरसता का नया ‘मोदीमय’ संस्करण।
बिरले जननेता होते हैं जिनपर जनता को इतना भरोसा होता है जितना सन 2014 में मोदी पर रहा। फिर क्यों इस भरोसे को तोड़ने की ज़रूरत पड़ती है। संभव है प्रतिस्पर्धात्मक प्रजातंत्र में चुनाव मंचों से उत्साह में व्यक्ति ज़्यादा आगे बढ़ कर बोल देता है लेकिन ‘मन की बात’ (जैसा नाम से ही लगता है) तो सदाशय प्रयास था।
फिर आख़िर वह कौन सी मजबूरी है कि कड़कनाथ मुर्गे का व्यवसाय करने वाली महिला की आय बढ़ा-चढ़ा कर बताने के लिए छत्तीसगढ़ के अफसर लगाये जाएँ या धुले के युवा किसान के बारे में अर्ध-सत्य बताया जाए।
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