दुनिया में कोरोना-वैक्सीन का लोक-प्रयोग करने वाला पहला देश ब्रिटेन है। इसने अपने देश की वैश्विक स्तर पर मक़बूल ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों द्वारा एस्ट्रेजनेका कंपनी के सहयोग से विकसित ‘एजेडडी-1222’ को नज़रअंदाज़ करते हुए अमेरिकी कम्पनी फाइज़र द्वारा जर्मनी की कम्पनी बायोएनटेक के साथ विकसित बीएनटी-162बी2 नामक टीके को प्रयोग की इजाज़त दी। हालाँकि स्वयं अमेरिका अभी भी इसे मंजूरी देने की प्रक्रिया में है।
ब्रिटेन में इस्तेमाल के दो दिन बाद हीं पता चला कि दो स्वास्थ्य कर्मियों को अचानक गंभीर समस्या हो गयी क्योंकि उन्हें कुछ तत्वों से एलर्जी थी। अब ब्रिटिश सरकार ने एडवाइजरी जारी किया है कि जिन्हें एलर्जी की समस्या हो वे इसे न लें। प्रश्न यह है कि क्या फाइज़र ने टीका के क्लिनिकल परीक्षण के तमाम चरणों में इन मौलिक सावधानियों का भी ध्यान नहीं रखा या व्यापार से धन बटोरने के चक्कर में तथ्यों को छिपाया।
भारत में इस कम्पनी ने ‘आपात प्रयोग अनुमति’ (ईयूए) की अनुमति सरकार से माँगी है। लेकिन इसने एक भी मानव प्रयोग इस देश में नहीं किया है। आमतौर पर एशियाई देशों के लोगों की शारीरिक संरचना और प्रतिरोधी क्षमता अलग होती है।
बहरहाल, दूसरा पैंतरा कम्पनी ने तब लिया जब इसे लगा कि वैक्सीन का मूल्य ज़्यादा है और रखरखाव के लिए माइनस 70 डिग्री की शर्त भी भारत जैसे गर्म और ग़रीब मुल्क के लिए मुश्किल होगा लिहाज़ा अनुमति शायद न मिले। कम्पनी का अब कहना है कि क़ीमतें मुल्क की हैसियत देख तय की जाएगी और बहुत ग़रीब देशों को लाभ-शून्य क़ीमत पर दिया जाएगा। चिंता तब हुई जब कंपनी ने यह भी एलान किया कि वैक्सीन में सुधार करके इसे सामान्य फ्रिज के तापमान पर भी रखने वाला बनाया जाएगा।
कैसे संभव है ऐसा दावा? क्या इसके पहले इस बदले वैक्सीन को बहु-चरणीय ट्रायल से महीनों नहीं गुजारा जाएगा? क्या इसे क्लिनिकल ट्रायल पर मानवों पर प्रयोग करते हुए कुछ माह तक इसका कुप्रभाव/इम्यूनोजेनिसिटी/सेफ्टी ट्रायल फिर से नहीं आँकना पड़ेगा?
उधर ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्रेजनेका की एजेडडी 1222 जो भारत में पुणे की सीरम इंस्टिट्यूट कोविशिल्ड के नाम से बना रही है, ने समिति को सेफ्टी डाटा केवल नवम्बर 15 तक का ही दिया है। समिति ने उन्हें भारत और साथ ही ब्रिटेन में किये गए ताज़ा परीक्षण परिणामों के आँकड़े देने को कहा है।
इस समय भारत में ईयूए के लिए सरकार को तीन कंपनियों ने आवेदन किया है और तीनों की वैक्सीन के दो डोज 28 दिनों के अंतराल पर लगाने होंगे। हालाँकि भारत सरकार का दावा है कि आठ वैक्सीन विकास के विभिन्न चरण में हैं।
लेकिन इसी बीच दूसरा मामला कई दिन पहले का है और ज़्यादा दिलचस्प है। एस्ट्रेजनेका-ऑक्सफ़ोर्ड की वैक्सीन अभी तक परीक्षणों में सबसे आगे मानी गयी थी। अचानक पता चला कि कुछ असावधानी के कारण 2800 लोगों को क्लिनिकल परीक्षण के दौरान पहला डोज आधी वॉल्यूम का लग गया। हालाँकि दूसरा डोज पूरी वॉल्यूम का लगा था। लेकिन जब परिणाम देखे गए तो यह राज खुला। इससे चौंकाने वाली बात यह थी कि जिन लोगों पर ग़लती से कुल डेढ़ डोज लगा था उन पर सफलता का प्रतिशत 90 से ज़्यादा रहा। यानी ख़र्च भी कम और परिणाम चोखा। लेकिन वैज्ञानिक दुनिया में ऐसी भूल अक्षम्य है लिहाज़ा बाद में कम्पनी कहने लगी कि ग़लती से नहीं जानबूझ कर पहला डोज आधा दिया गया था लेकिन स्वयं ऑक्सफ़ोर्ड के वैज्ञानिकों ने इसे नकार दिया। ब्रिटिश सरकार ने इसी कारण से अपने देश की ही सबसे मक़बूल संस्था ऑक्सफ़ोर्ड के वैज्ञानिकों की खोज की जगह अमेरिकी फाइज़र कंपनी की वैक्सीन ली।
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मान्यता है कि कम से कम जब दुनिया के फानी होने का ख़तरा हो तब मनुष्य में अध्यात्म का भाव विकसित हो जाता है और वह क्रोध, राग, मोह, विलास और लालसा से मुक्त हो जाता है। लेकिन कॉर्पोरेट दुनिया में, और ख़ासकर वैश्विक फ़ार्मा उद्योग में ये विकार और बढ़ जाते हैं। वैक्सीन का जल्दी आना एक वैज्ञानिक उपलब्धि है और यह भी दर्शाता है कि मानव में अगर तात्कालिक लाभ के लिए समस्या पैदा करने की फितरत है तो उससे निकलने की कूवत भी।
कोरोना का टीका तैयार
कोरोना का टीका वैज्ञानिकों ने तैयार कर लिया है—कुछ गुण-दोषों के साथ। जाहिर है जब दुनिया के या तो बीमारी से ख़त्म होने का ख़तरा हो या अर्थ-व्यवस्था के ध्वस्त होने से भूखमरी का, तो सामान्य दिनों में लागू नियमों को शिथिल किया जाता है। वैक्सीन के मामले में भी ‘वैज्ञानिक कदाचार’ के स्तर तक छूट दी गयी है। आम तौर पर वैक्सीन की बहु-चरणीय परीक्षण व्यवस्था में किसी टीके को लोक-प्रयोग के लिए जारी करने के पहले कम से कम तीन से चार साल तक मानव पर क्लिनिकल ट्रायल और उसके कुप्रभावों पर नज़र रखी जाती है परन्तु इसे 10 माह में ही लोक-प्रयोग के लिये लाया जा रहा है। ब्रिटेन इसमें अग्रणी है। अमेरिका और भारत में इसके जल्द ही लोकार्पण की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है।
चूँकि सभी प्रमुख वैक्सीन कैंडिडेट्स किसी न किसी व्यावसायिक उद्यम से जुड़े हैं लिहाज़ा टीका के परीक्षण के नियम तथ्य छिपाना, कौन सा कोरोना-वैक्सीन किस देश के लिए मुफीद होगा इसका चुनाव एक बड़ी समस्या है जिससे भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय की विशेषज्ञ-समिति विगत बुधवार को जूझती रही।
फ़ैसला हुआ इन कंपनियों से बहु-चरणीय वैक्सीन-परीक्षण के और आँकड़े मँगाए जाएँ।
इस बीच दो और घटनाएँ हुईं जिसने समिति को ‘पॉज’ बटन दबाने को मजबूर किया। दुनिया के टीकाकरण वाले पहले देश ब्रिटेन में जब एक अमेरिकी कंपनी की वैक्सीन लगी तो दो लोगों की हालत ख़राब हुई क्योंकि उन्हें एलर्जी थी। इसका मतलब भारत जैसे देश में जहाँ आम जनता को अपनी एलर्जी का पता नहीं है, पहले एलर्जी टेस्ट हो फिर वैक्सीन लगे। यानी एक और जटिल प्रक्रिया।
दूसरा, अभी तक इस कम्पनी का टीका शून्य से 70 डिग्री नीचे ही रखना ज़रूरी था लेकिन अब इसी कंपनी ने दावा किया है कि भारत जैसे देश के लिए सामान्य फ्रिज के तापमान पर रखे जा सकने वाला टीका तैयार करेगी।
वैक्सीन कोई एफ़एमसीजी प्रोडक्ट नहीं है जिसे स्थान, ग्राहक की जेब का माल या पसंद देख जब चाहा डिजाइन में परिवर्तन कर दिया। अगर फ्रिज के तापमान पर रखने वाला टीका बनाना है तो उसे भी बहु-स्तरीय परीक्षण से गुजरना होगा और वह भी भारतीयों पर।
उधर भारत में विकसित की जा रही दो अन्य प्रमुख वैक्सीन तैयार करने वाली कंपनियों –एक पुणे-स्थित और दूसरी हैदराबाद-स्थित-से समिति ने क्लिनिकल परीक्षण के आँकड़े देने को कहा है। चूँकि आपात-प्रयोग अनुमति (ईयूए) देना एक बेहद संजीदा मुद्दा है और करोड़ों लोगों को टीका लगना है लिहाज़ा समिति भी फूँक-फूँक कर क़दम रख रही है। उसने पुणे-स्थित कंपनी से यह भी कहा है कि वह इस टीका की खोज करने वाले देश ब्रिटेन की सरकार द्वारा अनुमति तक इंतज़ार करेगी।
इसी बीच गुजरात में स्थित एक अन्य कम्पनी जिसे भारत सरकार ने शोध के प्रारंभ में ही आर्थिक मदद की थी, उस वैक्सीन के विकास में काफ़ी हद तक सफलता पा ली है जो एम-आरएनए तकनीक पर आधारित है।
यह वही तकनीक है जिस पर अमेरिकी कम्पनी ने वैक्सीन बनाई है और जो ब्रिटिश सरकार के पहली बार प्रयोग किया है। लेकिन इसके परीक्षण-प्रक्रिया ख़त्म करने में अभी कम से कम तीन माह का विलम्ब होगा। बहरहाल, सावधानी भारत के लिए सबसे ज़रूरी है।
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कौन सा टीका किस विधि से
शोध-पत्रिका लांसेट की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्रेजनेका, जिसका भारत में व्यापक तौर पर उत्पादन भी कर लिया गया है, शरीर में दोनों प्रतिरोधी पैमानों- एंटीबॉडी का विकास और कोशिकाओं में टी-लिम्फोसाइट्स के ज़रिये रोकना- पर खरा उतर रहा है हालाँकि एक प्रयोगात्मक भूल से 2800 लोगों पर कम डोज का पहला टीका देने के कारण इसकी वैक्सीन पर प्रश्न चिन्ह लगाया जा रहा है जबकि दूसरी ओर अमेरिका के मॉडर्ना और फाइजर के दोनों टीके काफ़ी महंगे पड़ रहे हैं। सरकार के स्तर पर पहले चरण में इसे एक करोड़ स्वास्थ्य कर्मियों को और एक करोड़ फ्रंटलाइन यानी पुलिस सहित अग्रिम पंक्ति के काम करने वालों को टीका लगाया जाएगा। चूँकि दोनों टीके भारत में ही बन रहे हैं लिहाज़ा सरकार ने 500 से 600 एमआरपी वाली कोविशिल्ड के लिए आधी क़ीमत में करोड़ों टीके खरीदने का मन बनाया है। दो टीकों के डोज को (कुल 50 करोड़ टीके) 25 करोड़ लोगों को मई-जून तक लगाने की योजना है। कहा जा रहा है कि ये दोनों टीके सामान्य ठंडे तापमान पर भी सुरक्षित रह सकेंगे। एम-आरएनए के वैक्सीन सिद्धांत पर बने दो अन्य टीके -फाइजर और जर्मनी की बायोएनटेक निर्मित बीएनटी 162 और अमेरिकी सरकार के ‘वार्पस्पीड’ द्वारा वित्त-पोषित मॉडर्ना का टीका एमआरएनए-1273 महंगा (क़रीब 2600 से 3500 रुपये का) पड़ रहा है जबकि ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्रेजनेका का टीका सस्ता है और भारत में ही सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया द्वारा बनाया जा रहा है।
केंद्र सरकार ने वैक्सीन विकास के वैश्विक प्रयासों पर शुरू से ही नज़र रखी थी। एजेडडी-1222 जो अब कोविशिल्ड के नाम से प्रयुक्त होगा चिम्पांजी से एडनोवायरस वेक्टर ले कर शटल प्रक्रिया के माध्यम से इसमें जेनेटिक बदलाव किया जाता है ताकि टीका दिए जाने पर कोविड में मिलने वाले कांटेदार प्रोटीन विकसित किये जा सकें।
उधर आईसीएमआर और भारत बायोटेक (हैदराबाद) द्वारा विकसित कोवैक्सीन निष्क्रिय वैक्सीन के सिद्धांत पर आधारित है और टीका बनाने का परम्परागत तरीक़ा है। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश में सस्ता टीका ही व्यावहारिक हो सकता था। केंद्र सरकार इस प्रयास में काफ़ी हद तक सफल रही। तीसरा रूसी टीका जो प्रतिकृति-अक्षम (नॉन-रेप्लिकेटिंग) वायरल वेक्टर के विकास के सिद्धांत पर आधारित है, भी भारत सरकार की नज़रों में है। कुल मिलाकर यह कोरोना जंग जीतने का पहला उद्घोष कहा जा सकता है।
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